Thursday, March 28, 2024

26 मई, 2014 को स्वतंत्रता दिवस मानने वालों की निगाह में क्या है कुर्बानियों का मोल?

फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत अकेली भारतीय नागरिक नहीं जो कि यह मानती हैं कि भारत को असली आजादी 15 अगस्त, 1947 को नहीं बल्कि 26 मई, 2014 को मिली थी। इस धारणा के लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। इसलिये आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के लिये चल रहे हर घर तिरंगा अभियान के साथ ही जरूरी है कि हम आज़ादी के आन्दोलन की याद ताजा करने के लिये उस घटनाक्रम का स्मरण करें जिसके फलस्वरूप हम आज़ादी का सुख भोग रहे हैं और जिसकी बदौलत आज हमारा देश चांद-तारों को छू रहा है।

आज़ादी के आन्दोलन के उस घटनाक्रम का फल ही है कि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ ही हमारे आदर्शों और सिद्धान्तों के कारण भारत की दुनिया में प्रतिष्ठा है। कितनी अजीब बात है कि हम एक तरफ आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और दूसरी तरफ उस आन्दोलन के नायक गांधी और नेहरू को नकारने का प्रयास भी कर रहे हैं। सदाशिव राव गोलवलकर की पुस्तक ’’बंच ऑफ थॉट’’ को पढ़ें तो उसमें स्वाधीनता आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं बल्कि दिग्भ्रमित ’’गांधी आन्दोलन’’ बताया गया है। स्वाधीनता के आन्दोलन में उत्तराखण्ड के 85 लोगों ने शहादतें दीं थीं। इनमें से अधिकतर आजाद हिन्द फौज के सैनिक थे। 5 उत्तराखण्डियों ने भारत छोड़ो आन्दोलन में शहादत दी थी। आइये स्वाधीनता आन्दोलन के उस कालचक्र पर एक नजर इस तरह दौड़ा लें।

अंग्रेजों के खिलाफ गुस्से का पहला विस्फोट 

विदित ही है कि अंग्रेजों ने बांटो और राज करो नीति के तहत  सन् 1757 में मीर जाफर की मदद से शिराजुद्दौला को हरा कर प्लासी का युद्ध जीता और उसके बाद 1764 में बक्सर का युद्ध भी जीतने के साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1765 में बंगाल प्रेसिडेंसी की स्थापना कर भारत की सरजमीं कब्जानी शुरू की। सन् 1857 तक कंपनी की कलकत्ता, मद्रास और बम्बई, तीन प्रसिडेंसियों के साथ ही एक फ्रण्टियर प्रान्त भी था। कंपनी शासन की ज्यादतियों के खिलाफ 1857 में सैन्य विद्रोह हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवारत भारतीय सैनिकों द्वारा मेरठ में शुरू हुआ, यह विद्रोह दिल्ली, आगरा, कानपुर और लखनऊ में फैल गया। सन् 1859 तक चला यह विद्रोह विफल तो हो गया लेकिन इस विद्रोह ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत कर दिया और भारत की सत्ता 1858 में ब्रिटिश क्राउन में स्थानांतरित हो गयी। वोटों के लिये आज भी समाज को बांटो और राज करो की नीति चल रही है।

आजादी के लिये कांग्रेस का जन्म

स्वाधीनता आन्दोलन को नेतृत्व देने वाली कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुयी जिसका श्रेय एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को जाता है। अन्य संस्थापकों में दादाभाई नौरोजी और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि थे। एलेन ह्यूम 1857 की गदर के समय इटावा के कलेक्टर थे। लेकिन उन्होंने ब्रिटिश सरकार की भारत नीति के खिलाफ 1882 में पद त्याग कर कांग्रेस यूनियन का गठन किया। उन्हीं की अगुआई में बॉम्बे में पार्टी की पहली बैठक हुई जिसमें व्योमेश चंद्र बनर्जी पहले अध्यक्ष बने। कांग्रेस के उदय के बाद भारत में मुस्लिम लीग के अलावा दूसरा राजनीतिक दल बन गया। हिन्दू महासभा का जन्म 1915 में तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जन्म 1925 में हुआ था।

महानायक की दक्षिण अफ्रीका से वापसी

दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष करने के बाद 1915 में मोहनदास कर्मचन्द गांधी की भारत वापसी हुई। उन्होंने यहाँ के किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के साथ ही उन्होंने स्वाधीनता आन्दोलन की बागडोर भी संभाल ली।

कांग्रेस-मुस्लिम लीग का 1916 समझौता

दिसम्बर 1916 में लखनऊ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हुआ जिसमें दोनों समुदायों द्वारा मिल कर सुशासन के लिये ब्रिटिश हुकूमत पर दबाव बनाने पर सहमति हुयी लेकिन साथ ही मुस्लिम लीग की धार्मिक आधार पर प्रान्तीय असेंबलियों में प्रतिनिधित्व की बात मान ली गयी। इसमें मोहम्मद अली जिन्ना की प्रमुख भूमिका थी। 

चंपारण का नील सत्याग्रह और बापू

नील किसानों का आन्दोलन बंगाल में 1859 से चल रहा था। बिहार के बेतिया और मोतिहारी में 1905-08 तक उग्र विद्रोह हुआ। 1917 में गांधीजी ने चंपारण के किसानों के विद्रोह का नेतृत्व किया। किसानों को नील उगाने के लिए मजबूर किया जा रहा था और उन्हें इसके लिए पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया जा रहा था। गांधीजी ने चंपारण के किसानों की दयनीय परिस्थितियों से शासन को अवगत कराकर किसानों का शोषण और उत्पीड़न रुकवाया।

बैशाखी के दिन जलियावाला बाग नरसंहार

बैशाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को ब्रिटिश शासन की निषेधाज्ञा से अनजान हजारों भारतीय अमृतसर के जलियावाला बाग में जश्न मनाने के लिए जमा हुए थे। ब्रिगेडियर-जनरल डायर ने सैनिकों को बुलाया और उन्हें सामूहिक सभा में 10 मिनट तक गोलियां चलाने का आदेश दिया। सैनिकों ने मुख्य द्वार को भी बंद कर दिया था ताकि कोई भाग न सके। कई लोग खुद को बचाने के लिए कुओं में कूद गए। अंग्रेजों के आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, नरसंहार में 350 लोग मारे गए, लेकिन कांग्रेस का दावा था कि यह संख्या 1,000 लोगों के बराबर थी। यह वह घटना थी जिसने असहयोग आंदोलन को प्रेरित किया।

कांग्रेस की कमान गांधी के हाथ और असहयोग आंदोलन 

1920 में, महात्मा गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली और असहयोग आंदोलन शुरू किया। आंदोलन अहिंसक था और लोगों ने ब्रिटिश सामान नहीं खरीदा, स्थानीय कारीगरों और हस्तशिल्प का समर्थन किया, और शराब की दुकानों पर धरना दिया। जगह-जगह अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाई गयी। सन् 1922 में चौरी चौरा पुलिस स्टेशन में विरोध हिंसक होने पर गांधीजी ने आन्दोलन रोक दिया।

इंग्लैण्ड से बोस की भारत वापसी

सन् 1921 में, सुभाष चंद्र बोस ने इंग्लैंड में आईसीएस की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी और लंदन से वापसी के कुछ समय बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें 1925 में जेल भेज दिया गया और 1927 में रिहा किया गया। वह 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और 1939 में पुनः अध्यक्ष चुने गये। मगर आन्दोलन के तरीके को लेकर कांग्रेस नेतृत्व से मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अलग राह अपना ली। वह 1941 में नाजी जर्मनी गये और 1943 में उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। 18 अगस्त 1945 को एक कथित हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु होने का दावा किया गया जिस पर आज तक भारतवासियों को विश्वास नहीं हुआ।

जब नेहरू ने फहराया सबसे पहले तिरंगा

31 दिसम्बर, 1929 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज’ का घोषणा-पत्र तैयार किया तथा ’’पूर्ण स्वराज’’ को कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया गया। जवाहरलाल नेहरू, इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। इसी दिन नेहरू ने आधिकारिक तिरंगा झंडा फहराया। उसी दिन देशभर में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और आम लोगों ने राष्ट्रध्वज फहराया। कांग्रेस ने भारत की जनता से छब्बीस जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने की अपील की। 

नमक के लिये दांडी मार्च

दांडी यात्रा या नमक सत्याग्रह, महात्मा गांधी के नेतृत्व में औपनिवेशिक भारत में अहिंसक सविनय अवज्ञा आन्दोलन था। चौबीस दिवसीय मार्च 12 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 तक ब्रिटिश नमक एकाधिकार के खिलाफ कर प्रतिरोध और अहिंसक विरोध के प्रत्यक्ष कार्रवाई अभियान के रूप में साबरमती आश्रम से दांडी समुद्र तट तक चला।

भारत सरकार अधिनियम हमारे संविधान का पूर्वज

आन्दोलनों के जरिये भारतवासियों के मूड को भांप कर भारत शासन अधिनियम, 1935 बना जो कि एक तरह से भारत के वर्तमान संविधान का प्रमुख स्रोत है। भारत में सर्वप्रथम संघीय शासन प्रणाली की नींव रखी गई। संघ की दो इकाइयाँ थीं – ब्रिटिश भारतीय प्रांत तथा देशी रियासतें। संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आई क्योंकि देसी रियासतों ने इसमें शामिल होने से मना कर दिया।

आजाद हिन्द फौज और 85 उत्तराखण्डियों की शहादत

 द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चलाने के लिये 1943 में रंगून में आजाद हिंद फौज का गठन  किया। इस फौज के पास करीब 45,000 सैनिक थे, जिनमें आधे से अधिक गढ़वाली और कुमाऊनी सैनिक थे। इस अभियान में उत्तराखण्ड के 85 सैनिक शहीद हुये थे। अक्टूबर 1943 में, बोस ने एक अस्थायी सरकार बनाई। आईएनए में अकेली गढ़वाल राइफल्स की 2 बटालियनें और उनमें लगभग 2600 सैनिक शामिल थे। सुभाष बोस के बॉडी गार्ड समेत विभिन्न प्रमुख पदों पर गढ़वाली और कुमाऊंनी सैनिक तैनात थे, जिन्होंने असाधारण बहादुरी और देशभक्ति का परिचय दिया।

1942 की अगस्त क्रांति: उत्तराखण्ड से 5 शहादतें

उत्तराखण्ड में तिरंगे के साथ फोटो खिंचा कर सोशल मीडिया पर वायरल करने की होड़ लगी है। इनमें वे लोग भी हैं जो 26 मई 2014 को स्वतंत्रता दिवस मानते हैं। इसलिये किसी को क्या जरूरत है यह जानने की कि अगस्त क्रांति में उत्तराखण्ड के 5 लोगों ने शहादत दी थी। 14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक के निर्णय के अनुसार 8 अगस्त को मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में हुयी कांग्रेस की कार्यसमिति की ऐतिहासिक बैठक में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। ’’भारत छोड़ो’’ नारे ने सम्पूर्ण भारत में लोगों को उद्वेलित किया और वे अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई में कूद पड़े। आंदोलन की तीव्रता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने गांधी, नेहरू, पटेल और आजाद सहित सभी प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया। लेकिन आन्दोलन और अधिक उग्र हो गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसमें लगभग 940 से ज्यादा लोग मारे गए जबकि लगभग 60,229 गिरफ्तार किए गए। 

भारत स्वाधीनता अधिनियम 1947

हमारे स्वाधीनता सेनानियों के त्याग, बलिदान और समर्पण के फलस्वरूप अंग्रेज भारत छोड़ने को तो तैयार हो गये मगर जाते-जाते ‘‘बांटो और राज करो’’ की चाल एक बार फिर चल गये और धर्म के आधार पर भारत वर्ष 14 अगस्त 1947 को को टूट गया। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारत स्वतंत्रता अधिनियम 18 जुलाई 1947 को पारित किया गया जिसमें भारत और पाकिस्तान को सत्ता हस्तान्तरण के लिए 15 अगस्त 1947 का दिन नियत किया गया। अधिनियम के अनुसार 14 और 15 अगस्त की मध्य रात्रि से पहले पाकिस्तान नाम के एक नये राष्ट्र का भी उदय हो गया। स्वतंत्रता के समय भारत में 565 छोटी और बड़ी रियासतें थीं। भारत के एकीकरण अभियान के तहत 15 अगस्त 1947 तक जम्मू कश्मीर, जूनागढ़ व हैदराबाद जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी रियासतों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। गोवा पर पुर्तगालियों से 1962 में छुड़ाया गया।

भारत का 1947 में बंटवारा

भारत के बंटवारे के लिये नेहरू गांधी को जिम्मेदार ठहराने का प्रयास हो रहा है। जबकि मुस्लिम लीग ने 1940 में मुसलमानों के लिये अलग राष्ट्र का प्रस्ताव पारित किया जबकि उससे 3 साल पहले हिन्दू महासभा के 6 बार अध्यक्ष रहे दामोदर सावरकर 1937 में कर्णावती (अहमदाबाद) सम्मेलन में अपने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दुओं और मुसलमानों के लिये अलग-अलग राष्ट्र की वकालत कर चुके थे। हिन्दू महासभा भी हिन्दुओं के लिये अलग देश की समर्थक थी। जहां तक आरएसएस का सवाल है तो हमें माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर की पुस्तक ’’बंच ऑफ थॉट’’ पढ़नी चाहिये। यह पुस्तक हिन्दी में ’’विचार नवनीत’’ के नाम से भी उपलब्ध है। हिन्दी संस्करण के पृष्ठ 160 से लेकर 165 में गुरुजी ने अपनी कल्पना के राष्ट्र की तस्वीर खींची हुयी है। गुरू जी ने राष्ट्रीय आन्दोलन को एक दिग्भ्रमित ’’गांधी आन्दोलन’’ के रूप में वर्णित किया है। जब देश आजाद हुआ उस समय 560 के करीब देशी रियासतें थीं, जिनका नेहरू-पटेल की जोड़ी ने भारत संघ में विलय करा कर भारत विशाल बनाया। इंदिरा गांधी ने 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े किये और 1975 में सिक्किम देश को भारत में मिलाया।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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