Saturday, April 27, 2024

कोरोना वायरस : भय और त्रासदी के दौर में विज्ञान, वैज्ञानिकता और चिकित्सा कर्मियों की भूमिका

आज पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के कारण भय, डर, खौफ का माहौल है। ये तीन शब्द अलग-अलग हैं और इनके अर्थ भी अलग। पूरी दुनिया के अलग-अलग कोनों में लोग कहीं भय कहीं डर और कहीं खौफ में है। विश्वव्यापी महामारी का रूप लेता जा रहा है कोरोना जिसके कारण मृत्यु के भय में इज़ाफ़ा हुआ है। कोई भी अपने सुंदर जीवन को असमय खोना नहीं चाहता है कोई भी मरना नहीं चाहता है। जीवन इतना सुंदर जो है।

पिछले लगभग तीन महीने के दौरान कोरोना वायरस के कारण पाँच हजार से अधिक लोग असमय काल के गाल में समा चुके हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार तकरीबन पौने दो लाख लोग अब तक इस बीमारी के शिकार हैं। ये सभी चिकित्सा विज्ञान की भाषा में मेडिकली टेस्टेड आधिकारिक केस हैं। यह बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ये समय बताएगा कि अभी यह कितना और बढ़ेगा और इस पर कब तक क़ाबू पाया जा सकेगा। पूरी दुनिया में सब कुछ ठप सा है। कामकाज, रोज़मर्रा की जिंदगी, उत्पादन की इकाइयां, सरकारी संस्थान, स्कूल कालेज, विश्वविद्यालय सब कुछ बंद कर दिया गया है। लोग घरों में कैद से हैं। मेडिकली टेस्टेड केसों के अनुसार भारत में भी कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या सैकड़ों की संख्या को पार कर गई है।

अब इन हालातों में अगर अपने देश की बात करें तो कोरोना वायरस से लड़ने के लिए कई तरह के औपचारिक-अनौपचारिक सलाह मशविरे, सलाहें इलाज के उपाय आदि बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर चर्चा में हैं। कई तरह के वीडियो, दवाइयाँ इलाज के तरीके वायरल हो रहे हैं। ऐसी हालात में बहुत सारी अ-गंभीर चीजें भी सामने आ रही हैं। जिससे लोगों में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। लोगों को समझ में नहीं आ रहा है क्या करें क्या न करें। किसकी मानें किसकी न मानें।

ऐसे समय में भारत जैसे देश में जब शिक्षा का स्तर कम होने के कारण वैज्ञानिक चिंतन का काफी अभाव है। पहले से ही अंधविश्वास और पोंगापंथ की जड़ें भारतीय समाज में काफी गहरी हैं। ऐसे समय में लोगों को यह बताने की जरूरत है कि कोरोना वायरस से लड़ने का उपाय आधुनिक समय में विज्ञान, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और शोध संस्थानों के माध्यम से ही इससे लड़ने का रास्ता निकलेगा।

यह भी देखने में आ रहा है कि लोगों की अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं को उभारकर कोरोना वायरस से लड़ने के उपाय बताए जा रहे हैं। यह एक तरह से लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ भी है और लोगों की  भावनाओं का दुरुपयोग भी। यदि कोरोना से लड़ना है तो हमें इन बातों पर गौर करना होगा। इनमें सबसे पहले महत्वपूर्ण है विज्ञान और वैज्ञानिकों की भूमिका।

ये अतीत में भी देखा गया है कि दुनिया ने बड़ी से बड़ी त्रासद महामारियाँ देखी हैं। एक समय में 18वीं 19वीं सदी में सूक्ष्म जीवों के कारण बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। हमें याद रखना होगा कि 1918 में स्पेनिश इनफ़्लुएंज़ा फ़्लू के कारण जब पूरी दुनिया में 5 से 7 करोड़ लोग और अकेले भारत में ही डेढ़ करोड़ लोग मारे गए थे।

टीबी, मलेरिया, हैजा, टिटनेस जैसी न जाने कितनी तरह की घातक बीमारियाँ होती थीं जो बड़े पैमाने पर फैलती थीं और इनसे लाखों लोग असमय मारे जाते थे। सूक्ष्म जीवों से होने वाली बीमारियों से बचाव के लिए वैज्ञानिकों ने बहुत मेहनत करके तरह-तरह के वैक्सीन, टीके, दवाइयाँ और सूक्ष्म जीवों को पहचानने के लिए तकनीकी और यंत्र विकसित किए। जिनका उपयोग करके चिकत्सा विज्ञान ने करोड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाई और भावी पीढ़ियों को व्यापक महामारियों से बचाने में कामयाब हुए। कोरोना वायरस से लड़ने में भी विज्ञान, वैज्ञानिकता, वैज्ञानिक, शोधकर्ता चिकित्साकर्मी  और समझदारी के साथ संवेदनशीलता ही काम आ रही है।

मानव जाति ने अब तक जो ज्ञान और अनुभव हासिल किया है। वह आगे तभी बढ़ता है जब उस ज्ञान और समझ पर कोई प्रश्न चिन्ह लगाता है, उसके बारे में तर्क-वितर्क करता है और कुछ नया सोचता है या उसके सामने कोई नई चुनौती आती है। इससे यह अर्थ निकलता है कि ज्ञान और विज्ञान का विकास और हमारी जानकारी का उतार-चढ़ाव भरा एक क्रम है। आज हम जिस खतरे से रूबरू हो रहे हैं उसका भी उपाय खोजा जाएगा लेकिन वह अभी समय लेगा। क्योंकि विज्ञान हमेशा नई चुनौतियों के साथ ही अपने को आगे बढ़ाता है। विज्ञान के सामने यह वही दौर है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए एक चुनौती है और जिस तरह से पहले वैज्ञानिकों ने चुनौतियों को स्वीकार किया था और उनसे लड़ने के लिए रास्ता निकाला था।

वहीं वैज्ञानिक कोरोना वायरस से लड़ने का रास्ता भी निकालेंगे। इसलिए हमें वैज्ञानिकों के काम को कभी भी हल्के में नहीं लेना चाहिए। ये अलग बात है कि विज्ञान की कुछ खोजों के कारण नई-नई समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। जैसे परमाणु बम और उसके युद्ध के खतरे। लेकिन ये खतरे वैज्ञानिक खोजों के कारण नहीं हैं बल्कि सत्ताधारी धनलोलुप, लालची, राजसत्ताओं के कारण हैं। ये बात इस बात पर निर्भर होती है कि विज्ञान के ये आविष्कार किसके हाथ में हैं उससे यह तय होगा कि इसका सही सदुपयोग मानव जाति के उत्थान के लिए होगा या अपने निहित निजी स्वार्थों के लिए उपयोग किया जाएगा। इन स्थितियों के लिए विज्ञान और वैज्ञानिकों को दोषी ठहराना गलत है।

विज्ञान और वैज्ञानिकों ने इसकी कीमत भी चुकाई है। विज्ञान की खोजों में कभी वे मार दिये गए समाज द्वारा तो कभी राज्यसत्ता द्वारा। वैज्ञानिकों ने दवाइयों को बनाते हुये कभी खुद पर प्रयोग किए कभी दूसरों पर तो कभी इन्सानों पर। कभी जानवरों पर और उन्होने हमेशा ही अपने को खतरे में डाला।

विज्ञान का विरोध यथास्थितवादी शक्तियों द्वारा हमेशा से ही होता रहा है। विज्ञान की यह लड़ाई निरंतर चल रही है। लेकिन विज्ञान अभी तक हारा नहीं है। विज्ञान ने जितना इंसानी जीवन को दिया है उससे अधिक खोया भी है ताकि इंसानी जीवन खुशनुमा और सेहतमंद बन सके।

कई खोजी विज्ञानियों ने गरीबी में दिन गुजारे और उन्हें घृणा व अपमान झेलना पड़ा। वे बिना छत के घरों में रहे और तहख़ानों में मर गए या मार दिये गए। इस तरह के तमाम उदाहरण अमेरिकी लेखक और पत्रकार हेंड्रीक विलेम फान लून की पुस्तक ‘मानव जाति का इतिहास’ में भरे पड़े हैं। इसमें वो लिखते हैं कि वैज्ञानिकों और खोजकर्ताओं की इतनी भी हिम्मत नही होती थी की वे अपनी किताबों पर अपना नाम भी छपवा सकें। उनकी इतनी भी हिम्मत नहीं होती थी की वे अपनी किताबें अपने देश में छपवा सकें। उन्हें अपनी पाण्डुलिपि को चोरी छिपे एम्सटर्डम या हारले के किसी छापेखाने में भेजनी पड़ती थी।

उन्हें कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट चर्चों की दुश्मनी का सामना करना पड़ता था। उनके खिलाफ हमेशा फतवे जारी होते रहते थे। जिनमें लोगों से अपील की जाती थी कि वे इन गैर मजहबी लोगों के खिलाफ हिंसा करे। इसके उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। विश्व के धार्मिक विचारों को चुनौती देने वाले और विकासवाद की कहानी बताने वाले चार्ल्स डार्विन ने बाइबिल में उल्लिखित मानव के पैदा होने के पुराने विश्वास पर सवाल करने शुरू कर दिये तो उन्हें चर्च ने मानव जाति का दुश्मन करार दे दिया। यहाँ तक कि जो लोग विज्ञान कि अबूझ दुनिया में जाने कि कोशिश करते हैं उनका उत्पीड़न आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है।

जिस कापरनिकस ने सबसे पहले यह बताया था कि सूर्य अन्तरिक्ष का केंद्र है, उसकी खोज उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाई। ब्रह्मांड संबंधी खोजों के लिए इतालवी विद्वान गैलीलियो गैलीली की जिंदगी का ज़्यादातर हिस्सा पादरियों की निगरानी में बीता लेकिन उसने अपना टेलिस्कोप नहीं छोड़ा। उसने महान गणितज्ञ आइजैक न्यूटन को ब्रह्मांड संबंधी समझ को विकसित करने के लिए व्यावहारिक अवलोकन का आधार प्रदान किया। 

काम चलाऊ माइक्रोस्कोप की ईजाद एंटनी फान ल्यूवेनहाक ने सातवीं सदी के उत्तरार्ध में की थी। इसने लोगों को उन सूक्ष्म जीवों का अध्ययन करने का मौका दिया जिनके कारण उन्हें कई बीमारियों का सामना करना पड़ता था। इसने जीवाणु विज्ञान की आधारशिला रखी। इस प्रकार से पिछले कई वर्षों में ऐसे कई सूक्ष्म जीवाणुओं का पता चला जिनसे विभिन्न बीमारियाँ होती थी। विज्ञान की इस खोज ने भूगर्भशास्त्रियों की भी मदद की और उन लोगों को विभिन्न चट्टानों व जीवाश्म के गंभीर अध्ययन का मौका मिला।

इसी के साथ एक कहानी और है कि जब वर्ष 1846 के समाचार पत्रों ने अमेरिका में ईथर के प्रयोग से पीड़ा रहित शल्य चिकित्सा का समाचार छापा तो यूरोप के भद्रजनों को इसका बुरा लगा। उनके नजदीक यह खुदा की इच्छा के विरुद्ध था कि इंसान उस दर्द से बचने की कोशिश करे जो हर नश्वर के नसीब में है। आपरेशन में ईथर और क्लोरोफार्म का प्रयोग आम होने से पहले लंबे समय तक लोगों में यही समझ कायम रही।

लेकिन आज जो लोग इधर उधर की बातें कर रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए कि परिस्थितियां चेतना को बदल देती हैं। हालात लोगों के विचारों और चिंतन को बदल देते हैं। विज्ञान का दुरुप्रयोग भी लालची और सत्तासीन लोगों ने अपने व्यक्तिगत हित लाभों के लिए किया है। लेकिन उसके दोषी वैज्ञानिक नहीं हैं।

टीके वैक्सीन दवाइयाँ एक दिन में नहीं बन जाते हैं। ये निरंतर शोध और आविष्कार के बाद सामने आती हैं। इसके लिए इनके शोध और आविष्कार पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। यदि इस मामले में भारत की स्थिति देखें तो यहाँ शोध और आविष्कार पर न के बराबर ध्यान दिया जा रहा है। इसलिए यहाँ स्थिति निरंतर नीचे जा रही है।

चिकित्सक और चिकित्साकर्मियों की भूमिका

भारत में इस समय जो तरह-तरह के जादू टोने टोटके अनुलोम विलोम झाड़-फूँक गुड़ गाय, गोबर आदि इलाज के तरीके बताए जा रहे हैं। कोरोना वायरस से लड़ने के लिए तरह-तरह के खान-पान जड़ी-बूटी आदि का सेवन करने की सलाहें वायरल हो रही हैं। लोग सब चीजें खाते-पीते आ रहे हैं। खान-पान को नए वायरस से लड़ने का कारगर उपाय बताकर मज़ाक न बनाया जाएं। इस नए किस्म के विषाणु से लड़ने के लिए वैज्ञानिक चिंतन को हथियार बनाया जाए।

इसके साथ ही शरीर प्रतिरोधक क्षमता के विषय में भी तरह-तरह  के उपाय बताए जा रहे हैं। जबकि चिकित्सा विज्ञान का कहना है कि प्रतिरोधक क्षमता शरीर में एक निरंतर प्रक्रिया के तहत विकसित होती है। जो लोग यह बता रहे हैं कि ये खा लो ये पी लो उनसे सावधान रहने की जरूरत है और डॉक्टर, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं, चिकित्साकर्मी, सफाईकर्मी सभी के योगदान की हमें हौसला अफजाई करनी चाहिए।

पैरामेडिकल स्टाफ की भूमिका

जिस तरह से पूरी दुनिया के साथ भारत में भी डॉक्टर, सहयोगी, चिकित्साकर्मी, नर्सें, पैरा मेडिकल स्टाफ सफाईकर्मी कड़ी मेहनत कर रहे हैं। हमें उनकी मेहनत को जाया नहीं करनी चाहिए बल्कि इन सबकी मेहनत पर गर्व करना चाहिए।

समाज और राज्य की भूमिका 

इस समय सावधानी समझदारी से काम लिया जाए। स्वास्थ्य विभाग, चिकित्साकर्मियों की अधिकृत सलाहों और विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाहों पर ध्यान दिया जाए, उन्हें प्रचारित किया जाए। अवैज्ञानिक पोंगापंथी अ-गंभीर किस्म के उपायों पर पाबंदी लगाई जाए और आम जनों में भ्रामक तरह के प्रचार से दूर रहने की सलाह दी जाए।

यदि भ्रामक खबरों पर रोक नहीं लगाई गई तो इसका सबसे अधिक गहरा प्रभाव समाज के हाशिए के समुदायों और लोगों पर पड़ेगा। क्योंकि भारत में उन तक स्वास्थ्य की पहुंच न के बराबर है। कोरोना के संदर्भ में सूचनाओं तक पहुँच नहीं है। इस स्थिति में ये सभी लोग सस्ते इलाज के चक्कर मे झोलाछाप डॉक्टरों, बाबाओं और जादू टोना करने वालों के झांसे में आ सकते हैं। इस स्थिति का फायदा अफवाह फैलाने वाले तत्व, सस्ता और अवैज्ञानिक इलाज करने वाले उठा सकते हैं।

एक तर्कशील समाज की ज़िम्मेदारी सबसे पहले उन तक सूचनाओं की पहुँच को आसान बनाना जो अभाव में हैं। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर समाज के चेतन शील व्यक्तियों की जिम्मेदारी बन जाती है कि वे सभी मिल जुलकर भ्रामक खबरों से सावधान रहने को लेकर अभियान चलाएं। सही सूचनाओं और जानकारियों को लोगों के साथ साझा करें खासकर जिन तक इनकी पहुंच नहीं है।

जब दुनिया के विकसित देश जहां की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बहुत ही विकसित और मजबूत है जब वहाँ की स्थिति आपातकाल में पहुँच गई है तो भारत जैसे दुनिया के तीसरे मुल्कों में जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है की स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। इसलिए इसे एक सबक के तौर पर लेते हुये सिर्फ कोरोना ही नहीं भविष्य के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए इसलिए वैज्ञानिक शोध और अनुसंधानों को गंभीरता से लेना होगा। उन पर निवेश बढ़ाना होगा। वैज्ञानिक मूल्यों, विचारों को समाज में जग़ह देनी होगी। 

(डॉ.अजय कुमार, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो रहे हैं। वह यहाँ पर समाज विज्ञानों में दलित अध्ययनों की निर्मिति परियोजना पर एक फ़ेलोशिप के तहत काम कर चुके हैं।)

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