मणिपुर में ढाई महीने से ज़्यादा वक़्त से हिंसा हो रही है। इस पर देश को जागने के लिए एक वीडियो का इंतज़ार था। वह दो दिनों पहले सामने आया। यौन हिंसा का जब तक हमने वह ख़ौफ़नाक वीडियो नहीं देखा तब तक हम में से ज़्यादातर लोगों को मणिपुर में चल रही जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं था। न ही यह अंदाज़ा था कि किस तरह यह हिंसा महिलाओं को निशाना बना रही है। वीडियो में दिखता है कि सैकड़ों नौजवानों के हुजूम के बीच बिना कपड़े के दो महिलाओं को पकड़ कर ले जाया जा रहा है। उनके अंगों से खेला जा रहा है। ख़बरें ऐसा बता रही हैं, तीन महिलाएं थीं। एक के साथ सामूहिक बलात्कार भी हुआ है।
जो दिख रहा है, वह बलात्कार से भी बढ़कर है
सवाल है, जिसे हम सामूहिक बलात्कार होने की ख़बर कह रहे हैं, अगर वह न भी हुआ हो तो जो होता हुआ दिख रहा है, वह क्या है? जो किया गया, वह क्यों किया गया?
हर वह हरकत बलात्कार है, जो किसी की ख़्वाहिश के बग़ैर उसके शरीर के साथ की जाए। किसी के सम्मान को इस तरह चोट पहुंचाना और सम्मान के साथ सरेआम खेलना… बलात्कार ही है। इसके लिए शरीर भेदना ज़रूरी नहीं है। यह हिंसा मर्दाना सत्ता, दबंग मर्दानगी और नफ़रत की उपज है। और मणिपुर के इस आपसी संघर्ष में महिलाओं के साथ यौन हिंसा की यह कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ रही हैं।
स्त्री शरीर यानी जंग का मैदान
मणिपुर जैसे संघर्ष का सबसे बड़ा निशाना लड़कियां और महिलाएं होती हैं। लड़कियों का शरीर जाति-धर्म, राष्ट्र, क्षेत्र, नस्ल की जंग का मैदान बन जाता है। मर्दाना ख़्याल यह मानता है कि समुदाय, राष्ट्र, जाति, धर्म को जीतना है तो दूसरे पक्ष की स्त्रियों को ‘जीतो’। अगर इन्हें हराना है तो दूसरे पक्ष की स्त्रियों पर हमला करो। ऐसे में वह एक स्त्री अकेली न रहकर अपने समुदाय की नुमांइदा बन जाती है। उसके ज़रिये समुदाय पर हमला किया जाता है।
मर्दाना सत्ता यह भी मानता है कि महज़ जीतना या हराना नहीं है। स्त्री शरीर पर हमलावर होना है। हमला भी कहां करना है, यह भी वह बताता और सिखाता है। इसलिए हमले के नतीजे में महज किसी की हत्या नहीं होती है। मर्दाना सत्ता बताती है कि यौन हिंसा करनी है। स्त्री के ख़ास अंगों को निशाना बनाना है।
उन अंगों को ही निशाना क्यों बनाना है? क्योंकि समाज, परिवार, जाति, धर्म, राष्ट्र, समुदाय, नस्ल सबकी इज़्ज़त का भार स्त्री उठाये है। मर्दाना ख़्याल ने इज़्ज़त को उसके कुछ अंगों में समेट दी है। इसीलिए अगर दूसरे समूह की स्त्रियों के उन अंगों को निशाना बनाया जाए तो मर्दाना समाज मान लेता है कि उसने उस समुदाय, परिवार, जाति, धर्म, राष्ट्र, नस्ल की ‘इज़्ज़त लूट ली’। ‘इज़्ज़त मटियामेट कर दी’।
मर्दाना विजेता और पराजित
स्त्रियों के साथ ऐसी यौन हिंसा कर हमलावर पक्ष अपने को विजेता और दूसरे समूह को पराजित भी मानता है। यही नहीं, वह ऐसा करके दूसरे समूह के मर्दों को नीचा भी दिखाता है। मणिपुर में भी एक पक्ष अपने को विजेता मान रहा है। दूसरे को पराजित दिखा रहा है। वह वीडियो देखें। बेबस लड़कियों के साथ उछल-कूद करते नौजवान मर्द कैसे उत्साह में हैं। यही नहीं, इस मर्दाना हिंसा में स्त्रियां भी अपने समुदाय की प्रतिनिधि बन कर बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हैं। मणिपुर की इस घटना में भी ऐसा हुआ।
ऐसा नहीं है कि ऐसी जीत का उत्साह सिर्फ़ स्त्रियों के साथ हिंसा में होता है। कई मर्दों को भी ऐसी हिंसा झेलनी पड़ती है। जहां एक समूह दूसरे समूह के मर्द की मूंछ काट डालता है। सर के बाल मुंड़वा देता है। यानी उन्हें मर्दानगी के कथित पहचान से मरहूम कर बेइज़्ज़त करता है।
नफ़रत और नफ़रत की राजनीति
भीड़ का विजयी उत्साह बिना नफ़रत के मुमकिन नहीं है। एक का दूसरे के लिए बेइंतहा नफ़रत। यह नफ़रत बिना नफ़रती राजनीति के मुमकिन नहीं है। राजनीति यानी नफ़रत को विचार का रूप देना। नफ़रत का राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करना। समाज को नफ़रत के आधार पर दो या कई खेमो में बांट देना। यह अहसास पैदा कर देना कि एक का रहना, दूसरे के लिए ख़तरनाक है। इस नफ़रती राजनीति का पितृसत्तात्मक विचारों से मेल और नई तरह की हिंसक मर्दानगी का उभार, ऐसी घटनाओं में आसानी से देखा जा सकता है।
इसका नतीजा क्या हुआ?
पिछले कुछ सालों में हम यौन हिंसा के मामले में आरोपितों का धर्म, जाति, राष्ट्रीयता देखकर खुलेआम उनके साथ खड़े होने लगे या चुप रहने लगे या यौन हिंसा झेलने और इंसाफ़ के लिए लड़ने वाली लड़कियों और स्त्रियों के ख़िलाफ़ हो गए। हाल के दिनों में ही ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास हैं, जहां हमें बतौर समाज एक आवाज़ में यौन हिंसा की मुख़ालफ़त में खड़े हो जाना चाहिए था लेकिन नहीं हो पाए।
यही नहीं, इस राजनीति का नतीजा है कि राज्य भी विचार के हिसाब से यौन हिंसा करने वालों के साथ कहीं न कहीं खड़ा नज़र आता है। अगर ऐसा न होता तो मणिपुर में दो महीने पहले हुई घटना पर कार्रवाई हो चुकी होती। यही नहीं, इस वीडियो के आने के बाद भी बहुतेरे लोग अब भी ऐसे हैं, जो किंतु-परंतु के साथ बात कर रहे हैं। वे इस हिंसा की बात के जवाब में किसी और हिंसा का हवाला देने लगते हैं। जब हम एक हिंसा का हवाला दूसरी हिंसा से देते हैं तो हम हिंसा का विरोध नहीं बल्कि हिंसा का समर्थन ही कर रहे होते हैं। यह बतौर समाज हमारे नफ़रती, हिंसक और स्त्री विरोधी होते जाने की बड़ी पहचान है।
यौन हिंसा पर नफ़रती राजनीति का साया
यह आपसी नफ़रत और नफ़रत की राजनीति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। नफ़रत और नफ़रत की राजनीति में हमने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है। इसीलिए हम यौन हिंसा अपनी सुविधा के अनुसार देखते हैं। कुछ दिनों पहले की बात है। देश की नामचीन महिला पहलवान धरने पर बैठी थीं। उन्होंने कुश्ती संघ के उस वक़्त के अध्यक्ष पर यौन हिंसा करने का आरोप लगाया था। चूंकि उनका धरना ख़ास तरह की राजनीति को पसंद नहीं था तो उनकी बातों को नकारने की कोशिश की गई। उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाये गए। उनका मज़ाक़ बनाया गया। उनसे सुबूत मांगे गए। मगर उनके पास दिखाने को कोई ख़ौफ़नाक वीडियो नहीं था। इसलिए वे महीनों तक धरने पर थीं। हमारा समाज कान में तेल डालकर चुपचाप सो रहा था। ऐसा यौन हिंसा की कुछ और घटनाओं में भी हुआ है।
कठुआ, बिल्किस और मुज़फ़्फ़रनगर याद है?
जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक बच्ची के साथ सामूहिक यौन हिंसा होती है। इस हिंसा की वजह धार्मिक नफ़रत थी। इसे झुठलाने की कोशिश की जाती है। आरोपितों के पक्ष में जुलूस निकालते जाते हैं। यह उस बच्ची के साथ हुई यौन हिंसा को जायज़ ठहराना नहीं था तो क्या था? यौन हिंसा करने वाले को एक समूह का हीरो बनाना नहीं था तो क्या था?
21 साल पहले गुजरात दंगों में गर्भवती बिल्किस के साथ हिंसक भीड़ ने सामूहिक बलात्कार किया। उसके परिवार के 14 लोगों की हत्या कर दी गई। इसमें उसकी तीन साल की बेटी भी थी। लम्बी क़ानूनी लड़ाई के बाद सामूहिक बलात्कार के मामले में 11 लोगों को उम्र कैद की सज़ा हुई। ये सभी लोग बीच-बीच में अलग-अलग क़ानूनी उपायों का इस्तेमाल करके जेल से आते-जाते रहे। एक साल पहले इन 11 लोगों की सज़ा वक़्त से पहले ख़त्म कर दी गई। ये सभी बाहर आ गए। बाहर आकर वे ‘हीरो’ हो गए। किसके हीरो? समुदाय के? धर्म के?…और जिसके साथ यौन हिंसा हुई, वह ठगी सी रह गई।
2013 में मुजफ़्फ़रनगर की साम्प्रदायिक हिंसा में कई महिलाओं के साथ बलात्कार की ख़बर आती है। यहां भी बलात्कार की वजह ख़ास धार्मिक पहचान थी। मक़सद बज़रिये स्त्री, समुदाय पर हमला था। कुछ महीने पहले नौ साल बाद एक मामले में दो लोगों को 20 साल की सज़ा होती है। कई केस वापस हो गए।
क्या यह महज़ संयोग है कि मणिपुर, कठुआ, गुजरात या मुजफ़्फ़रनगर में एक हमलावर समूह दूसरे समूह की महिलाओं के साथ यौन हिंसा करता है? महिलाओं को निशाना बनाने का पहला मक़सद हत्या का नहीं था। पहले उनके साथ यौन हिंसा फ़िर उसके बाद कुछ और।
दुखद तो यह है कि ऐसे ज़्यादातर मामलों में यौन हिंसा सिर्फ़ एक समुदाय का मुद्दा बन कर रह जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिल्किस के मुजरिमों की सज़ा न तो वक़्त से पहले ख़त्म की जाती और न ही उनको सामाजिक सम्मान मिलता। यही नहीं मुज़फ़्फ़रनगर की कई पीड़ितों को अपने क़दम पीछे नहीं खींचने पड़ते।
अगर ऐसा होता रहेगा तो मणिपुर जैसी घटनाएं कैसे रुकेंगी?
जहां भी संघर्ष, वहां निशाना स्त्रियां
दुनिया भर में जहां भी समुदायों के बीच संघर्ष है, वहां निशाने पर स्त्रियां हैं। ख़ासतौर पर कमज़ोर पक्ष की स्त्रियां। हमारे देश में इस तरह की ढेरों घटनाएं आज़ादी और बंटवारे के वक़्त भी हुईं। उस दौर में हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों ने एक-दूसरे की महिलाओं का अपहरण किया। उनके साथ यौन हिंसा की। यह मानकर की कि हमने दूसरे की ‘इज़्ज़त लूट ली’ और दूसरे पर ‘जीत हासिल’ कर ली है।
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के वक़्त बंगला भाषी होने की वजह से वहां की महिलाओं पर बहुत यौन हिंसा हुई। पूर्वी यूरोप में बोस्निया की महिलाओं के साथ, म्यांमार में रोहिंग्या महिलाओं के साथ, इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) द्वारा यज़िदी स्त्रियों को यौन दासी बनाकर यौन हिंसा करना- बज़रिये स्त्री शरीर जीतने और हराने के ऐसे अनेक मर्दाना उदाहरण हमें मिल जाएंगे।
तो क्या यह सब चलता रहेगा?
तो क्या यह मान लिया जाए कि ऐसा होता ही रहेगा। जहां संघर्ष है, वहां की स्त्रियों को यह सब झेलना ही होगा। अगर हम चाहते हैं कि ऐसी यौन हिंसा रुके तो कुछ क़दम उठाये जाने बहुत ज़रूरी हैं।
- ऐसी हिंसा को किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ यौन हिंसा समझनी भूल होगी। यह यौन हिंसा समुदाय के ख़िलाफ़ है, समाज और संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ है। स्त्री जाति के सम्मान के ख़िलाफ़ है। इसलिए सबसे पहले इस तरह की यौन हिंसा को क़ानूनी तौर पर अलग दर्जे़ की यौन हिंसा माननी होगी। इसके लिए तय वक़्त में केस का निपटारा ज़रूरी है। कड़ी से कड़ी सज़ा देनी ज़रूरी। सामाजिक तौर पर सज़ा देना और जुर्माना लगाना होगा। उस इलाके के जिम्मेदार प्रशासनिक और पुलिस अफ़सरों पर भी कार्रवाई करनी होगी।
- राज्य अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। इसलिए ऐसी घटनाओं में राज्य को ज़िम्मेदार बनाना होगा।
- इज़्ज़त के मर्दाना सोच को नकारना होगा। स्त्री के कुछ यौन अंग किसी समुदाय, धर्म या राष्ट्र की इज़्ज़त के रखवाले नहीं हैं, यह समझना और समझाना होगा।
- सबसे बढ़कर लड़कों और मर्दों के साथ स्त्रियों को भी इंसान बनना होगा। वे अपने से अलग समुदाय की स्त्री का जुलूस निकालकर, ख़ुद को ही अमानवीय बना रहे हैं।
ध्यान रहे, कल जब संघर्ष थमेगा तो यही लड़के और मर्द अपने धर्म, जाति, राष्ट्र, समुदाय की स्त्रियों का जुलूस निकालेंगे। उसके सम्मान के साथ खेलेंगे। इतनी ही बुरी तरह से यौन हिंसा करेंगे। वे अपनी स्त्रियों का भी जीवन बदतर कर देंगे। यह तय है। उन्हें ऐसा करने की आदत लग गयी है और मान्यता भी मिली है।
हर हिंसा को ना करना ही होगा
किसी भी सभ्य समाज में ऐसी किसी भी हिंसा को बर्दाश्त करने की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। अगर यह गुंजाइश लगातार बनी है तो बतौर सभ्य समाज, हमें अपने बारे में सामूहिक तौर पर जल्द से जल्द सोचना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि अगर यह वीडियो न आया होता तो हम यौन हिंसा के आरोपों की बात मानते या नहीं? क्योंकि हमने अपने नामचीन पहलवानों से सुबूत मांग लिए थे।
अगर हम चाहते हैं कि मणिपुर जैसी घटना का कोई और वीडियो किसी और कोने से न आए तो हमें बतौर समाज कुछ चीज़ें तुरंत करनी होंगी। यौन हिंसा, चाहे जो करे उसका विरोध करने और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की आदत डालनी होगी। नफ़रत और नफ़रत की राजनीति ने हमें यौन हिंसा के आरोपितों का धर्म, जाति, समुदाय देखकर बोलने की आदत डाल दी है। इस आदत को ख़त्म करना होगा। बोलना होगा- हिंसा क़तई बर्दाश्त नहीं।
(नासिरुद्दीन पत्रकार हैं।)
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