पिछले एक दशक से इस देश की सांस्कृतिक, धार्मिक, और ऐतिहासिक अवधारणाओं को बदलने का लगातार प्रयास हो रहा हैं। जिस तरह से सिर्फ दो सवा दो साल में संसद के नए भवन को एक निश्चित तिथि के दिन यानि सावरकर जन्मतिथि के दिन धार्मिक विधि विधान के साथ पेश किया गया वो सिर्फ योगानुयोग नहीं था, ये इसलिए भी कह सकते है क्योंकि अब सावरकर की जीवनी पर एक फिल्म भी बनकर तैयार है और फिल्म बनाने में भी उतना ही वक्त लगा है जितना सेंट्रल विस्टा बनने में लगा हैं। वैसे देखा जाए तो दक्षिणपंथियों के लिए सावरकर सिर्फ एक साधन है, असली लक्ष्य तो गांधी हैं। गांधी के सामने गोडसे टिक नहीं पाता इसलिए सावरकर इनके लिए एक मात्र विकल्प है जिसकी लाइन बड़ी कर देने से, जैसा कि इन्हें लगता है, गांधी का कद छोटा किया जा सकता है। लेकिन ऐसा है नहीं, क्योंकि विदेश में जाकर आप को गांधी, और बुद्ध को ही भारत की देन बताना पड़ता है, विदेश की धरती पर आप गोडसे या सावरकर का यशोगान नहीं कर सकते। गांधी के शरीर को आप मार सकते हो, लेकिन गांधी विचार को नहीं। विश्व आज भी आदरभाव से गांधी की ओर देखता है, गोडसे या सावरकर को नहीं।
वैसे वर्तमान सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी देखा गया है कि आयोजनपूर्वक देश के मुख्य विमर्श में ऐसे मुद्दे घुसेड़े गए, जिसका कोई औचित्य ही नहीं था। उदाहरण के तौर पर किसान बिल। ऐसा ही एक ओर प्रोपेगेंडा विमर्श फिर से परोसने की तैयारी हो चुकी है। रणदीप हुड्डा ने फिल्म “स्वातंत्र्य वीर सावरकर” का टीजर रिलीज किया हैं। 1 मिनट 13 सेकंड के इस टीजर में ही इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया है और झूठ परोसा गया है। टीजर का ये हाल है तो पूरी फिल्म में कितना झूठ का पुलिंदा भरा होगा वो तो फिल्म देखने के बाद ही पता चलेगा।
चलो, गिनते है, 1:13 सेकंड में कितना झूठ बोला जा सकता है!
- आजादी की लड़ाई कितने साल चली?
टीजर में पहली लाइन में ही ये झूठ बता दिया है कि आजादी की लड़ाई 90 साल चली। यानि 1857 से लेकर 1947 तक! लेकिन इतिहास ये बताता है कि आजादी की लड़ाई की शुरुआत 1747 से या उससे पहले ही शुरू हो चुकी थी। टीपू सुलतान की गणना भी महान स्वातंत्र्य वीरों की सूची में होती है और उनका जीवनकाल 1751 से 1799 है। टीपू सुलतान मैसूर स्टेट के बादशाह थे और उनके पिता हैदर अली ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए एक समझौते के तहत फ्रांस की तालीमयाफ्ता आर्मी का उपयोग किया था। यानि टीजर की पहली लाइन कि स्वतंत्रता की जंग सिर्फ 90 साल की थी, गलत है। वास्तव में देश का स्वातंत्र्य संग्राम का कार्यकाल कम से कम 200 साल का है।
- स्वतंत्रता की लड़ाई कुछ ही लोगों ने लड़ी थी?
टीजर की दूसरी लाइन में कहा गया है कि “आजादी की लड़ाई कुछ ही लोगों ने लड़ी, बाकी सब तो सत्ता के भूखे थे।” ये देश के स्वातंत्र्य वीरों का सरासर अपमान है। दो सौ साल लंबी आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले अनगिनत लोगो में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब थे। लाहौर से लेकर ढाका और श्रीनगर से लेकर मद्रास तक पूरा भारत वर्ष इस लड़ाई में शामिल था। इतना जरूर है कि गांधी जी के स्वदेश आगमन के बाद आजादी की लड़ाई, वास्तव में जन आंदोलन बनी। लेकिन “कुछ ही लोगों ने लड़ाई लड़ी, बाकी सब तो सत्ता के भूखे थे।” ये क्या हमारे देश के आजादी जंग के शहीदों का अपमान नहीं है?
- गांधीजी के अहिंसावाद की वजह से देश को 35 साल देरी से आजादी मिली?
ये तो इतिहास का सिरे से तोड़ मरोड़ हैं। 35 साल देरी यानि जो आजादी 1947 में मिली वो 1912 में मिल जाती और इसका कारण गांधी हैं। तो अक्ल के अंधों और इतिहास से अबोध बालकों, महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आते ही 1915 में हैं। 1912 में देश में न गांधी थे, न उनका अहिंसावाद था, तो सावरकर को किसने रोका था, अंग्रेजों से आजादी लेने के लिए?
- सावरकर ने आजादी की लड़ाई के लिए सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह और खुदीराम बोस को प्रेरित किया था?
फिल्म के टीजर में ये लिखा हुआ है, अब इस फिल्म निर्माताओं के इतिहास के ज्ञान पर हंसना चाहिए या रोना चाहिए? खुदीराम बोस सिर्फ 18 साल की उम्र में सन 1908 में शहीद हो गए थे। और सावरकर 1906 से 1911 तक लंदन में थे, तो सावरकर ने कब और कहां खुदीराम बोस को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरणा दी? सुभाष बाबू हमेशा हिंदू महासभा और सावरकर के उग्र टीकाकार रहें हैं तो वो कैसे सावरकर से प्रेरणा ले सकते थे? जबकि शहीद भगतसिंह को फांसी दी गई तब जवाहर लाल नहेरू और सुभाष चंद्र बोस ने भगतसिंह को फांसी से बचाने के भरसक प्रयास किए थे, जबकि सावरकर ने भगतसिंह के लिए एक शब्द भी नहीं कहा था। और ये अनपढ़ टोली बता रही है कि भगतसिंह को सावरकर से प्रेरणा मिलती थी?
- अंत में सवाल किया जाता है कि who killed his story? यानि सावरकर को किसने भुला दिया?
लेकिन आप ये सोचिए, पिछले 9 वर्ष से आप को बार-बार सावरकर कौन याद दिला रहा है और क्यों? इतिहास के पन्नों को फिर से पलटिए, पढ़िए और वर्तमान समय की राजनीति का अध्ययन करें तो पता चल जाएगा कि वास्तव में सत्ता के भूखे लोग कौन हैं!
(सलीम हाफेजी स्वतंत्र पत्रकार हैं और अहमदाबाद में रहते हैं।)