Saturday, April 27, 2024

भारत में जनवरी, 2021 से रोजाना सामने आएंगे कोरोना के 2.87 लाख मामले : मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट

कल राशन लेने बाज़ार गया। देखा तो बाज़ार गुलज़ार थे। लेकिन किसी के मुँह पर मास्क नहीं था फिजिकल डिस्टेंसिंग पर तो ख़ैर बहुत सख्ती तब भी नहीं थी। मेरा भांजा इलाहाबाद के मदन मोहन मालवीय स्टेडियम में क्रिकेट मैच खेलने जा रहा है। ये हाल तब है जब 24 घंटे में बढ़ने वाले कोविड-19 केसों की संख्या लगभग 28 हजार हो गई है और 24 घंटे में कोरोना से मरने वालों की संख्या 543 के पार। 

देश में कोरोना केस का आंकड़ा 1 लाख तक पहुंचने में 109 दिन लगे थे। उसके बाद अगले 15 दिन में यह आंकड़ा डबल होकर 2 लाख हो गया। अगला एक लाख नया केस जुड़ने में 10 दिन का ही वक्त लगा। फिर अगले 8 दिनों में और एक लाख नए केस सामने आ गए। दिनों की संख्या आगे और घटती गई और सिर्फ 6 दिन में कोरोना केस की संख्या 4 से पांच लाख हो गई। फिर 5 से 6 लाख केस होने में 5 दिन का ही वक्त लगा। 6 से 7 लाख केस होने में भी 5 दिन ही लगे, लेकिन अब 7 से 8 लाख की संख्या महज तीन दिन में ही हो गई।

जनवरी में हर दिन 2.87 लाख कोरोना केस सामने आएंगे 

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के रिसर्च के मुताबिक साल 2021 की शुरुआत में हर दिन 2.87 लाख मामलों के साथ भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित देश बन सकता है। यानि कोविड-19 महामारी का सबसे बुरा दौर अभी आना बाकी है। भारत में भी कोरोना वैक्सीन या दवाई के बिना आने वाले महीनों में कोविड-19 के मामलों में भारी उछाल देखने को मिल सकता है। 

एमआईटी के स्लोन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के हाजी रहमानंद, टीआई लिम और जॉन स्टेरमैन द्वारा आयोजित स्टडी में कहा गया है कि प्रतिदिन अमेरिका में 95,400, दक्षिण अफ्रीका में 20,600, ईरान में 17,000, इंडोनेशिया में 13,200, ब्रिटेन में 4,200, नाइजीरिया में 4,000 मामले सामने आएंगे।

स्टडी के अनुसार, इलाज या टीकाकरण के अभाव में 84 देशों में 2021 तक 249 मिलियन (24.9 करोड़) मामले और 17.5 लाख मौतें हो सकती हैं। इसमें फिजिकल डिस्टेंसिंग के महत्व को दोहराया गया है। साथ ही कहा गया है कि भविष्य में कोरोना के संक्रमण का यह आंकड़ा टेस्टिंग पर नहीं, बल्कि संक्रमण को कम करने के लिए सरकार और आम आदमी की इच्छा शक्ति के आधार पर अनुमानित है। 

एमआईटी के शोधकर्ताओं ने संख्याओं की भविष्यवाणी करने के लिए एसईआईआर (Susceptible, Exposed, Infectious, Recovered) मॉडल का इस्तेमाल किया। एसईआईआर एक मानक गणितीय मॉडल है, जिसका उपयोग महामारी विज्ञानियों द्वारा विश्लेषण के लिए किया जाता है। अध्ययन तीन कारकों में दिखता है। पहला, वर्तमान परीक्षण दर और प्रतिक्रिया। दूसरा, यदि टेस्टिंग एक जुलाई से प्रतिदिन  0.1 प्रतिशत बढ़ता है। तीसरा, यदि टेस्टिंग का आंकड़ा मौजूदा स्थिति पर रहता है, एक व्यक्ति से संक्रमण फैलने का दार आठ रहता है।

मोदी सरकार ने लॉकडाउन को ही कोविड-19 का इलाज मान लिया 

जहां दुनिया के तमाम देश लॉकडाउन को कोरोना के खिलाफ़ तैयारी के अवसर के रूप में लेकर ज़रूरी संसाधनों को इकट्ठा करने और ज़रूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने में इस्तेमाल कर रहे थे भारत के प्रधानमंत्री अपनी ‘मूर्खताओं’ को पौराणिकताओं का जामा पहनाकर उसे स्वीकार्यता दिलाने में लगे हुए थे। 

पहले जनता कर्फ्यू के 14 घंटों को मास्टर स्ट्रोक सिद्ध करने के लिए गायक अभिनेता और भक्त पत्रकारों की लाइन लगा दी। 

फिर 21 दिन के पहले लॉकडाउन को महाभारत के पौराणिक कथा से जोड़ते हुए 18 दिन के बरअक्श 21 दिन का लॉकडाउन खड़ा किया। महामारी से लड़ने के लिए भी धर्म और अंधविश्वास का खूब इस्तेमाल किया। प्रधानमंत्री से लेकर उनके मंत्रियों और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने। शिवराज सिंह ने कोरोना काढ़ा लांच किया तो योगी आदित्य नाथ ने बजरंगबली को 51 मास्क चढ़ाए। कहीं कोरोना यक्ष तो कहीं, कोरोना माई की पूजा।

लेकिन कोविड-19 महामारी घटने के बजाय बढ़ती ही गई तो प्रधानमंत्री ने पहले दारू के ठेके फिर मंदिर मस्जिद और बाजार खुलवा दिए। अब तो उनका फोकस स्कूल कॉलेज खुलवाने पर भी है। दरअसल ये प्रधानमंत्री की अज्ञानता और अंधविश्वास ही था जिसने आज करोड़ों भारतीयों को कोरोना के मुँह में धकेल दिया है।

24 मार्च को संक्रमितों सी संख्या 600 थी और 1 जून को 2.5 लाख हो गई। और फिर एक महीने बाद 6 लाख। कह सकते हैं लॉकडाउन सफल नहीं रहा। अर्थव्यवस्था संकट में पहुंच गई। तो इन्होंने खोल दिया जो मरता है तो मरे। दरअसल लॉकडाउन इलाज नहीं है। ये सिर्फ़ संक्रमण धीमा करके बीमारी को कंट्रोल करने का मौका देता है। जो प्लानिंग करनी चाहिए थी वो हुई नहीं। सरकार ने अब लॉकडाउन पूरी तरह खोलकर इकोनॉमी को खड़ा करने पर फोकस कर दिया है। पूरी तरह से सोच लिया है जो चाहे मरे। कंपनियां, फैक्ट्रियां खोल दी गई हैं। मालिक तो जाएंगे नहीं मैनेजर देखेगा, मजदूर जाएंगे। संक्रमति होंगे, मरेंगे पर कंपनी, कारखाने चलेंगे। प्रधानमंत्री ने तो अब कोरोना पर बयान देना भी बंद कर दिया है।  

एक हाथ बाँधकर लड़ा जाता है क्या युद्ध

नीरज जैन भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- “दुनिया भर में भारत को बीमारियों की राजधानी कहा जाता है क्योंकि यहाँ टीबी और मलेरिया जैसी इलाज़ वाली बीमारियों से भी लोग मर जाते हैं। भारत की स्वास्थ्य सुविधाएं वैसे ही बहुत खराब हैं।  

भारत अपनी जीडीपी का सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। जबकि यूरोप में जीडीपी का 5-8 प्रतिशत तक स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है। वहीं विकासशील देशों में जीडीपी का 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता है। इसे यदि प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च के हिसाब से समझें तो भारत में सालाना प्रति व्यक्ति 1100 रुपए इलाज पर खर्च किया जाता है। जबकि यूरोप में सालाना प्रति व्यक्ति 3 लाख रुपए इलाज पर खर्च किया जाता है। 

भारत स्वास्थ्य सुविधाओं पर लगभग नहीं के बराबर खर्च करता है। जबकि दूसरी ओर प्राइवेट स्वास्थ्य सुविधाओं को सब्सिडी देकर प्राइवेट अस्पताल खड़े करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। उन्हें सस्ते दर पर जमीन, और दूसरी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं। सरकारी सुविधाएं नहीं हैं तो लोग प्राइवेट अस्पताल में जाते हैं। इलाज में 65 प्रतिशत खर्च लोगों को अपने जेब से करना पड़ता है। गरीब लोग प्राइवेट अस्पताल का इलाज अफोर्ड नहीं कर सकते तो बिना इलाज के ही मर जाते हैं। यही कारण है कि भारत में इलाज वाली बीमारियों से भी मरने वालों की संख्या दुनिया में सबसे ज़्यादा है। क्रोनिक बीमारियों से 60 प्रतिशत लोग मरते हैं जबकि इन्हें मैनेज करके टाला जा सकता है।

जो देश सामान्य बीमारियों से नहीं लड़ पा रहा है उस देश में यदि कोरोना बीमारी फैलने लगी तो उस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था उसको नियंत्रित कर ही नहीं सकती। स्थिति ये है कि हमारे मुल्क़ में प्रति लाख आबादी पर 300-400 टेस्ट हो रहे हैं। जबकि दुनिया के दूसरे देशों पर प्रति लाख आबादी पर टेस्टिंग का आँकड़ा 8000 के करीब है। इसी तरह मरने वालों की संख्या भी कम करके बताई जा रही है। अस्पतालों और डॉक्टरों को आदेश है कि वो कोरोना से मरने वालों को हर्ट अटैक और डायबिटीज से मौत बताकर आँकड़ों को कम कर रहे हैं।  

नीरज जैन कहते हैं- “जब ज़्यादातर बेड (2/3) और ज़्यादातर वेंटिलेटर (80%) प्राइवेट सिस्टम में हैं। जबकि कोरेना के समय में अस्पताल बंद करके लोग घरों में बैठे हैं। तो पूरे प्राइवेट अस्पताल नेटवर्क का टेकओवर होना चाहिए था। क्योंकि आपके ज़्यादातर अच्छे अस्पताल, अच्छे डॉक्टर प्राइवेट सेक्टर में हैं। जब हम कहते हैं कि ये युद्ध है। कोरोना के खिलाफ़ हमने युद्ध छेड़ा है। तो एक हाथ पीछे बाँधकर थोड़े ही युद्ध में संघर्ष किया जाता है। पूरी ताक़त लगाई जाती है। इसका अर्थ है कि देश की सारी स्वास्थ्य सुविधाओं को इसमें झोंकना चाहिए था, सबको इस्तेमाल में लाना चाहिए था। स्पेन, आयरलैंड न्यूजीलैंड जैसे देशों ने यही किया। वहां जितने भी प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल थे वो सारा इन्होंने टेक ओवर किया। यहां तक कि प्राइवेट अस्पताल में टेस्टिंग की सुविधा भी 4500 रुपए प्रति व्यक्ति रखी गई। जबकि पब्लिक सेक्टर में टेस्टिंग सुविधा कम थी।”     

लॉक डाउन तैयारी का समय देता है समाधान नहीं 

अर्थशास्त्री व जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं-  “ये एक मेडिकल इमर्जेंसी है और इससे निपटने के लिए लॉक डाउन लागू किया गया। लेकिन लॉक डाउन समाधान नहीं है। लॉक डाउन सिर्फ़ समय देता है तैयारी का। ताकि पीक समय के लिए आप तैयार हो सकें। अपने देश में पीक समय अक्टूबर नवंबर में आएगा और उस समय दोबारा से लॉकडाउन लगाना पड़ सकता है ताकि पीक नंबर को कम किया जा सके जब वायरस दोबारा से अटैक करता है और ज़्यादा ख़तरनाक तरह से करता है जैसा कि हमने कुछ देशों के संदर्भ में देखा है। जब संक्रमितों की संख्या मौजूद बेडों की संख्या से ज़्यादा हो जाती है तो सुसाइडल ब्रेकडाउन शुरु हो जाता है। 

अरुण कुमार आगे कहते हैं, “गरीब की आमदनी रुकती है तो वो भूख के कगार पर आ जाता है। लोग भूखे-प्यासे हजारों किमी पैदल चलकर वापस अपने गांव जाने को मजबूर हो जाते हैं। वापस जाते मजदूर लोग अपने गांव जाकर मरने की बात करते हैं। ये डर है जो समाज में व्याप्त हो गया है। 

गरीबी और असमान वितरण के चलते लॉकडाउन ने समाज के एक बड़े हिस्से को ज़्यादा प्रभावित किया है। पीने का साफ़ पानी तक नहीं होता उनके पास। पानी के लिए खाने के लिए छोटी छोटी ज़रूरत के सामानों के लिए उन्हें निकलना पड़ता है। शहरों में काम करने गए मजदूर एक छोटे से कमरे में 6-8 मजदूर रहते हैं। सरकार ने सोचा ही नहीं कि लॉकडाउन से इतनी बड़ी संख्या में पलायन होगा। ये सोचना चाहिए था कि लॉकडाउन से काम बंद होने से असंगठित क्षेत्र पर क्या असर होगा?

यह सोचना चाहिए था कि फिजिकल डिस्टेंस कैसे होगी जब एक कमरे में 6-8 लोग रहते हैं? आप हाथ धोने की बात कर रहे हैं, उनके पास पीने का पानी नहीं है, वो क्या करेंगे? वो रोज कमाकर खाते हैं तो लॉकडाउन में क्या करेंगे? इसीलिए लॉकडाउन का जितना फायदा मिलना चाहिए था, नहीं मिला। अब पता चल रहा है कि स्थिति कितनी खराब है। 8 मजदूर एक कमरे में चौबीसों घंटे नहीं रह सकते। बेहतर तो यही होता कि वो जहां थे उन्हें वहीं ज़रूरत का सामान पहुँचाया जाता। स्कूलों और तमाम खाली इमारतों में उनके रहने की व्यवस्था की जाती।

(सुशील मानव जनचौक के विशेष संवाददाता हैं।)

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