वैसे देखा जाय तो संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 22 जनवरी 2024 को भारत को सच्ची आजादी मिलने संबंधी जो बयान दिया है, वह उतना मौलिक भी नहीं है। यह संघ की मूल विचार प्रक्रिया की ही निरंतरता है। शायद अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो इसकी संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी द्वारा खुले आम घोषणा और इसकी ‘टाइमिंग है।
संघ ब्रिटिश साम्राज्यवाद की बजाय मुसलमानों को अपना अव्वल दुश्मन मानता था। ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी उसका कभी उद्देश्य था ही नहीं, वरन मुस्लिमों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना और हिंदुओं के बोलबाला वाले हिंदूराष्ट्र की स्थापना ही हमेशा से उसका लक्ष्य रहा है और आज भी है।
दरअसल 2025 में संघ की स्थापना के सौ साल पूरे हो रहे हैं। संभवतः उन्होंने उम्मीद की थी कि राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद वे प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने में सफल होंगे और उसके बल पर संविधान में मनमाने बदलाव करके, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद आदि हटाकर भारत को एक तरह से हिंदू राष्ट्र घोषित कर देंगे। लेकिन देश की जनता ने उनके मनसूबे को चकनाचूर कर दिया। अभी तो वे वन नेशन वन इलेक्शन के अपने महत्वाकांक्षी बिल पर लोकसभा में सामान्य बहुमत तक नहीं जुटा सके, जबकि उसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत थी।
संभवतः इस तरह के बयानों से संघ भाजपा राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को हिंदू राष्ट्र के प्रतीक के बतौर पेश कर इसे अपने मिशन की प्राप्ति घोषित करना और अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं।
इसी का दूसरा उदाहरण महाकुंभ के नाम पर जो अतिवादी प्रचार किया जा रहा है, वह भी है। दोनों ही मामलों में जिस तरह धार्मिक आयोजन का राजनीतीकरण किया गया वह अभूतपूर्व है। विज्ञापन पर सरकारी खजाने से पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। बहरहाल यह साफ है कि 22 जनवरी को अयोध्या राम मंदिर के प्रचार के बावजूद जिस तरह भाजपा बहुमत तक नहीं पहुंच पाई, उसी तरह महाकुंभ को एक विराट राजनीतिक अभियान में बदल देने के बावजूद संघ भाजपा के मनसूबे पूरे नहीं होने जा रहे। इसके माध्यम से 2027 में यूपी में चुनावी वैतरणी पार करने और प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की जो महत्वाकांक्षा योगी जी पाले हैं, वह फलीभूत होने वाली नहीं है।
दरअसल राममंदिर आंदोलन के फासीवादी अभियान और नव उदारवादी अर्थनीति के गतिपथ में एक गहरा साम्य देखा जा सकता है। एक ओर अर्थनीति एक नए तरह के राष्ट्रवाद का वातावरण बना रही थी, जिसे प्रो प्रभात पटनायक ने जीडीपी राष्ट्रवाद की संज्ञा दिया है। दूसरी ओर संघ राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से हिंदू राष्ट्रवाद का अभियान चला रहा था। इन दोनों में यह समानता थी कि दोनों का ही जनता के जीवन की बेहतरी और अधिकारों से कोई लेना देना नहीं था।
सच्चाई यह है कि जिस समय देशभक्त भारतीय आपस में तमाम मतभेदों के बावजूद विदेशी शासन से मुक्ति के लिए लड़ रहे थे उस समय आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठन अंग्रेजों के साथ सहयोग कर रहे थे। उन्होंने उस लड़ाई के मूल्यों से निकले भारत के संविधान और तिरंगे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
कांग्रेस स्वयं तमाम विचारों के देशभक्तों के संयुक्त प्लेटफॉर्म के बतौर उभरी थी। उसके अंदर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से तरह तरह के समाजवादी यहां तक कि एक समय कम्युनिस्ट भी काम करते थे। कांग्रेस के बाहर भी तमाम धाराएं सक्रिय थीं। राष्ट्रवादी क्रांतिकारी धारा थी जिससे जुड़े युवा देश की आजादी के लिए बलिदान दे रहे थे। भगत सिंह जैसे नौजवानों के लिए जहां समाजवाद लक्ष्य था, वहीं डॉ. अम्बेडकर जाति विनाश के लिए मनुवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ रहे थे। देश में किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के तमाम संघर्ष हो रहे थे, जिनकी अपने तबकाई मुद्दों के साथ साथ मुख्य धार अंग्रेजों के खिलाफ थी। लेकिन संघ और उसके सहमना संगठन एकमात्र ऐसी धारा थे जो पूरी तरह आजादी की लड़ाई के आंदोलन से अलग थे।
दरअसल 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ही अंग्रेजों ने यह समझ लिया कि भारत की गंगा जमनी तहजीब को जब तक तबाह नहीं किया जाएगा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की दीवार नहीं खड़ी की जाएगी तब तक भारत में राज कर पाना असंभव है। इस अनुभूति के बाद सचेत ढंग से उन्होंने इस मिशन को अंजाम दिया। माफी मांगकर जेल से बाहर निकले सावरकर ने सबसे पहले हिंदू और मुसलमान के दो अलग राष्ट्र का सिद्धांत प्रतिपादित किया, बाद में मुस्लिम लीग भी इस खतरनाक खेल में शामिल हो गई। RSS का मूल वैचारिक आधार सावरकर का यही द्विराष्ट्र का सिद्धांत बना जिसे बाद में संघ के नेताओं ने और परिमार्जित किया। इन्हीं ताकतों की मदद से अंग्रेज धर्म के आधार पर देश को विभाजित करने में सफल हो गए। देश को रक्तरंजित आजादी मिली, विश्व इतिहास की संभवतः सबसे बड़ी आबादी के विस्थापन और जान माल की तबाही का यह साक्षी बना।
उस समय यह आजादी की लड़ाई के मूल्यों और उससे निकले तपे तपाए राष्ट्रीय नेताओं का प्रभाव था कि भारत को पाकिस्तान की mirror image अर्थात एक हिंदू भारत बनाने में लाख कोशिशों के बावजूद ये कामयाब नहीं हो पाए।
डॉ अम्बेडकर के नेतृत्व में बनी ड्राफ्टिंग कमेटी द्वारा लिखित संविधान को देश ने अंगीकार किया और आजाद भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया। अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा मानकर इन ताकतों ने राष्ट्रपिता गांधी की हत्या कर दी। लेकिन उससे ये और अलग थलग पड़ गए, उनके ऊपर गृहमंत्री सरदार पटेल ने प्रतिबंध लगाया और देश धर्मनिरपेक्ष, “समाजवादी पैटर्न” के गणतंत्र की राह पर बढ़ चला।
इसमें बड़ा बदलाव 80 के दशक से शुरू करके 1991 में पूरी तरह लागू LPG नई आर्थिक नीतियों के ढांचागत बदलाव के साथ आया। लोककल्याणकारी राष्ट्रवाद की अवधारणा जिसका आधार सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, समतामूलक समाज, आम जनता के जीवन की बेहतरी के ठोस मूल्य थे, उसकी जगह वायवी, भावनात्मक मेटाफिजिकल राष्ट्रवाद ने ले ली जिसे प्रो. प्रभात पटनायक ने जीडीपी राष्ट्रवाद कहा है। इसमें अब जनता के जीवन की बेहतरी की बजाय जीडीपी की वृद्धि दर सरकारों की प्राथमिकता हो गई। और उसके माध्यम से देश को दुनिया की बड़ी ताकत बनाने का हवाई नारा गूंजने लगा। यह सच है कि इन नीतियों को लागू करते हुए भी गैर भाजपा सरकारें मोटे तौर पर धरमनिर्पेक्षता के रास्ते पर चलती रहीं। लेकिन समाज में गैर बराबरी अंधा धुंध बढ़ती रही।
इसी जीडीपी राष्ट्रवाद की अगली छलांग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और 2014 के बाद आया भारत को विश्वगुरु बनाने का नारा था। भोली भाली जनता को एक तरफ अमृत काल, 2047 तक भारत को महान राष्ट्र बना देने, 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था, दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत बना देने और बुलेट ट्रेन के सपने दिखाए गए, अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा को हिंदुराष्ट्रवाद के चरमोत्कर्ष के रूप में पेश किया गया। उधर दूसरी ओर देशी विदेशी पूंजी के धन कुबेरों को अंधाधुंध लूट की छूट दी गई, देश की आम जनता की विराट आबादी की वास्तविक आय घटती गई, बेरोजगारी महंगाई ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए, विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री पिकेटी के शब्दों में भारत दक्षिण अफ्रीका के बाद दुनियां का सबसे गैर बराबरी वाला समाज बन गया और देश एक फासीवादी निज़ाम के चंगुल में फंस गया।
आज डॉ अम्बेडकर पर हमला कर वे संविधान को बदनाम करना चाहते हैं। 22जनवरी 2024 को सच्ची आजादी का दिन बताकर वे उपनिवेशवाद विरोधी स्वातंत्र्य संग्राम से अपनी गद्दारी की अपराध ग्रंथि से मुक्त होना और हिंदू-राष्ट्रवाद की लहर में पूरे हिंदू समाज को बहा ले जाना चाहते हैं ताकि लोग इनके राज में हो रही अपने जीवन की वास्तविक तबाही को भूल जाएं।
प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं, “नव उदारवाद और फासीवादी तत्वों के राजनीतिक उभार के बीच के रिश्ते को आमतौर पर पहचाना नहीं जाता है।इन तत्वों के उभार को आर्थिक संदर्भ से काटकर पूरी तरह राजनीतिक कारकों का ही नतीजा मान लिया जाता है। लेकिन यह एक भ्रांतिपूर्ण समझ है, जिसे अगर दुरुस्त नहीं किया जाता तो यह फासीवादी तत्वों के वर्चस्व को बनाए रखने का ही काम करेगी।”
जाहिर है नव उदारवादी नीतियों को जारी रखते हुए आप फासीवाद के विरुद्ध कोई निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ सकते। संकटापन्न नवउदारवादी अर्थतंत्र का स्वाभाविक राजनीतिक स्वरूप फासीवादी शासन है, जिसे अलग अलग रूप रंग में अमेरिका में ट्रंप की पुनर्वापसी से लेकर दुनिया के तमाम देशों में देखा जा सकता है।
आज जरूरत इस बात की है कि नवउदारवादी अर्थतंत्र और फासीवादी अधिनायकवाद के विरुद्ध समग्र संग्राम छेड़ा जाय जिसका सुसंगत नेतृत्व वामपंथी, लोकतांत्रिक ताकतें ही कर सकती हैं।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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