तथ्यों के आईने में तुर्किये: पश्चिमी मीडिया राष्ट्रपति आर्दोआन को क्यों बता रहा तानाशाह ?

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तुर्किये के राष्ट्रपति चुनाव में रजिब तैयिब आर्दोआन मतदान के पहले चरण में सिर्फ आधा फीसदी वोट कम पाने के कारण निर्वाचित नहीं हो सके। इसलिए अब उन्हें 28 मई को मतदान के दूसरे चरण में दूसरे नंबर पर रहे उम्मीदवार कमाल किलिचदारोग्लू से मुकाबला करना होगा। बहरहाल, 14 को ही संसदीय चुनाव में आर्दोआन की पार्टी एकेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया। 600 सदस्यों वाले सदन में एकेपी को 266 सीटें मिलीं। एकेपी, एमएचपी और न्यू वेल्फेयर पार्टी के गठबंधन ने चुनाव में 53.2 प्रतिशत वोट हासिल किए और इस तरह उन्हें 320 सीटें मिल गईं। किलिचदारोग्लू की सीएचपार्टी को 169 सीटें मिलीं।

आर्दोआन का पहले दौर में ना जीत पाने को उनके लिए एक झटका जरूर समझा जा सकता है, लेकिन चुनाव नतीजों ने पश्चिम और पश्चिमी मीडिया की तरफ से बनाए गए इस नैरेटिव को भी गलत साबित कर दिया कि आर्दोआन के कदमों के नीचे से जमीन खिसक चुकी है। आखिर तक पश्चिमी मीडिया ऐसे सर्वे रिपोर्ट पेश करता रहा, जिसमें आर्दोआन किलिचदारोग्लू से पांच प्रतिशत वोटों से पीछे नजर आ रहे थे। जबकि असल में पांच प्रतिशत वोटों से आगे रहे।

साफ है, पश्चिमी मीडिया और विश्लेषकों ने जमीनी हकीकत के उलट नैरेटिव फैलाया। इसे सिर्फ इस बात का ही संकेत कहा जा सकता है कि पश्चिम आर्दोआन को हारता हुआ देखना चाहता है। 28 मई को क्या होगा, यह कहना अभी बहुत मुश्किल है। मुमकिन है कि नए समीकरणों के बीच पश्चिम की यह इच्छा पूरी हो जाए। लेकिन तुर्किये के बाहर की दुनिया के लोगों के लिए यह समझना जरूरी है कि आखिर पश्चिम की यह इच्छा क्यों है?

कथानक यह फैलाया गया कि आर्दोआन एक तानाशाह हैं, जिन्होंने तुर्किये में लोकतंत्र का गला घोंट दिया है। मगर यह बात सुन कर तुर्किये के इतिहास से वाकिफ हर व्यक्ति के मन में यह सवाल अवश्य उठता है कि तुर्किये में वह लोकतंत्र कब था और उसका स्वरूप कैसा था, जिसे आर्दोआन ने नष्ट कर दिया? इसलिए वर्तमान चुनाव पर बात करने से पहले यह जरूरी है कि तुर्किये के आधुनिक इतिहास पर एक नजर डाली जाए। आधुनिक इतिहास के मतलब पहले विश्व युद्ध के बाद के इतिहास से है। पहले विश्व युद्ध तक आज का तुर्किये लगभग 600 साल से चले आ रहे ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। प्रथम युद्ध में इस साम्राज्य की पराजय के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों ने उसके विभिन्न क्षेत्रों पर कब्जा जमा लिया।

इसके बाद सैन्य अधिकारी मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्क राष्ट्रवाद की भावना को आधार बना कर उन इलाकों को मुक्त कराने की लड़ाई छेड़ी, जहां तुर्क भाषी और तुर्क नस्ल के लोग रहते थे। इस प्रयास में वे 1923 में सफल हुए। तब से आज के तुर्किये का इतिहास शुरू होता है। खुद को तुर्क राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में पेश करने के लिए मुस्तफा कमाल ने अपने नाम से पाशा शब्द हटा कर अतातुर्क शब्द जोड़ लिया। उसके बाद उन्होंने सैन्य ताकत के जोर पर देश का पश्चिमीकरण शुरू किया, जिसमें धर्मनिरपेक्षता को सरकारी नीति बना दिया गया। इसके तहत सरकारी दफ्तरों में पश्चिमी लिबास पहनना अनिवार्य कर दिया गया, जबकि सार्वजनिक स्थलों पर हिजाब जैसे इस्लामी पहनावों और प्रतीकों पर रोक लगा दी गई।

गौरतलब है कि इस ‘आधुनिक और सेक्यूलर’ तुर्क राष्ट्रवाद में अल्पसंख्यक कुर्द समूहों के लिए अपनी पहचान के साथ जीने की कोई जगह नहीं थी। पिछले 100 साल का इतिहास तुर्की में कुर्द अल्पसंख्यकों के दमन का इतिहास रहा है। वैसे भी मुस्तफा कमाल अतातुर्क के गणतंत्र में असहमति और विरोध की कोई गुंजाइश नहीं थी। उन्होंने एक सैनिक शासक के रूप में 1938 में अपनी मृत्यु तक राज किया। इस बीच उन्होंने तुर्किये की अर्थव्यवस्था में सरकारी भूमिका को प्रमुख स्थान जरूर दिया, जिससे वहां अपेक्षाकृत तेज गति से विकास और लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ। अतातुर्क के निधन के बाद इस्मत इनोनू ने सत्ता संभाली और 1946 तक उन्होंने अतातुर्क के नक्शे-कदम पर ही शासन किया। मगर इस बीच देश में असंतोष पनप रहा था। तो 1946 में इनोनू लोकतंत्र के पैरोकार हो गए। आखिरकार 1950 में देश में पहली बार देश में संसद की स्थापना कर उसके लिए चुनाव कराए गए।

उसके बाद के 30 वर्षों का इतिहास कुछ वर्षों तक संसदीय/राष्ट्रपति प्रणाली के लोकतंत्र और अपेक्षाकृत अभिव्यक्ति की आजादी तथा सेना के हस्तक्षेप पलट की कहानी है। तब से 1980 तक तीन बार सैनिक तख्ता पलट हुआ। तीन बार संविधान बने। आखिरी संविधान 1982 में बना, जो कई फेरबदल के साथ मोटे तौर पर अभी भी लागू है। इस संविधान के प्रमुख प्रावधानों पर गौर कीजिएः           

  • इस संविधान में मजबूत राष्ट्रपति प्रणाली की व्यवस्था की गई। राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। साथ ही उसे संसद को भंग करने और आपातकाल लागू करने का अधिकार दिया गया।
  • एक सदन वाले संसद का प्रावधान किया गया। यह प्रावधान किया गया कि जो दल 10 प्रतिशत से कम वोट प्राप्त करेगा, उसे संसद में प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाएगा। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के मुताबिक इसका मकसद छोटे दलों का प्रभाव कम करना था। (ऐसी व्यवस्था भारत में हो, तो कितने दलों को लोकसभा में नुमाइंदगी मिल पाएगी?)
  • बहरहाल, इस संविधान के जरिए देश में अर्ध संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना हुई। आम शासन का अधिकार संसद के प्रति जवाबदेह सरकार को मिला, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री के हाथ में रहा है।
  • लेकिन ज्यादातर विशेषज्ञों ने इस संविधान के तहत स्थापित व्यवस्था को semi- presidential यानी अर्ध राष्ट्रपति शासन प्रणाली कहा है।
  • इस संविधान के तहत राजनीतिक दलों, प्रेस और ट्रेड यूनियनों पर सख्त नियंत्रण लागू किए गए।
  • यह प्रावधान किया गया कि तुर्की में “चरम” वाम या “चरम” दक्षिणपंथी दलों या संगठनों की स्थापना नहीं की जा सकती। यानी वहां क्रांतिकारी कार्यक्रम के साथ किसी कम्युनिस्ट पार्टी का वैधानिक अस्तित्व संभव नहीं है।
  • लेकिन इस संविधान के जरिए मुस्तफा कमाल अतातुर्क के statist (राज्यवादी) अर्थव्यवस्था को बदलने का रास्ता खोल दिया गया। इस तरह प्राइवेट सेक्टर की अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका बन गई।

आर्दोआन ने 2017 में इस संविधान में संशोधन कर अर्ध राष्ट्रपति प्रणाली को पूर्ण राष्ट्रपति प्रणाली में तब्दील कर दिया। लेकिन इसके पहले 2003 से लगातार प्रधानमंत्री रहने के बाद 2014 में आर्दोआन राष्ट्रपति निर्वाचित हो चुके थे। इस बीच आर्दोआन के शासनकाल का जो दौर रहा, उस पर ध्यान देना जरूरी है।

आर्दोआन जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) के नेता हैं। इस पार्टी के नेता अब्दुल्ला गुल 2002 में राष्ट्रपति चुने गए थे। इस पार्टी को तुर्किये की प्रमुख सियासी पार्टी बना देने में गुल की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। उन्होंने संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता लागू होने के बावजूद इस्लामी पहचान को सियासत में मान्यता दिलवाने में अहम रोल अदा किया। गुल के बाद से पार्टी का नेतृत्व आर्दोआन के हाथ में रहा है। आर्दोआन इस्लामी रंग के साथ उदार आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने की नीति के साथ आगे बढ़े हैं।

आर्दोआन ने सत्ता में आने के बाद देश में उदारीकरण और निजीकरण की आर्थिक नीति को आक्रामक ढंग से लागू किया। इससे तुर्किये की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा और समाज के एक बड़े तबके की आमदनी में इजाफा हुआ। इससे एकेपी पार्टी के समर्थन आधार में बढ़ोतरी हुई। इस्लामी पहचान पर जोर देने के कारण सख्त और ऊपर से लागू की गई धर्मनिरपेक्षता से असंतुष्ट मुस्लिम समुदाय के लोग आर्दोआन का समर्थन आधार बनते चले गए।

लेकिन जैसा कि दुनिया भर में हुआ है, उदारीकरण की नीति कुछ समय तक ही चमक प्रदान करती है। आर्दोआन की नीतियों से देश में पर्यावरण और पारंपरिक विरासत का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ। साथ ही समाज में गैर-बराबरी बढ़ी। इसको लेकर आर्दोआन को पहली बार जन विरोध का सामना 2013 में करना पड़ा। वह विरोध ‘गाज़ी पार्क प्रतिरोध’ के नाम से बहुचर्चित है, जब देश के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल के मध्य में स्थित गाजी पार्क में सैकड़ों लोग महीने भर तक धरने पर बैठे रहे थे। वे उस पार्क और आसपास हो रही तोड़फोड़ का विरोध कर रहे थे। देखते-देखते इस विरोध के लिए समर्थन देश भर में फैल गया था।

आर्दोआन को 2017 में संविधान में संशोधन का मौका 2016 में उनकी तख्ता पलट की हुई कोशिश के बाद मिला था। इसी घटना से आर्दोआन के अमेरिका से संबंध खराब हुए। आर्दोआन ने आरोप लगाया कि अमेरिका ने तख्ता पलट के षडयंत्रकारियों को पनाह दी है। तख्ता पलट की कोशिश के बाद आर्दोआन ने सेना के संदिग्ध अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया, बड़ी संख्या में अपने विरोधियों को जेल में डाल दिया, मीडिया और अपने विरोधी बुद्धिजीवियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की और कई जगहों पर निर्वाचित पदाधिकारियों को उनके पद से हटा दिया। साथ ही कुर्द अल्पसंख्यकों पर दमन तेज कर दिया गया।

लेकिन उनकी लोकप्रियता में अगर सेंध लगी, तो उसकी प्रमुख वजह देश की बिगड़ती आर्थिक स्थिति है। इससे धार्मिक रुझान वाले ग्रामीण समुदायों में उनका समर्थन घटा है, जो आरंभ से ही उनके सबसे कट्टर समर्थक थे। आर्दोआन को सबसे ज्यादा नुकसान बेलगाम महंगाई से हुआ है। मुद्रास्फीति दर पिछले एक साल से 50 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। इस बीच आर्थिक वृद्धि दर गिरी है, व्यापार घाटा बढ़ा है, और विदेशी कर्ज रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। इस वर्ष फरवरी में देश में आए भीषण भूकंप ने आर्थिक चुनौतियों को और बढ़ा दिया। साथ ही भूकंप के बाद राहत कार्य को लेकर उठी शिकायतों से लोगों में नाराजगी पैदा हुई। भूकंप में 50 हजार से अधिक मारे गए थे। इन सबका असर चुनावी माहौल पर पड़ा। इसके बावजूद आर्दोआन राष्ट्रपति चुनाव में सबसे आगे रहे, जबकि उनकी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया है।

वैसे अमेरिका और पश्चिमी देशों की नाराजगी का कारण तुर्किये के लोगों की परेशानी नहीं है। बल्कि इसकी वजह आर्दोआन की लीक से हटी (unconventional) आर्थिक नीतियां और उनकी विदेश नीति है, जो धीरे-धीरे रूस की तरफ झुकती चली गई है। आर्दोआन ने हाल के वर्षों में किस तरह अमेरिका और आईएमएफ की तरफ से दुनिया भर पर में थोपे गए आर्थिक फॉर्मूलों से अलग आर्थिक नीतियां अपनाईं, उनकी कुछ बानगी देखिएः

  • मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए आर्दोआन सरकार ने ब्याज दरें नहीं बढ़ाईं। इसके विपरीत उन्होंने एलान किया कि ‘ब्याज दरें हर बुराई की माता-पिता हैं’।
  • सेंट्रल बैंक के जिन गवर्नरों ने ब्याज दर बढ़ाने की कोशिश की, उन्हें आर्दोआन ने बर्खास्त कर दिया।
  • ब्याज दर के मुद्रास्फीति दर से नीचे रहने के कारण तुर्किये की मुद्रा लीरा डॉलर के मुकाबले कमजोर हुई है, जिससे विदेशी ऋण का बोझ बढ़ा और उद्योग घरानों की मुश्किलें बढ़ीं हैं।
  • लेकिन आम जन को राहत देने के लिए आर्दोआन ने एक विशेष नीति लागू की। 2021 में उनकी सरकार ने लोगों के बचत खातों में सीधे उस अनुपात में रकम जमा करानी शुरू कर दी, जितना ‘लीरा’ कमजोर हो रहा था। बताया जाता है कि इस तरह सरकार ने 102 बिलियन डॉलर के बराबर रकम जमा कराई है। मगर इसके लिए सेंट्रल बैंक को लगातार मुद्रा की छपाई करनी पड़ी है, जिससे ‘लीरा’ और कमजोर होता गया है।
  • इस बीच आर्दोआन ने सोने के आयात को प्रोत्साहित किया है। उन्होंने लोगों से कहा- ‘आपने अपने गद्दों के अंदर जो डॉलर और यूरो छिपा रखे हैं, उनसे सोना खरीदिए।’ तुर्किये ने सोने का ज्यादातर आयात रूस से किया है।
  • इस बीच आर्दोआन सरकार ने विभिन्न देशों से ‘करेंसी स्वैप’ की नीति अपनाई है। इसके तहत उन्होंने लीरा देकर उन देशों की मुद्रा ली है, जिससे तुर्किये ने अपने आयात बिल का भुगतान किया है। खास कर ऐसे समझौते खाड़ी देशों के साथ किए गए हैं।
  • इस बीच तुर्किये का विदेशी मुद्रा भंडार गिर कर माइनस 67 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। 
  • इन नीतियों के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में विदेशी निवेशक तुर्किये से अपना कारोबार समेट कर वापस चले गए हैं।

मगर आर्दोआन की समस्या यह है कि उन्होंने सारे अपारंपरिक कदम पूंजीवादी ढांचे के अंदर उठाए हैं। उन्होंने उन बुनियादी सिद्धांतों में बदलाव नहीं किया है, जिससे अर्थव्यवस्था को नई दिशा मिलती। मशहूर अर्थशास्त्री माइकल रॉबर्ट्स ने आर्दोआन की इन नीतियों का विश्लेषण करते हुए अपने ब्लॉग में लिखा है- ‘तुर्किये की अर्थव्यवस्था ने यह दिखाया है कि आर्थिक और मौद्रिक नीतियों को विपरीत दिशाओं में चलाने की कोशिश- और वह भी किसी बड़ी उन्नत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में- कारगर नहीं हो सकती, जब तक कि पूंजी नियंत्रण को लागू नहीं किया जाता और निवेश को घरेलू उत्पादक क्षेत्रों में योजनाबद्ध ढंग से नहीं ले जाया जाता। इसके बदले आर्दोआन ने एक सफल पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिए पूरी तरह खुला रखा है, रियल एस्टेट में ऋण आधारित निवेश को जारी रखा है, और अन्य गैर-उत्पादक क्षेत्रों को बनाए रखा है।’

रॉबर्ट्स ने लिखा है- ‘आर्थिक सफलता का प्रमुख पहलू श्रम की उत्पादकता में वृद्धि है। इसमें असल में गिरावट आ रही है। इसका कारण यह है कि प्रति श्रमिक उत्पादकता में निवेश वृद्धि की दर तेजी से घटी है। आर्दोआन के शासनकाल के पहले दशक में निवेश और उत्पादकता दोनों में वृद्धि दर दो अंकों में दर्ज हुई थी। लेकिन 2009 की मंदी के बाद उनके शासनकाल के दूसरे दशक में यह वृद्धि औसतन तीन प्रतिशत रही है।’

अब गौरतलब यह है कि किलिचदारोग्लू ने इन नीतियों का कोई जन-पक्षीय विकल्प पेश नहीं किया है। बल्कि आर्थिक नीतियों को पश्चिमी फॉर्मूले पर वापस लाने का वादा किया है। पहले चरण के मतदान से पहले ब्रिटिश अखबार फाइनेंशियल टाइम्स को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे सेंट्रल बैंक को स्वायत्तता प्रदान करेंगे, ताकि वह बिना सरकारी हस्तक्षेप के ब्याज दर के बारे में फैसला ले सके। मगर ब्याज दर में भारी बढ़ोतरी की अवस्था में उन्हें कमखर्ची (austerity) की कुख्यात नीतियां भी लागू करनी होंगी और मुद्रास्फीति घटाने के लिए अर्थव्यवस्था को कृत्रिम मंदी में डालना होगा। किलिचदारोग्लू के प्रति पश्चिम के आकर्षण की दूसरी वजह उनका यह वादा भी है कि उनके शासनकाल में तुर्किये का फिर से झुकाव यूरोपियन यूनियन की तरफ बनेगा और उनकी सरकार यूक्रेन युद्ध में नाटो का समर्थन करेगी।

जबकि आर्दोआन ने इस युद्ध में मोटे तौर पर तटस्थ रुख अपनाए रखा है। इस बीच उन्होंने ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों में रूस से अपने संबंध मजबूत किए हैं। आर्दोआन ने सीरिया के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का साथ दिया था। लेकिन हाल में रूस की मध्यस्थता के कारण वे सीरिया से मेल-मिलाप की कोशिश में शामिल हो गए हैँ। इन सब कारणों में अमेरिका और यूरोप में उनके खिलाफ गुस्सा बढ़ता चला गया है।

बहरहाल, यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि किलिचदारोग्लू जिस सीएचपी पार्टी के नेता हैं, उसकी विरासत मुस्तफा कमाल से जुड़ी हुई है। यह पार्टी तुर्किये में कुर्द अल्पसंख्यकों के दमन और आयरन हैंड से शासन के लंबे इतिहास में एक प्रमुख Player रही है। इसलिए तुर्किये में कोई पार्टी लोकतंत्र की वाहक है या किसी के पास जन पक्षधरता की विरासत या कार्यक्रम है, यह कहने का कोई आधार नहीं बनता है।

चूंकि दुनिया में ज्यादातर लोग घटनाओं को पश्चिमी नजरिए से देखते हैं, वे वही सोचते हैं जो पश्चिमी मीडिया उन्हें बताता है, इसलिए तुर्किये की राजनीति का निराधार नैरेटिव इस समय भारत सहित दुनिया के अधिकांश हिस्सों में फैला हुआ है। लेकिन तथ्यों पर गौर किया जाए, तो इस नैरेटिव की हवा निकलते देर नहीं लगती।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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