Saturday, April 27, 2024

सोनिया गांधी का लेख: बाबा साहेब से क्या सीखें?

आधुनिक भारत के वास्तुकारों में से एक- बाबासाहेब बीआर अम्बेडकर- का जन्म आज से 132 साल पहले हुआ था। उनका उल्लेखनीय जीवन सभी भारतीयों के लिए आज भी एक स्थायी प्रेरणास्रोत है। एक मामूली पृष्ठभूमि से उठकर और गरीबी तथा जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपनी प्रतिभा को एक अर्थशास्त्री, न्यायविद, विद्वान और राजनीतिज्ञ के रूप में विकसित किया। एक समाज सुधारक के रूप में, उन्होंने दलितों और अन्य सभी पिछड़े समुदायों के पक्ष में न्याय के लिए जीवन भर संघर्ष किया।

एक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में, उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और बंधुता जैसे खूबसूरत मूल्यों के आधार पर सभी के लिए न्याय पर आधारित समाज की कल्पना की और जाति व्यवस्था को खारिज कर दिया। अपने नेतृत्व में नव-स्वतंत्र भारत के संविधान का मसौदा तैयार करते समय बाबा साहेब अम्बेडकर को यह अवसर मिला कि हमारे राष्ट्र और इसकी सरकार की नींव में इन मूल्यों को रोपा जा सके।

आज बाबा साहेब की विरासत का सम्मान करते हुए, हमें उनकी दूरदर्शितापूर्ण चेतावनी को याद रखना चाहिए कि संविधान की सफलता शासन कर रहे लोगों के आचरण पर निर्भर करती है। आज सरकार संविधान की संस्थाओं का दुरुपयोग कर रही है और उसे नष्ट कर रही है और स्वतंत्रता, समानता, बंधुता और न्याय की नींव को कमजोर कर रही है। लोगों के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय उन्हें सताने के लिए कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है, जो स्वतंत्रता के लिए खतरनाक है।

हर क्षेत्र में कुछ चुनिंदा मित्रों का पक्षपात करने से समानता खतरे में पड़ गयी है, जबकि दूसरी ओर अधिकांश भारतीयों की आर्थिक हालत बेहद खराब है। जानबूझकर नफरत का माहौल बनाने और देशवासियों को एक-दूसरे के खिलाफ ध्रुवीकृत करने से भाईचारा खत्म हो रहा है। न्यायपालिका पर निरंतर दबाव डालने का अभियान चलाया जा रहा है, जिसके नतीजे में अन्याय को और बढ़ावा मिल रहा है।

अधिकांश भारतीय इसे साफ-साफ देख रहे हैं। इस व्यवस्थित हमले से संविधान की रक्षा के लिए हमें कुछ करने की जरूरत है। हम सभी भारतीयों को, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल, यूनियन, एसोसिएशन या नागरिक समूह से जुड़े हों, या स्वतंत्र नागरिक हों, इस कठिन समय में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। डॉ. अंबेडकर के जीवन और संघर्षों से हमें कुछ महत्वपूर्ण सबक मिलते हैं, जो हमें रास्ता दिखा सकते हैं।

पहला सबक है जोरदार बहसें करना और असहमत होना, लेकिन अंतत: देशहित के लिए मिलकर काम करना। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. अम्बेडकर, सरदार पटेल और कई अन्य लोगों के बीच तीखी असहमतियों से भरा हुआ है। ये बहसें स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान खींचती हैं, क्योंकि ये हमारे भविष्य के बारे में गंभीर सवालों पर कई दृष्टिकोण पेश करती हैं।

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आखिरकार, हमारी आज़ादी के लिए लड़ने वाले सभी प्रतिष्ठित पुरुषों और महिलाओं ने मिलकर जो संघर्ष किया, वह आखिरकार हमारी ही आज़ादी के लिए और हमारे देश को आकार देने के लिए था। अलग-अलग समय में उनके जीवन के उतारों-चढ़ावों से यही पता चलता है कि वे एक साझा काफिले के सहयात्री थे, और वे इस तथ्य से अच्छी तरह से वाकिफ थे।

संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ. अम्बेडकर का आचरण इस सिद्धांत का खूबसूरत उदाहरण है। उन बहसों पर भी एक नज़र डालने से पता चलता है कि वे एक सच्चे लोकतंत्रवादी थे। उन्होंने अपने विचार रखे, उनके खिलाफ जोरदार, और कभी-कभी तीखी असहमतियों को सुना, अपने सिद्धांतों का बचाव किया और जरूरत पड़ने पर अपने विचार भी बदले। अपने अंतिम भाषण में, उन्होंने विशेष रूप से अपने वैचारिक विरोधियों के प्रति आभार व्यक्त किया।

उन्होंने समिति के अन्य सदस्यों, अपनी टीम और कांग्रेस पार्टी को भी श्रेय दिया, और कहा कि कांग्रेस पार्टी अपने अनुशासन के माध्यम से “संविधान के मसौदे के सुचारु संपादन के श्रेय की पूरी हकदार है।” आज, बाबासाहेब के संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हम सभी लोगों को विचारों की भिन्नता के बावजूद उद्देश्य की एकता की इस भावना को याद रखना चाहिए।

दूसरा सबक है बंधुता की भावना को प्रोत्साहित करना, जो राष्ट्र की आधारशिला है। बाबासाहेब एक व्यक्ति के रूप में भारतीयों के भाईचारे को बढ़ावा देने के महत्व में गहराई से विश्वास करते थे। उनका कहना था कि “बंधुता के बिना, समानता और स्वतंत्रता की गहराई केवल पेंट की पतली परत जितनी होगी।” अपने अंतिम भाषण में, उन्होंने बताया कि जाति-व्यवस्था बंधुता की जड़ों पर प्रहार करती है, इसलिए “राष्ट्र-विरोधी” है।

आज सत्ता में बैठे लोग उनके इस वाक्य का गलत इस्तेमाल करते हैं, लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने इसका सही अर्थ समझाया, कि जाति व्यवस्था इसलिए “राष्ट्र-विरोधी” है क्योंकि यह विभाजित करती है, ईर्ष्या और वैरभाव पैदा करती है, यानि यह भारतीयों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती है।

आज, असली ‘देशद्रोही’ वे हैं जो धर्म, भाषा, जाति और लिंग के आधार पर भारतीयों को एक-दूसरे के खिलाफ बांटने के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हैं। शुक्र है कि, शासन के प्रयासों के बावजूद, भारतीयों में भाईचारे की भावना काफी गहरी है। जीवन के सभी क्षेत्रों से करोड़ों ऐसे भारतीयों के उदाहरण भरे पड़े हैं, जिन्होंने धार्मिक विभाजनों का विरोध किया, जिन्होंने किसानों की आजीविका के पक्ष में  आवाज उठायी, और कोविड-19 महामारी के दौरान अपनी क्षमता भर मदद किया। हमें भाईचारे की इस भावना को हमेशा प्रोत्साहित करते रहना चाहिए और अपने घरों, समुदायों और संगठनों में, कहीं भी इस भाईचरे पर होने वाले हमलों से इसे बचाना चाहिए।

डॉ. अंबेडकर की तीसरी सीख है सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए हमेशा संघर्ष करना। डॉ. अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों के साथ-साथ उन सभी व्यक्तियों और समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी जो हाशिए पर थे। पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों के लिए संवैधानिक व्यवस्थाएं लचीली और सुविस्तृत रखी गयी हैं, और इसी वजह से उनके कल्याण के लिए प्रगतिशील क़दम उठाने संभव हुए हैं। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 340 में पिछड़े वर्गों की स्थितियों की जांच के लिए एक आयोग का प्रावधान था जो आगे चल कर मंडल आयोग का आधार बना।

अपने निजी जीवन में भी, डॉ. अंबेडकर सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए अभियान चलाते रहे, अपने लेखन के माध्यम से वे अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था पर लगातार हमला करते रहे, भारत के महान धर्मों की तर्कसंगत ढंग से तलाश करते रहे, और अपने अधिकारों का दावा करने के लिए दलित समुदायों को संगठित करने का प्रयास करते रहे।

सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की चुनौतियों ने आज एक नया रूप ले लिया है। 1991 में कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने समृद्धि में वृद्धि की है, लेकिन अब हम देख रहे हैं कि आर्थिक असमानता बढ़ रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का अंधाधुंध निजीकरण आरक्षण की उस व्यवस्था की संभावनाओं को सिकोड़ रहा है, जिसने दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को सुरक्षा और सामाजिक गतिशीलता प्रदान की थी।

नई तकनीकों का आगमन आजीविका को खतरे में डाल रहा है, लेकिन बेहतर ढंग से संगठित होने और अधिक समानता सुनिश्चित करने के अवसर भी पैदा कर रहा है। अब चुनौती बाबासाहेब अम्बेडकर से सीखने की और इस बदलते समय में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने और सार्वजनिक और निजी जीवन में हमारे इन विश्वासों को अमल में लाने की है।

संविधान सभा में बाबासाहेब अम्बेडकर के अंतिम शब्दों के साथ अपनी बात समाप्त कर रही हूं: “यदि हम संविधान को संरक्षित करना चाहते हैं … आइए संकल्प लें कि हम अपने रास्ते में आने वाली बुराइयों को पहचानने में देर नहीं करेंगे … और न ही उन्हें हटाने की अपनी पहल में कमजोरी लाएंगे। देश की सेवा करने का यही एक तरीका है। मैं इससे बेहतर तरीक़ा नहीं जानता।” यह आह्वान आने वाले वर्षों में हमारा संकल्प होना चाहिए।

(द टेलीग्राफ से साभार लिए गए इस अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद शैलेश ने किया है।)

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