Friday, March 29, 2024

वर्मा मलिक की पुण्यतिथि: गीतकार, हर शादी में बजता है जिसका गाना

हिंदी फिल्मी दुनिया के एक सदी से ज्यादा के इतिहास में कई गीतकार और संगीतकारों ने अपने गीत-संगीत से फिल्मों के आंगन को गुल-ओ-गुलज़ार किया है। इस लंबे सफर में बहुत से गीतकार ऐसे रहे, जिन्होंने तुलनात्मक तौर पर बेहद कम लिखा, लेकिन उनकी सफलता का एवरेज कहीं उससे ज्यादा है। ऐसे ही एक बेमिसाल गीतकार का नाम है, वर्मा मलिक। वर्मा मलिक का नाम जेहन में आते ही, उनके कई सदाबहार गाने जबान पर आ जाते हैं। खास तौर पर शादी के मौके पर उनके दो गीत आज भी जरूर बजते हैं। पहला, ‘‘आज मेरे यार की शादी है…’’(फिल्म-आदमी सड़क का) और दूजा, ‘‘चलो रे डोली उठाओ कहार..’’ (फिल्म-जानी दुश्मन)। देश में इन दोनों गानों का मर्तबा शादी-एंथम जैसा है। हर शादी में इन गीतों का बजना लाजिमी रहता है। आमफहम जबान में लिखे गये ये गाने, हिंदुस्तानी शादी की दो अहम रस्मों बरात और बेटी की विदाई की बेला के वक्त उमड़ने वाले दिली जज्बात की नुमाइंदगी करते हैं। हर एक को लगता है कि ये जज्बात उसी के हैं।

एक गीतकार के लिए इससे बड़ा सम्मान भला कौन सा हो सकता है ? फिल्मी दुनिया के आगाज में जितने भी बड़े गीतकार शकील बदायुनी, हसरत जयपुरी, कमर जलालाबादी, प्रेम धवन, साहिर लुधियानवी आदि आए, उनमें से ज्यादातर की जबान उर्दू और पंजाबी थी। इनमें से कई को तो देवनागरी लिपि भी नहीं आती थी। बावजूद इसके गर उनके गाने सुनें, तो जरा भी अहसास नहीं होता कि इन गीतकारों का हिंदी जबान में तंग हाथ है। वर्मा मलिक की भी मादरी जबान पंजाबी थी और उस ज़माने के एतबार से उनकी पूरी पढ़ाई उर्दू जबान में हुई। पंजाबी फिल्मों में गीत लिखकर, उन्होंने अपने करियर की इब्तिदा की, लेकिन अपनी लगन और मेहनत से आगे चलकर उन्होंने हिंदी में इस कदर दस्तरस हासिल की, कि उनका शुमार हिंदी के कामयाब गीतकारों में होता है। जिन लोगों ने वर्मा मलिक का ये गाना ‘‘प्रिय प्राणेश्वरी, सिद्धेश्वरी यदि आप हमें आदेश करें’’ (फ़िल्म-हम तुम और वो) सुना है, वे मान ही नहीं सकते कि वर्मा मलिक को कभी हिंदी नहीं आती थी। इस गाने में उन्होंने हिंदी के इतने क्लिष्ट शब्द इस्तेमाल किए हैं कि अहसास होता है, जैसे वे हिंदी साहित्य के कोई आचार्य या कवि हैं।

13 अप्रैल, 1925 को अविभाजित भारत के फिरोजपुर जो कि अब पाकिस्तान में है, में जन्मे वर्मा मलिक का असल नाम बरकत राय मलिक था। उन्हें बचपन से ही संगीत और कविताओं का शौक था। उन्होंने शुरूआत भक्ति गीतों को लिखने से की। बरकत राय मलिक की नौजवानी का दौर, आजादी की जद्दोजहद का दौर था। इस दौर से मुतास्सिर होकर वे भी कांग्रेस के सरगर्म मेंबर बन गए। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत और उसके जोर-ओ-जुल्म के खिलाफ गीत लिखे। कांग्रेस के जलसों में वे जब भी शिरकत करते, अवाम को अपने गीत सुनाते। उनकी इन इंकलाबी सरगर्मियों का अंजाम यह हुआ कि वे अंग्रेज हुक्मरानों की नजर में आ गए। उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। मगर जल्द ही उनकी रिहाई हो गई। वजह, उनका नाबालिग होना। बहरहाल, हजारों-हजार देशवासियों की कुर्बानियों के बाद देश आजाद हुआ। लेकिन आजादी मुल्क के बंटवारे के तौर पर मिली। देश में चारों और साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे।

इन दंगों में लाखों लोग प्रभावित हुए। बरकत राय मलिक के परिवार ने भी दंगों से अपनी जान बचाकर दिल्ली में पनाह ली। जिंदगी जब पटरी पर आई, तो गम-ए-रोजगार की चिंता सताने लगी। बरकत राय मलिक को जो हुनर आता था, उन्होंने उसी में अपना करियर बनाने का मन पक्का कर लिया। मौसीकार हंसराज बहल के भाई बरकत राय के अच्छे दोस्त थे। उनकी सिफारिश पर बरकत राय ने मायानगरी मुंबई की राह पकड़ी। मुंबई पहुंचकर, वे हंसराज बहल से मिले। बहल, उनके गीत लिखने की काबिलियत से काफी मुतासिर हुए और उन्होंने बरकत राय को पंजाबी फ़िल्म ’लच्छी’ में गीत लिखने का चांस दे दिया। फिल्म के साथ-साथ इसके गाने भी हिट हुए। पहली ही फिल्म की कामयाबी के बाद, उनके पास काम की कोई कमी नहीं रही। वे पंजाबी फ़िल्मों के हिट गीतकार बन गए।

इसी दौरान बरकत राय मलिक के दोस्तों ने उन्हें अपना नाम बदलने का मशविरा दिया और इस तरह बरकत राय मलिक, वर्मा मलिक हो गए। फ़िल्मी दुनिया में आगे चलकर वे इसी नाम से पहचाने जाने लगे। मौसीकार हंसराज बहल के साथ वर्मा मलिक ने ‘यमला जट’ समेत तीन पंजाबी फ़िल्मों में काम किया। उन्होंने तकरीबन 40 पंजाबी फ़िल्मों में गीत लिखे और यह सभी गीत काफी पसंद किए गए। ‘छाई’, ‘भांगड़ा’, ‘दो लच्छे’, ‘गुड्डी’, ‘दोस्त’, ‘मिर्ज़ा साहिबान’, ‘तकदीर’, ‘पिंड दी कुड़ी’, ‘दिल और मोहब्बत’ आदि वे सुपर हिट फिल्में हैं, जिनमें वर्मा मलिक ने गाने लिखे। गाने लिखने के अलावा उन्होंने दो-तीन फ़िल्मों के संवाद लिखे, संगीत दिया और इतनी ही फ़िल्मों का निर्देशन भी किया।

उनकी जिंदगी अच्छी कट रही थी, मगर छठा दशक शुरू होते-होते मुंबई में पंजाबी फ़िल्मों का बाज़ार एक दम खत्म हो गया। जिसका असर गीतकार वर्मा मलिक पर भी पड़ा। उन्हें काम मिलना बंद हो गया। हालांकि पंजाबी फिल्मों में काम करने के दरमियान वर्मा मलिक ने कुछ हिंदी फिल्मों ‘चकोरी’ (साल-1949), ‘जग्गू’ (साल-1952), ‘श्री नगद नारायण’ (साल-1955) और ‘मिर्जा साहिबान’ (साल-1957) में गाने लिखे थे, मगर उन्हें उतना मौका नहीं मिला, जितने कि वे उसके हकदार थे। लिहाजा वे पंजाबी फिल्मों में ही रमे रहे। पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री के बंद होने से वर्मा मलिक के सामने एक बार फिर, नये सिरे से जिंदगी जीने की चुनौती आन पड़ी। कुछ अरसे तक उन्होंने कोई काम नहीं किया। साल 1967 में संगीतकार ओ. पी. नैयर ने उन्हें फिल्म ‘दिल और मोहब्बत’ के गाने लिखने का मौका दिया। इस फिल्म का गीत ‘‘आंखों की तलाशी दे दे मेरे दिल की हो गयी चोरी’’ काफी मकबूल हुआ। बावजूद इसके वर्मा मलिक की किस्मत उनसे रूठी रही। हिंदी फिल्मों में काम मिलना, उनके लिए मुश्किल बना रहा।

गर्दिश के दिनों में एक रोज वे फेमस स्टूडियो के सामने से गुज़र रहे थे, अचानक उन्हें अपने दोस्त निर्माता-निर्देशक मोहन सहगल की याद आयी। वे उनसे मिलने पहुंचे, तो बातों-बातों में संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी का ज़िक्र छिड़ा। मोहन सहगल ने उनसे कल्याणजी-आनंदजी से मुलाकात करने को कहा। उस वक्त फिल्मी दुनिया की यह हिट संगीतकार जोड़ी निर्माता-निर्देशक-अदाकार मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ का संगीत तैयार कर रही थी। वर्मा मलिक जब उनसे मिलने पहुंचे, तो मनोज कुमार भी वहां मौजूद थे। वे उन्हें पहले से जानते थे और उनके पंजाबी गीतों के मुरीद भी थे। वर्मा मलिक ने उन्हें अपने कुछ गीत सुनाए, जिसमें एक गीत मनोज कुमार को बेहद पसंद आया। उन्होंने अपनी फ़िल्म ’उपकार’ के लिये यह गीत उनसे ले लिया। मगर किस्मत अभी वर्मा मलिक का और इम्तिहान ले रही थी। फिल्म में इस गीत की वाजिब सिचुएशन न होने की वजह से गाना इस्तेमाल नहीं हो पाया।

मगर मनोज कुमार गाने को संभाल कर रखे रहे। जब फिल्म ‘यादगार’ बनने की बारी आई, तो उन्होंने इस गाने को कुछ बदलाव के बाद फिल्म में इस्तेमाल किया। संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी ने गाने की जितनी शानदार धुन बनाई, उतने ही बेहतरीन अंदाज में इसे मुकेश ने गाया। फिल्म के गाने जब रिलीज हुए, तो यह गाना ‘‘बातें लंबी मतलब गोल, खोल न दे कहीं सबकी पोल, तो फिर उसके बाद इकतारा बोले तुन तुन’’ सुपर हिट साबित हुआ। देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दशा पर तीखा कमेंट करता यह गाना, जनता को खूब पसंद आया। फिल्म की कामयाबी से गीतकार वर्मा मलिक की किस्मत भी चमक उठी। उनके पास अब काम की कोई कमी नहीं रही। वर्मा मलिक ने भी इस मौके का फायदा उठाया और एक के बाद एक उनकी कई फिल्मों के गाने सुपर हिट हुए। ’पहचान’, ’बेईमान’, ’अनहोनी’, ’धर्मा’, ’कसौटी’, ’विक्टोरिया न. 203’, ’नागिन’, ’चोरी मेरा काम’, ‘हम तुम और वो’, ‘जानी दुश्मन’, ‘शक’, ‘दो उस्ताद’, ‘कर्त्तव्य’, ’रोटी कपड़ा और मकान’, ’संतान’, ‘बेरहम’, ‘हुकूमत’, ’एक से बढ़कर एक’ आदि वे फिल्में हैं जिनमें वर्मा मलिक के मधुर गाने शामिल हैं। 

सत्तर का पूरा दशक गीतकार वर्मा मलिक के नाम रहा। इस दहाई में फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े और प्रसिद्ध अवार्ड ‘फिल्मफेयर अवार्ड’ से उन्हें दो बार नवाजा गया। पहली बार साल 1971 में फिल्म ’पहचान’ के गीत ‘‘सबसे बड़ा नादान वही है’’ के लिए, उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मिला। गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि इसी गाने के लिए मुकेश को सर्वश्रेष्ठ गायक और संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। दो साल बाद साल 1973 में इस टीम ने फिर फिल्म ’बेईमान’ में अपने गीत-संगीत से जादू जगाया। ‘‘जय बोलो बेइमान की जय बोलो’’ गाने के लिये वर्मा मलिक की झोली में सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड आया। उन्होंने आगे भी मनोज कुमार की फिल्मों ‘सन्यासी’ एवं ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के गाने लिखे। जिसमें साल 1974 में आई ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के गाने जबर्दस्त हिट हुए। ‘‘तेरी दो टकियाँ दी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए’’ के अलावा ‘‘बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी’’ गाने ने तो पूरे देश में धूम मचा दी। लोग उस वक्त बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से परेशान थे। ऐसे शिकस्ता माहौल में जब यह गाना आया, तो जैसे अवाम की आवाज़ बन गया। उन्हें लगा कि कोई तो है, जिसने उनके दर्द को अल्फाजों में पिरो दिया है। गाने के तीखे बोलों और जनता में इसके असर को देखते हुए, सरकार ने कुछ अरसे तक इस पर पाबंदी भी लगाई। लेकिन पाबंदी का उल्टा असर हुआ। गाना और भी ज्यादा लोकप्रिय हो गया।

वर्मा मलिक ने अपने फिल्मी करियर में संगीतकार शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनन्दजी, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, सोनिक ओमी, जयदेव, आर. डी. बर्मन, बप्पी लाहिरी, चित्रगुप्त और राम लक्ष्मण जैसे संगीतकारों की धुनों पर एक से बढ़कर एक गीत लिखे। संगीतकार सोनिक-ओमी के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी। उन्होंने करीब 35 फिल्मों में एक साथ काम किया। इस जोड़ी ने सबसे पहले साल 1970 में आई फिल्म ’सावन भादो’ का गीत-संगीत तैयार किया। फिल्म सुपर हिट रही। सच बात तो यह है कि फिल्म के हिट होने में इसके गीत-संगीत का बड़ा रोल था। खास तौर पर ‘कान में झुमका चाल में ठुमका कमर पे चोटी लटके’’ और ‘‘सुन सुन ओ गुलाबी कली तेरी मेरी’’ गानों ने तो कमाल कर दिखाया। आज भी ये गाने जब भी रेडियो पर बजते हैं, मन झूमने-मचलने लगता है। साल 1976 में आई फिल्म ‘नागिन’, और साल 1979 में आई ‘जानी दुश्मन’ और ‘कर्तव्य’ में लिखे वर्मा मलिक के गाने भी खूब चले। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के बेहतरीन संगीत से सजे उनके इन गानों ‘‘तेरे संग प्यार में नहीं तोड़ना’’, ‘‘तेरे इश्क का मुझ पे हुआ ये असर’’ (फिल्म-नागिन), ‘‘तेरे हाथों में पहना के चूड़ियां’’, ‘‘ले मैं तेरे वास्ते सब छोड़ के’’ (फिल्म-जानी दुश्मन), ‘‘कोई आएगा, लाएगा दिल का चैन’’, ‘‘चंदा मामा से प्यारा मेरा मामा’’ (फिल्म-कर्तव्य) ने तहलका मचा दिया।

वर्मा मलिक ने अपने गानों से अकेले देशवासियों का मनोरंजन ही नहीं किया, बल्कि जब भी उन्हें मौका मिला अपने गीतों से सामाजिक संदेश दिया। सरल अल्फाजों में अवाम को एक सीख दी। आम आदमी की समस्याएं, परेशानियां और सुख-दुःख उनके गीतों में अक्सर मुखर हो उठते थे। व्यंग्यात्मक शैली में गीत कहने का उनका अपना अलग अंदाज़ था। ‘यादगार’, ‘पहचान’, ‘बेईमान’, ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ फिल्म के शीर्षक गीत इस बात की निशानदेही करते हैं। वर्मा मलिक बेहद होनहार नग्मा निगार थे। नग्मे लिखने में उनका कोई सानी नहीं था। निर्देशक, संगीतकार जैसे ही फिल्म सिचुएशन बताते, वे तुरंत गीत का मुखड़ा लिख देते थे। इतना ही नहीं संगीत की भी उन्हें अच्छी समझ थी। उनके कई सुपर हिट गानों की धुन खुद उन्होंने ही बनाई थी। यह बात अलग है कि इसका क्रेडिट उन्हें कभी नहीं मिला। वर्मा मलिक अवामी गीतकार थे। उनके गानों की बेशुमार कामयाबी के पीछे उनके गीतों की जबान थी। जो हर एक के समझ में आसानी से आ जाती थी। सहज, सरल जबान में वे बड़ी-बड़ी बातें कह जाते थे।

उनके इन मानीखेज गीतों का कोई जवाब नहीं। मिसाल के तौर पर उनके कुछ गीतों के अंतरों पर नजर डालिए, ‘‘बेईमानी से ही बनते, हैं बँगले बाग बगीचे/सर से ऊपर पंखे, चलते पाँव तले गलीचे/रीत रिवाज धर्म और मजहब दब जाते हैं नीचे/बेईमान सबसे आगे और दुनिया पीछे पीछे/मेहनत से बने ना कुटिया, अरे छोड़ो बात मकान की/जय बोलो बेईमान की’’ (फ़िल्म बेईमान), ‘‘राम न करे मेरे देश को/कभी भी ऐसा नेता मिले/जो आप भी डूबे देश भी डूबे/जनता को भी ले डूबे/वोट लिया और खिसक गया/जब कुर्सी से चिपक गया/तो फिर उसके बाद उसके बाद/एक तारा बोले तुन तुन तुन तुन/क्या कहे ये तुमसे सुन सुन (फिल्म-यादगार), ‘‘ग़रीब को तो बच्चे की पढ़ाई मार गई/बेटी की शादी और सगाई मार गई/किसी को तो रोटी की कमाई मार गई/कपडे़ की किसी को सिलाई मार गई/किसी को मकान की बनवाई मार गई/जीवन दे बस तीन निशान/रोटी कपड़ा और मकान/ढूंढ-ढूंढ के हर इंसान/खो बैठा है अपनी जान/जो सच सच बोला, तो सच्चाई मार गई/और बाक़ी कुछ बचा, तो महँगाई मार गई।’’, ‘‘तकदीर के कलम से कोई बच ना पाएगा’’ (फिल्म-बेरहम) वर्मा मलिक के इन गानों को लिखे हुए चार दशक से ज्यादा का अरसा हो गया, लेकिन ये गाने आज भी प्रासंगिक हैं। इन्हें सुनने के बाद ऐसा लगता है कि ये गाने आज के हालात पर ही हैं।

हिंदी फिल्मों में अपने छोटे से करियर में वर्मा मलिक ने कई सदाबहार गीत लिखे। जो आज भी सुनने वालों के कानों में मधुर रस घोलते हैं। उन्हें जागरूक करते हैं। लेकिन हर शख्स का एक दौर होता है और फिर वह दौर, सुनहरा अतीत हो जाता है। हिंदी सिनेमा में आठवें दशक में अमिताभ बच्चन का जमाना आया। फिल्मों में उनकी एंग्री यंग मैन की छवि के मुताबिक एक्शन बढ़ा, तो गीत-संगीत हाशिये पर चला गया। ऐसे में वे गीतकार और संगीतकार भी गुमनामी के साये में चले गए, जिन्होंने फिल्मी दुनिया में अपने गीत-संगीत के मेयार से कभी समझौता नहीं किया। इस दरमियान वर्मा मलिक पर एक सानेहा और गुजरा, उनकी शरीक-ए-हयात का इंतकाल हो गया। फिल्मी दुनिया में बदलाव और इस वाकियात का असर वर्मा मलिक पर इतना पड़ा कि उन्होंने फिल्मों से अपनी दूरी बढ़ा ली। अपनी जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव, सफलता-असफलता का स्वाद चखने वाला यह गीतकार 15 मार्च, 2009 को इस दुनिया से जुदा हो गया।

(वरिष्ठ पत्रकार जाहिद खान का लेख।)

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