सुप्रीम कोर्ट में एक साथ तीन महिला जजों की नियुक्ति के मायने

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आये दिन महिला हिंसा होने पर देश पीड़ित महिला के साथ हिंसा होने के पश्चात मोमबत्ती जलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते दिखाई देता है। हिंसा होने के पश्चात् फाँसी की सजा दो का नारा जोर पकड़ते चला जाता है, ज्यादा हो हल्ला होने पर सरकार द्वारा आनन फानन में अपराधी को एन्काउंटर करके मारने तथा उसकी सम्पत्ति नेस्तनाबूत करने के आदेश देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करके देश की जनता की वाह-वाही लूटने में मस्त रहती है। भारत के संविधान में आरोपी के भी अधिकार हैं न्याय से वंचित कर बिना किसी छानबीन के व्यक्ति को मार डालना यह गैर संवैधानिक है, पुलिस को अपराध करने के लिए प्रोत्साहित करने का काम सरकार द्वारा किया जा रहा है। पुलिस द्वारा एन्काउंटर करके अपराधी को खत्म कर दिया जाता है किन्तु इससे अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं।

पुलिस प्रकरण में इन्वेस्टीगेशन की कार्यवाही करने, सही अपराधी को पकड़ने से बच जाती है और आनन फानन में किसी भी व्यक्ति पर आरोप लगाकर उसे एन्काउंटर में खत्म कर शातिर अपराधी को अपराध करने के लिए प्रेरित करते दिखाई देती है। इसी का परिणाम हम देख रहे है कि महिला हिंसा बड़ी तादाद में सुरसा की तरह मुँह फाड़ती दिखाई दे रही है। एन्काउंटर करके पुलिस न्याय पालिका के अधिकार को समाप्त कर रही है और विधायिका इस पर मौन है यह देश का दुःखद पहलू है। उसी तरह कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार अधिनियम 2020 में उल्लेख किया गया है कि अगर इस कानून का उल्लंघन होगा तो पीड़ित पक्षकार न्यायालय के दरवाजे नहीं खटखटा सकता, उन्हें न्याय पाने के लिए अनुविभागीय अधिकारी (एसडीएम) की शरण लेनी होगी।

धीरे-धीरे करके सरकार न्यायपालिका के अधिकारों को खत्म करने पर तुली है। हरियाण में हमने अनुविभागीय अधिकारी को किसानों के सिर फोड़ने का आदेश देते हुए वीडियो देखा, सिर्फ वीडियो तक आदेश देने की बात नहीं बल्कि आदेश का पालन करते कर्मचारियों द्वारा किसानों के फूटते सिर, बहता खून और गिरती लाश भी देखी, पूरा देश यह भी समझ चुका है कि अपनी जमीन बचाने के लिए किसान अनुविभागीय अधिकारी के समक्ष पहुंचेगा तो उसे जमीन बचाना तो दूर अपनी जान बचाने के लाले भी पड़ जायेंगे, और किसान की जमीन कम्पनियों के हाथ सौंपने का आदेश अनुविभागीय अधिकारी द्वारा दे दिया जायेगा। न्याय के समक्ष सब समान हैं। देश के किसी भी नागरिक को न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता, मौलिक अधिकारों के खिलाफ बना यह कानून देश हित में नहीं है।

हमारे लोकतंत्र की यही तो विशेषता है कि लोकतंत्र को सुधारने के मौके मिलते रहते हैं, पर यह लोकतंत्र तभी सुधरेगा जब देश के आम नागरिक की रूचि हिन्दू मुस्लिम लड़ाई से हटकर लोकतंत्र और संविधान को बचाने की होगी। पूरी दुनिया में स्त्रियों से भेदभाव की घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है, लेकिन हमारे देश ने लोकतंत्र को अपनाया है और धीरे-धीरे स्थितियाँ बेहतर होती चली जायेंगी ऐसी आशा और उम्मीद पूरा देश तीन महिला जज न्यायाधीश हिमा कोहली, न्यायाधीश बीवी नागरत्ना, न्यायाधीश बेला एम. त्रिवेदी से करता है। लोकतंत्र में न्याय पालिका से देश की जनता एवं सरकार का विश्वास कम होना लोकतंत्र के लिए घातक है, ‘‘न्याय में विलम्ब अन्याय को बढ़ावा देता है।’’ इस पर महिला न्यायाधीशों से देश यह उम्मीद करता है कि देश की जनता कानून अपने हाथ में ना ले और उसे यह विश्वास हो कि देश की न्यायपालिका उसके साथ समय सीमा में न्याय करेगी ।

इस देश ने हमारे न्यायाधीशों को अनेक प्रकरणों में महिला हित में फैसले करते हुए देखा है। कानून बनाने का हक हमारी विधायिका को है, पर जब हमारी न्यायपालिका यह देखती है कि कार्य स्थल पर यौन शौषण रोकने के लिए कोई कानून इस देश में नहीं बना है, तो हमारे न्यायाधीश भारत के संविधान के मौलिक अधिकारों का सहारा लेते हुए विशाखा गाईड लाईन के नाम पर फैसला सुनाते हैं। फैसला देखने के बाद भी हमारी संसद कार्यस्थल पर यौन शौषण को रोकने के लिए कारगर उपाय करने में पूर्णतः असमर्थ दिखाई देती है। भारतीय संविधान में हर नागरिक के लिए समान अवसर प्रदान करने पर जोर होने के बावजूद कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ जाने में स्त्रियों को अपेक्षा के अनुरूप मौके नहीं मिलते, ऐसा ही एक उदाहरण सेना का भी है, सेना में जाने के लिए महिलाओं के दरवाजे पूर्णतः बन्द थे। पितृ सत्ता को यह पसन्द नहीं था कि महिलाएं सेना में अपना गौरव और प्रतिभा दिखाकर देश का भविष्य उज्जवल बनाएं। मैं देश की न्यायपालिका को सलाम करती हूँ कि उन्होंने सेना में महिलाओं के जाने के सपने को साकार किया, जनहित याचिका का सहारा लिया और महिलाओं को सेना में जाने के रास्ते खोल दिये।

     सुप्रीम कोर्ट में एक साथ तीन महिला जजों की नियुक्ति को यह देश सुधारात्मक कदम के रूप में देख रहा है, तथा यह आशा भी करता है कि आने वाले समय में प्रधान न्यायाधीश के पद पर हम महिला न्यायाधीश को भी देखेंगे। महिला न्यायाधीशों से देश यह अपेक्षा भी करता है कि न्याय प्रणाली में सुधार करके देश की जनता को शीघ्र, सुलभ और सस्ता न्याय देश के हर नागरिक को मिलेगा। सरकार द्वारा गैर संवैधानिक तरीकों से बनाए गए तीन कृषि कानून जिन्हें बनाने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्य सरकारों को है, राज्य सरकार के अधिकारों पर केन्द्र सरकार का कब्जा करना गैर संवैधानिक है, गैर संवैधानिक कानून को रद्द करने की मांग देश का अन्नदाता सरकार से कर रहा है। सात माह में उसने अपने कई सपूतों की शहादत दी है किन्तु अडानी और अम्बानी का चश्मा लगाने के कारण हमारी संसद को भारत का संविधान दिखाई नहीं दे रहा है। जब कृषि राज्य का विषय है तो केन्द्र इस पर कानून नहीं बना सकता।

देश की सबसे ऊंची अदालत में पहली बार बैठी हमारी तीन महिला जजों से देश का अन्नदाता यह आशा उम्मीद लगाकर बैठा है कि, संविधान के अनुच्छेद 13 का सहारा लेकर तीन कृषि कानून निरस्त करने का आदेश देकर देश के अन्नदाता के हक में आदेश पारित किये जायेंगे, देश यह आशा भी करता है कि अल्पसंख्यक इस देश में सम्मान पूर्वक जीवन जी सकेंगे ताकि देश तालिबान बनने से रूक सके, इस आशा और विश्वास के साथ मैं अपने देश की तीन महिला जजों को शुभकामना देती हूं कि वे अपने सेवाकाल में महिला, किसान, मजदूर के हित में ऐसे फैसले देंगी जिसे यह देश कह सके कि ‘जब तक सूरज चाँद रहेगा’ ‘ऐसे फैसले के नाम रहेगा।’

(आराधना भार्गव एडवोकेट हैं और मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में रहती हैं।)                           

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