Sunday, April 28, 2024

क्या हैं प्राइवेट सेनाएं और कैसे ये काम करती हैं?

रूस में जब इसी वर्ष जून माह में यूक्रेन की जंग में पुतिन का साथ देने वाली प्राइवेट आर्मी वैगनर ग्रुप ने जब रूस के ख़िलाफ़ ही बग़ावत कर दी, तब यह प्राइवेट आर्मी दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गई। वैगनर आर्मी के बारे में कहा जाता है कि इसे ख़ुद‌ रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने एक रूसी अधिकारी दिमित्री‌ उत्किन और 61 वर्षीय फाइनेंसर येवेनी प्रीगोझिन के साथ मिलकर बनाया था।

इसके नेता येवेनी के बारे में बताया जाता है कि इसे सोवियतकाल में मार-पीट, हत्या, बलात्कार के मामले में नौ वर्ष की सज़ा मिली थी। जेल से छूटने के बाद इसने सेंट पीटर्सबर्ग में अपनी मां और सौतेले पिता के साथ ढाबा खोला। बाद में अज्ञात स्रोतों से उसे इतना अधिक धन मिला, जिससे उसने पूरे रूस में रेस्टोरेंट की श्रृंखला खोल दी। देखते-देखते उसका नाम रूस के अरबपतियों में आ गया, बाद में यहीं ‌अपने किसी रेस्टोरेंट में उसकी मुलाक़ात पुतिन से हुई। उसे सेना में खाना सप्लाई का ठेला मिल गया।‌

यहीं से उसने 2014 में वैगनर ग्रुप की स्थापना की, जब रूस ने क्रीमिया पर क़ब्ज़ा किया, तब पहली बार उसकी भाड़े की सेना उसमें शामिल थी। इसके ज़्यादातर सैनिक जेल में बंद दुर्दांत अपराधी हैं, जिन्हें इस शर्त पर इस कथित सेना में शामिल किया गया कि अगर वे 6 महीने ‌सेना में ‌काम करते हैं, तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। शुरुआत में यह एक गुप्त संगठन था और इसमें तकरीबन 5 हजार लड़ाके थे, जिसमें अधिकतर रूस की रेजिमेंटों और विशेष बलों के जवान थे।

रूस में ही नहीं, करीब 18 अफ्रीकी देशों तक वैगनर ग्रुप का नेटवर्क फैला है। 2015 से वैगनर ग्रुप सीरिया, लीबिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में सक्रिय है। इसके अलावा, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक (सीएआर) ने वैगनर ग्रुप को हीरे की खदानों की सुरक्षा के लिए तैनात किया है और ऐसा माना जाता है कि यह सूडान में सोने की खदानों की रखवाली करता है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पूर्वी यूक्रेन के बखमुत शहर पर रूस के क़ब्ज़े में वैगनर ग्रुप की बड़ी भूमिका थी। वैगनर के लड़ाकों को यहां बड़ी संख्या में हमले के लिए भेजा गया था, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर लोग मारे गए थे और बखमुत शहर रूस के क़ब्ज़े में आया। इसके बाद संगठन ने 2022 में बड़ी संख्या में भर्ती भी शुरू की थी, क्योंकि रूस को नियमित सेना के लिए लोगों को ढूंढने में परेशानी हो रही थी। बताया जाता है कि वैगनर ग्रुप के लड़ाके बेहद क्रूर होते हैं। फिलहाल ग्रुप में तकरीबन 50 हजार लड़ाके हैं, जिसमें 80 प्रतिशत अपराधी हैं।

भले ही वैगनर ग्रुप आज चर्चा में है, परन्तु दुनिया भर में अनेक विकसित देश भी इसी तरह के भाड़े के सैनिकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, या तो दूसरे देशों में अपने लिए युद्ध लड़ने के लिए या अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए। स्मरण रहे कि सन 1988 में जब अब्दुल्ला लुथुफी के नेतृत्व में बाहर से आए भाड़े के सैनिकों ने मालदीव की वैधानिक सरकार का तख़्तापलट करने का प्रयास किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल गयूम ने ‌भारत सहित कई देशों से सैन्य हस्तक्षेप का अनुरोध किया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सेना को तुरंत कार्रवाई का आदेश दिया, तब भारतीय सेना ने इस द्वीप राष्ट्र पर पैरासूट सैनिकों को उतारा तथा नौसैनिक युद्धपोतों को तैनात कर सरकार को बचा लिया। इन भाड़े के सैनिकों के बारे में बताया जाता है कि इनका गठन श्रीलंका के किसी द्वीप पर हुआ था तथा उनका संबंध उन तमिल विद्रोहियों के एक ग्रुप से था, जो श्रीलंका में एक तमिल राष्ट्र के निर्माण के लिए लड़ रहे थे।

वैसे ‌तो प्राइवेट आर्मी कई देशों में सक्रिय हैं, लेकिन आमतौर पर रूस का वैगनर ग्रुप और अमेरिका का एकेडमी पुराना नाम ब्लैंक वॉटर दो‌ ऐसी‌ प्राइवेट सेनाएं मुख्य हैं, जो हाल के वर्षों में काफी ‌विवादित रही हैं। प्राइवेट आर्मी या सेनाएं अपने-आप में एक उद्योग हैं। ‌वैसे‌ तो‌ इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में मानी जाती है, लेकिन अगर दुनिया का प्राचीन इतिहास देखें, तो दुनिया भर में इस तरह के भाड़े के सैनिक और सेनाएं भारत सहित विभिन्न देशों में अपने मालिकों के लिए पैसे लेकर लड़ने जाती रही हैं।

प्राइवेट आर्मी की कई गतिविधियां हमेशा विवादास्पद रही हैं, मसलन सितंबर 2007‌ में इराक़ की राजधानी बगदाद में एक नरसंहार हुआ, जिसमें अमेरिका की प्राइवेट सुरक्षा कम्पनी ब्लैक वॉटर वर्ड व्हाइट (जिसे अब एकेडमी के नाम से जाना जाता है) के सैनिक शामिल थे, जिन्हें इराक़ में सुरक्षा सेवाएं देने के लिए अमेरिकी सरकार ने ठेका दिया था।

आरोप है कि ब्लैक वॉटर कर्मियों ने‌ सामने से आने वाले एक वाहन से ख़तरा महसूस किया और भीड़भाड़ वाले चौराहे पर गोलियों की बौछार कर दी, जिसमें 17 नागरिक मारे गए और अनेक घायल हुए। जिसमें स्त्री-पुरुष और बच्चे भी सभी शामिल थे। बाद में जांच से‌ पता लगा कि इस काफ़िले से ‌कोई‌ स्पष्ट ख़तरा नहीं था। इस घटना की दुनिया भर में निन्दा हुई। इस घटना के बाद युद्धभूमि में निजी सैन्य कम्पनियों की निगरानी के बारे में व्यापक बहस छिड़ गई, इन पर रोक लगाने तक की मांग हुई, लेकिन ‌ऐसा कभी‌ नहीं हुआ।

अमेरिका, रूस ‌के अलावा ऑस्ट्रेलिया में यूनिटी रिसोर्स ग्रुप नाम की प्राइवेट आर्मी है, जिसमें दुनिया भर के 1200 से अधिक जवान शामिल हैं, इसकी पूरी ज़िम्मेदारी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ग्रेट ब्रिटेन के रिटायर्ड अफ़सरों को दी‌ जाती‌ है। यह ग्रुप ऑस्ट्रेलिया के साथ अफ्रीका, अमेरिका, यूरोप और सेंट्रल एशिया में भी ‌काम करता है।  

एजिस डिफेंस सर्विसेज एक ब्रिटिश निजी सैन्य और निजी सुरक्षा कम्पनी है, जिसके विदेशी कार्यालय अफ़ग़ानिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, इराक, सऊदी अरब, लीबिया, सोमालिया और मोजाम्बिक में हैं। इस आर्मी की शुरुआत साल 2002 में की गई थी। इसका मुख्यालय लंदन, यूनाइटेड किंगडम में स्थित है। फिलहाल इस आर्मी में लगभग 5000 जवान शामिल हैं, जो पूरे अफ़ग़ानिस्तान और बहरीन में फैले हुए हैं।

ब्रिटेन में इस तरह की कई प्राइवेट आर्मी हैं। ब्रिटेन की एक अन्य प्राइवेट आर्मी एरिनी इंटरनेशनल है, जिसका हेडक्वार्टर दुबई में स्थित है। इस आर्मी में 16 हजार जवान शामिल हैं। दुनिया भर के 282 जगहों पर इस आर्मी को तैनात किया गया है, लेकिन इनकी सबसे बड़ी टुकड़ी अफ्रीका में तैनात है। इस आर्मी को रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो में आयरन, ऑयल और गैस प्रोजेक्ट्स को सुरक्षा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

अमेरिका की आर्मी वर्जीनिया की प्राइवेट डायनकॉर्प को 1946 में बनाया गया था। इसका हेडक्वार्टर वर्जीनिया में स्थित है। यह 10 हजार जवानों वाली आर्मी है, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और लैटिन अमेरिका में सक्रिय है। इस प्राइवेट आर्मी ने पेरू के एंटी ड्रग मिशन समेत सोमालिया और सूडान में भी कई बड़े मिशन को अंजाम दिया है। यह आर्मी चर्चा में तब आई थी, जब इसने कोलम्बिया के बागियों के साथ जंग लड़ी।

अमेरिका के पास चार अन्य प्राइवेट आर्मी ग्रुप है, जिनमें 83 हजार लड़ाके हैं। अफ़ग़ानिस्तान के पास भी अपनी प्राइवेट आर्मी है, जिसका नाम एशिया सिक्योरिटी ग्रुप है। इसका हेडक्वार्टर काबुल में बनाया गया है। इस आर्मी में 600 जवानों को शामिल किया गया है। अमेरिका ने कई बार अपने मिशन को सफल बनाने के लिए इस आर्मी को अपने साथ शामिल किया है। एशिया सिक्योरिटी ग्रुप के साथ अमेरिकी सेना ने लाखों डॉलर का कॉन्ट्रैक्ट किया है। इस ग्रुप में भाड़े के सैनिकों की भर्ती अमेरिका के प्राइवेट आर्मी डायनकॉर्प द्वारा की जाती है।

इस सबके अलावा दुनिया भर में अवैध ड्रग का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों के पास भी अपनी बड़ी-बड़ी प्राइवेट सेनाएं हैं, जिसमें लैटिन अमेरिकी देश कोलम्बिया, मैक्सिको और ब्राजील जैसे देश प्रमुख हैं। कोलम्बिया के ‌एक‌ ड्रग माफिया के बारे में बताया जाता है कि अत्याधुनिक सैन्य-सामग्रियों के साथ उसका ‌अपना हेलीकॉप्टर भी है। अमेरिका ने इन प्राइवेट सेनाओं का प्रयोग अनेक बार अपनी विरोधी सरकारों को अस्थिर करने अथवा गिराने के लिए किया है। यह प्रयोग उसने निकारागुआ, क्यूबा, बेनेजुला जैसे देशों में किया।

इन देशों में सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रहे कथित विद्रोही; वास्तव में वे भाड़े के सैनिक थे, जिन्हें अमेरिका तथा‌ अन्य यूरोपीय देशों ने हर तरह की सैन्य और आर्थिक सहायता दी। प्रोफेसर शॉन मैकफ़ेट अफ्रीका के कई देशों में प्राइवेट आर्मी का हिस्सा रह चुके हैं। वे कहते हैं- “इन सैनिकों की कोई जवाबदेही नहीं है, इसलिए सरकारें इनका इस्तेमाल करती हैं। यह भाड़े के सैनिकों को काम पर रखने का ख़ास सेलिंग पॉइंट है। अगर कोई सरकारी सैनिक किसी की हत्या करेगा तो उसका कोर्ट मार्शल होगा, लेकिन प्राइवेट आर्मी ग्रुप का कोई सैनिक वही काम करेगा तो वो अपने घर वापस लौट जाएगा।”

यद्यपि इन प्राइवेट सैन्य कम्पनियों के नियमन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सहित अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में कड़े क़ानून भी ‌हैं, परन्तु ज़्यादातर इसका ख़ुद ही पालन नहीं करते। इसके ‌अनेक कारण हैं, परन्तु मुख्य कारण यह है, कि पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका में नागरिकों में जनवादी चेतना बढ़ रही है। वे दुनिया भर में सैन्य हस्तक्षेपों का विरोध कर रहे हैं, इसके कारण सेना में जाने में लोगों की रुचि घट रही है।

पहले अमेरिका में अश्वेत लोग भारी पैमाने पर सेना में जाते थे, लेकिन अब उनकी भी इसमें रुचि घट रही है। विदेश गए सेना के जवानों के मारे जाने पर इन‌ देशों में बड़े विरोध प्रदर्शन होते हैं, परन्तु भाड़े के सैनिकों के मारे जाने पर ऐसा कुछ नहीं होता। इसकी ज़िम्मेदारी उन‌ सैन्य कम्पनियों की है, जिसके वे कर्मचारी हैं।

पेंशन आदि देने की भी कोई समस्या नहीं होती, यही कारण है कि सम्पूर्ण यूरोप-अमेरिका में ‌इन भाड़े के सैनिकों की मांग तेजी से बढ़ी है, हालांकि रूस की घटना के बाद अनेक सैन्य विशेषज्ञों का कहना ‌है, कि रूस की तरह ये प्रवृत्ति उन देशों की अपनी सरकारों के लिए भी घातक हो सकती है।   

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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