Thursday, March 28, 2024

सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर दो पूर्व जजों ने उठाया सवाल, कहा- आपातकाल के दौर की राह पर है सर्वोच्च अदालत

कोरोना काल में उच्चतम न्यायालय जिस तरह कार्य कर रहा है उससे वादकारी और वकील ही नहीं पूर्व न्यायाधीश भी क्षुब्ध हैं। भारतीय विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष इस पर खुलकर सामने आ गए हैं। उन्होंने कहा है कि उच्चतम न्यायालय में केवल कुछ न्यायाधीश ही क्यों काम कर रहे हैं सभी क्यों नहीं? 

कोरोनो वायरस संकट के दौरान उच्चतम न्यायालय के कामकाज पर जोरदार हमला करते हुए, दिल्ली और मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह ने कहा कि वह पूरी तरह से निराश हैं। न्यायमूर्ति एपी शाह ने ‘द वायर’ के लिए करण थापर को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि उच्चतम न्यायालय ने इस समय जिस तरह से काम किया है, उससे वह निराश हैं ।
चीफ जस्टिस एसए बोबडे के विचार के साथ मतभिन्नता ज़ाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि संकट के समय न्यायालयों की भूमिका और बढ़ जाती है। ग़ौरतलब है कि चीफ़ जस्टिस बोबडे ने कहा था कि ऐसे संकटों के समय नागरिकों के अधिकार प्राथमिक नहीं रह जाते। जस्टिस शाह ने यह भी सवाल किया कि केवल कुछ न्यायाधीश ही क्यों काम कर रहे हैं? सभी न्यायाधीशों को अपने घरों से काम करना चाहिए। 

इसके पहले उच्चतम न्यायालय के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने एक साक्षात्कार में कहा था कि “उच्चतम न्यायालय अपने संवैधानिक कर्तव्यों को सही तरह से नहीं निभा रहा है। भारत का उच्चतम न्यायालय अच्छा काम करने में सक्षम है, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है।” उन्होंने भी कहा था कि कोरोना संकट के दौरान जिस तरह से उच्चतम न्यायालय  काम कर रहा है वो बिल्कुल निराश करने वाला है। उन्हें विचार-मंथन करके यह पता लगाने की आवश्यकता है कि वे आगे कैसे बढ़ें।निश्चित रूप से कोर्ट को और अधिक सक्रिय होना चाहिए।

द वायर  के लिए करन थापर के साथ एक साक्षात्कार में जस्टिस लोकुर ने कोरोना महामारी के दौरान कोर्ट की कार्यवाही और उनके द्वारा लिए गए फैसलों पर विस्तार से बात की थी। प्रवासी मजदूरों के जीवन के अधिकार से जुड़े एक मामले में फैसला लेने में कोर्ट द्वारा तीन हफ्ते का समय लगाने के सवाल पर जस्टिस लोकुर ने कहा था कि हां, मुझे लगता है कि कोर्ट ने इन प्रवासियों को निराश किया है। कोर्ट द्वारा ये कहना कि सरकार प्रवासी मजदूरों के लिए जो अच्छा समझे वैसा कदम उठाए नाकाफ़ी था। इस पर पूर्व जज ने कहा कि “मुझे लगता है कि अदालत इससे ज्यादा कर सकती थी और उसे करना चाहिए था”।

यह पूछे जाने पर कि क्या वह भारत के चीफ जस्टिस एसए बोबडे के इस रुख से सहमत हैं, जहां उन्होंने 27 अप्रैल को ‘द हिंदू’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि ‘यह ऐसी स्थिति नहीं है, जहां अन्य किसी समय की तरह अधिकारों को बहुत प्राथमिकता या महत्व दिया जाए, जस्टिस लोकुर ने कहा कि यह कहना कि मौजूदा परिस्थिति की वजह से अभी के समय में मौलिक अधिकार इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, ये गलत तरीका है।

जस्टिस लोकुर ने कहा कि चीफ जस्टिस बोबडे का ये कथन कुख्यात एडीएम जबलपुर मामले में बहुमत की राय से मिलता-जुलता है, लेकिन समय ने ये सिद्ध कर दिया कि मामले में विरोध व्यक्त करने वाले जस्टिस एचआर खन्ना के विचार सही थे। उन्होंने कहा कि आप ये नहीं कह सकते कि अभी के समय में हमें जीवन के अधिकार को भूल जाना चाहिए। यदि आप आपातकाल के समय जीवन के अधिकार को नहीं भूल सकते हैं तो मुझे समझ नहीं आता कि अभी के समय में आप इसे कैसे भूल सकते हैं।

उच्चतम न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण ने अपने एक हालिया लेख में कहा था कि ‘अदालत ने सरकार के सामने अपनी न्यायिक शक्तियां सरेंडर कर दी हैं’, इस पर जस्टिस लोकुर ने सरेंडर शब्द को गलत बताया और कहा कि उच्चतम न्यायालय अपने संवैधानिक कामों को पूरी निपुणता से नहीं कर रहा है। जस्टिस लोकुर ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति के पास अधिकार है, तो उसे अमल में लाना होगा। बस आप यह नहीं कह सकते कि मुझे आशा और विश्वास है कि अपनी ओर से कोई व्यक्ति उसको लागू करेगा। व्यक्ति को अधिकार है, आप इसे लागू क्यों नहीं कर रहे हैं? उच्चतम  न्यायालय अपने संवैधानिक कामों को अच्छी तरह से नहीं कर रहा है।

वास्तव में उच्चतम न्यायालय  पिछले कुछ वर्षों से विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है और ये स्थिति खुद उसकी वजह से बनी है। अतीत में अति सक्रियता के लिए आलोचना झेलने वाला उच्चतम न्यायालय आज 180 डिग्री की पलटी खा चुका है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के स्पष्ट मामलों में भी कुछ कर पाने में असमर्थ है, खासकर जब मामला मोदी सरकार से संबंधित हो।

संवैधानिक न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय की प्रवृत्ति मामलों को स्थगित करने या टालने और ऐसे सख्त फैसलों से बचने की प्रतीत होती है जो कि मोदी सरकार को नापसंद लग सकता हो। तत्कालीन चीफ जस्टिस जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई, से लेकर कोरोना काल तक अहम मामलों पर उच्चतम न्यायालय की चुप्पी अथवा टालमटोल में आपातकाल के दौरान के इसके रवैये की अनुगूंज सुनाई देती है, जब उच्चतम न्यायालय  सत्तारूढ़ दल के इरादों के अनुरूप चलने लगा था और प्रतिबद्ध न्यायपालिका का जुमला उछला था।

कतिपय वरिष्ठ वकीलों के दबाव और सोशल मीडिया को लेकर कभी-कभार शिकायत करने के अलावा खुद उच्चतम न्यायालय ने भी अपने रवैये के समर्थन में कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है। कुछ जजों ने सार्वजनिक रूप से अपने व्याख्यानों में बहुसंख्यक वादी सरकारों से मौलिक अधिकारों की रक्षा किए जाने और लोकतंत्र में असंतोष के महत्व को रेखांकित किया है। पर इससे उच्चतम न्यायालय में किसी तरह के सार्थक आंतरिक मतभेद की बात जाहिर नहीं होती है, क्योंकि सरकार को असहज कर सकने वाले मामले ऐसी पीठों में भेजे ही नहीं जाते, जहाँ से किसी विपरीत तरह का फैसला आने की उम्मीद हो।

 (जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ क़ानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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