मोदी ने क्यों की थी पूर्व आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल की सांप से तुलना?

नई दिल्ली। उर्जित आर. पटेल 4 सितंबर 2016 को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के 24वें गवर्नर नियुक्त किये गये थे। अपने 3 वर्ष को पूरा किये बिना ही 11 दिसंबर 2018 को उन्होंने अपना त्यागपत्र किन वजहों से दिया, इस बारे में एक बार फिर से बहस सार्वजनिक हो गई है।

इसके पीछे की वजह एक किताब है, जिसे अगले माह अक्टूबर 2023 में रिलीज किया जाना है। इस पुस्तक के लेखक मोदी सरकार में वित्त सचिव रह चुके सुभाष चंद्र गर्ग हैं, जिनकी कुछ टिप्पणियों को फाइनेंशियल टाइम्स ने 24 सितंबर ने प्रमुखता से छापकर बाजार में हलचल मचा दी है। इस प्रकार की पुस्तकों का मकसद क्या होता है, और नौकरशाहों द्वारा सेवानिवृत्त होने के बाद भी शासन के पायों को और भी कैसे मजबूती प्रदान कर अपने लिए पोस्ट-रिटायरमेंट लाभ अर्जित किये जा सकते हैं, असल मकसद होता है।

लेकिन जब आप अतीत के फ़साने को लिखने बैठते हैं, तो न चाहते हुए भी कुछ ऐसे सुबूत गलती से छोड़ सकते हैं, जो उन जख्मों को फिर से कुरेद सकता है, जिनके परिणामों को देश मौजूदा दौर में भी भुगत रहा होता है। ये बातें मई 2019 आम चुनाव से पूर्व वर्ष की हैं। मोदी शासन के पहले कार्यकाल की गंभीर खामियों को छिपाने, पार्टी की इमेज में सुधार लाने की जद्दोजहद और आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल की आत्मछवि पर लगे गहरे दाग के बीच में एक टकराव उभरता है, जिसकी कुछ झलकियां इस किताब की समीक्षा से पता चलती है।

मोदी सरकार का नोटबंदी का फैसला और नए आरबीआई गवर्नर की छवि

8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे देश में नोटबंदी लागू कर दी जाती है। इससे 2 महीने पहले ही उर्जित पटेल को आरबीआई गवर्नर का कार्यभार सौंपा जाता है। पूरा देश कतार में खड़ा होने के लिए अभिशप्त था, जिसमें ठीक-ठीक पता ही नहीं चल पाता कि इस नोटबंदी के लिए अकेले पीएम नरेंद्र मोदी जिम्मेदार थे या आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल का भी इसमें कोई हाथ था?

नियम के अनुसार देश की सरकार को नोटबंदी का अधिकार है। लेकिन इसके लिए आरबीआई की रजामंदी आवश्यक है। आरबीआई का भी अपना कोरम है, जिसके सामने प्रस्ताव को पारित कराना होता है।

अंग्रेजी दैनिक, हिंदुस्तान टाइम्स की 24 दिसंबर 2016 की रिपोर्ट से खुलासा होता है कि अखबार द्वारा दाखिल आरटीआई के जवाब में जो बातें सामने आई हैं, वे साफ़ इशारा करती हैं कि आरबीआई तक को इस फैसले की जानकारी अंतिम क्षणों में हासिल हो पाई थी। 1000 और 500 रूपये के नोटों पर प्रतिबंध लगाने की पीएम मोदी की देश के टेलीविजन पर घोषणा के चंद घंटे पहले ही आरबीआई की बोर्ड मीटिंग बुलाई गई थी।

उस दौरान जो सवाल उठ रहे थे, और आम नागरिकों में संशय बना हुआ था, उस पर सरकार का पक्ष रखने के लिए आर्थिक मामलों के सचिव, शक्तिकान्त दास मीडिया के सवालों का जवाब दे रहे थे। दो वर्ष बाद जब बीच में ही उर्जित पटेल इस्तीफ़ा देकर आरबीआई छोड़ देते हैं, तो मोदी सरकार इस स्थान के लिए सबसे योग्य पात्र शक्तिकान्त दास को ही पाती है। पटेल के इस्तीफे के अगले ही दिन, अर्थात 12 दिसंबर 2018 से दास का 3 वर्ष का कार्यकाल शुरू हो जाता है, जो 2021 में एक बार फिर से 3 वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाता है।   

हालांकि, इस बारे में पुस्तक समीक्षा में एक शब्द नहीं लिखा है। इससे भी यही अंदाजा लगता है कि पुस्तक में उर्जित पटेल की विदाई के समय के आसपास की घटनाओं को ही स्थान दिया गया है। हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित “We Also Make Policy: An Insider’s Account of How the Finance Ministry Functions” नामक इस पुस्तक के लेखक हैं, सुभाष चंद्र गर्ग। अपनी पुस्तक में गर्ग उन घटनाओं का जिक्र करते हैं, जिनके चलते उर्जित पटेल अपना इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हो जाते हैं। साथ में जिस बात पर उनका जोर है, वह यह कि किस प्रकार उनके कार्य-व्यवहार से तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली और यहां तक कि पीएम मोदी की नाराजगी बढ़ती जाती है। यहां तक कि पीएम मोदी उन्हें सांप तक कह देते हैं, जिसने केंद्रीय बैंक के खजाने पर कुंडली मार रखा है।

गर्ग साहब 12 फरवरी 2018 से इस तनातनी की शुरुआत को देखते हैं, जो जुलाई 2018 तक इतने दुर्भाग्यपूर्ण स्तर तक पहुंच गई थी कि गर्ग के अनुसार, अरुण जेटली जैसे इंसान तक आपा खोने लगे थे। कौन न मर जाए गर्ग साहब की ऐसी सादगी पर, जो खुद को पालिसी निर्माता के रूप में रेखांकित करने में कोताही नहीं बरतते। साहेब, यदि आप ही आरबीआई के मुखिया होते तो नोटबंदी जैसे देश-विरोधी कदम उठाये जाने पर आप जिससे नीति-निर्माता कौन सी नीति अपनाते? सभी जानते हैं कि देश में नेताओं के पास समय-समय पर अपने बयानों को बदलते रहने की छूट है, लेकिन यही काम नौकरशाह अपनी कलम से नहीं कर सकता। उसकी लिखी हर एक बात का वजन नेता की फिसलती जुबान से कई गुना ज्यादा होता है। फिर आरबीआई गवर्नर के दस्तखत से तो देश का रुपया अर्थवान होता है, उसकी कलम की ताकत यदि कमजोर होती है तो रूपये से देश का भरोसा ही खत्म हो जायेगा।

आरबीआई से अधिक लाभांश हासिल करने की चाहत

इस बारे में भी लेखक ने कुछ स्पष्ट करने के बजाय सरकार की चुनौतियों को ही गिनाया है, जिसे उर्जित पटेल अनदेखी कर रहे थे। आरबीआई द्वारा भारत सरकार को वार्षिक लाभांश दिए जाने के इतिहास को खंगालें तो जो जानकारी हासिल होती है, वह चौंकाने वाली है।

वर्ष 2013 के दौरान 33,110 करोड़, वर्ष 2014 में 52,679 करोड़, वर्ष 2015 में 65,896 करोड़ आरबीआई द्वारा जारी किये जाते हैं। लेकिन वर्ष 2016 में 65,876 करोड़ तो 2017 मात्र 30,659 करोड़ और 2018 में भी 50,000 करोड़ रूपये लाभांश के तौर पर केंद्र सरकार को जारी किये जाते हैं। आखिरी के दो वर्ष उर्जित पटेल के कार्यकाल के तहत आते हैं। इससे एक वर्ष पहले भी केंद्र सरकार के जोर देने पर अतिरिक्त 10,000 करोड़ लाभांश के तौर पर आरबीआई द्वारा जारी किये जाते हैं।

इस बारे में 9 नवंबर 2018 की द मिंट की रिपोर्ट काबिल-ए-गौर है। खबर में लिखा गया है कि केंद्र सरकार चाहती है कि आरबीआई अपने लाभांश से और हिस्सा सरकार को दे, ताकि वह इसका बेहतर सदुपयोग कर सके। केंद्रीय बैंक की टेंशन बढ़ी हुई है और उसके द्वारा बोर्ड मीटिंग में इस बारे में विचार करने की बात कही गई है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम के हवाले से अखबार ने लिखा है कि आरबीआई एक बड़े सरप्लस कैपिटल पर बैठा है। उनके अनुसार वैश्विक मापदंडों के हिसाब से भी रिजर्व के तौर पर अपनी संपत्ति के 13-14% पूंजी को होल्ड पर रखना उचित है, लेकिन आरबीआई के पास 27% रिजर्व बना हुआ था।

लेकिन उर्जित पटेल की विदाई और शक्तिकान्त दास के कार्यकाल में क्या होता है, यह जानना और भी जरुरी है। अगले वर्ष 2019 में आरबीआई द्वारा एकमुश्त 1,76,051 करोड़ रूपये लाभांश के तौर पर केंद्र सरकार को सौंप दिए गये थे। यह रकम आरबीआई के पिछले 3 वर्षों के कुल योग से भी अधिक है। शायद गर्ग साहब ऐसी ही पॉलिसी मेकर्स की बात अपनी किताब में लिख रहे होंगे, लेकिन उर्जित पटेल को नीचा दिखाने की कोशिश में अनजाने में ऐसी गलती कर बैठे हैं, जिसने पुस्तक को चर्चा में ला दिया है।

2020 में 57,128 करोड़, 2021 में 99,122 करोड़ रूपये, 2022 में 30,307 तो 2023 में यह रकम 87,416 करोड़ रूपये है। लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात जानते हैं क्या है? केंद्र सरकार ने अपने बजट में आरबीआई से लाभांश के रूप में मात्र 48,000 करोड़ रूपये की उम्मीद लगा रखी थी। लेकिन 20 मई 2023 तक आरबीआई करीब 40,000 करोड़ रूपये अतिरिक्त लाभांश देकर मोदी सरकार की उम्मीद से बढ़कर अपनी कर्तव्यनिष्ठता को साबित कर देता है। आखिर इसी चीज की तो कमी थी पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल में। रघुराम राजन ने तो अपने कार्यकाल में बैंकों के एनपीए पर सरकार और सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रबंध निदेशकों को ही नहीं बल्कि निजी क्षेत्रों के बैंकों में भी अफरातफरी का आलम बना रखा था।

रघुराम राजन के चलते ही भारतीय बैंकिंग की बैलेंस शीट में जिन चीजों को छिपाने की कोशिश की जा रही थी, उन्हें जाहिर करना पड़ा और बैंकों को नया जीवनदान हासिल हो सका। यह अलग बात है कि एक बार बैलेंस शीट साफ़-सुथरी कर देने के बाद सरकार, क्रोनी कैपिटलिस्ट और उनके इशारों पर नाचते बैंकों के प्रबंध निदेशक पहले से भी बड़े एनपीए को अंजाम देकर भारत की अर्थव्यस्था को पूरी तरह से चौपट करने के मौके तलाश सकते हैं।

लेखक सुभाष चंद्र गर्ग की टिप्पणियों से निकलते अर्थ

गर्ग फरवरी 2018 से उर्जित पटेल द्वारा उठाए गये कदमों से केंद्र सरकार की नीतियों पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर ध्यान दिलाते हुए। गांधीनगर में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का जिक्र करते हुए बताते हैं कि पटेल ने अपने वक्तव्य में सार्वजनिक बैंकों पर केंद्र सरकार के नियमों को लागू करने में ढील का हवाला देते हुए। खुद को ‘नीलकंठ’ की उपाधि से नवाजा था, जो सारे विष को पीने के लिए तैयार है। इससे सरकार की छवि को धक्का पहुंचा था। 

लेखक ने अपनी पुस्तक में बताया है कि मार्च से लेकर अप्रैल 2018 के बीच उर्जित पटेल केंद्र सरकार के इलेक्टोरल बांड योजना को लेकर टाल-मटोल की मुद्रा में आ गये थे। जबकि पहले वे बैंकिंग प्रणाली के तहत इसे लागू करने के लिए राजी हो गये थे। बाद में उनका कहना था कि इसे सिर्फ आरबीआई के तहत जारी किया जाना चाहिए, वो भी सिर्फ डिजिटल प्रारूप में। (ऐसा लगता है कि उर्जित पटेल की इस हरकत से मोदी सरकार से अधिक नाराज हमारे गर्ग साहब थे।)

इसके साथ ही उर्जित पटेल ने जून 2018 में रेपो रेट में बढ़ोतरी कर इसे 6.25% पर ला दिया था। अगस्त 2018 में फिर से 25 पैसे बढ़ा दिया, जबकि बैंकों में तरलता निचले स्तर पर आ गई थी।

आगे लेखक गिनाते हैं कि सरकार और आरबीआई गवर्नर के बीच बातचीत भी कम से कम होते चली गई। सरकार जितना कोशिश करती, गवर्नर उतना ही अनुपलब्ध होने लगे। गर्ग साहब के पास तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ का समृद्ध अनुभव उनकी किताब में झलकता है। वे जेटली जी को बेहद सहनशील और सबको साथ लेकर चलने वाले व्यक्ति के रूप में याद करते हुए लिखते हैं कि उर्जित पटेल के इस व्यवहार से वे किस प्रकार व्यथित थे। वे लिखते हैं कि अरुण जेटली ने भी इस बात को साझा किया है कि संभवतः उर्जित पटेल आरबीआई के इतिहास में स्वंय को सबसे स्वतंत्र गवर्नर के रूप में अंकित करना चाहते थे।

लेकिन फैसले की घड़ी को लेखक 14 सितंबर 2018 के दिन को मानते हैं, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तय किया था। इस बैठक में आरबीआई की ओर से उर्जित पटेल सहित उनके दो डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य और एन.एस विश्वनाथन शामिल हुए। केंद्र सरकार की ओर से वित्त मंत्री अरुण जेटली, रेल मंत्री पीयूष गोयल, पीएम के मुख्य सचिव नृपेंद्र मिश्र, अतिरिक्त प्रमुख सचिव पीके मिश्र, डीऍफ़एस सचिव राजीव कुमार और स्वंय लेखक मौजूद थे। लेखक के अनुसार अपनी प्रस्तुति में उर्जित पटेल ने आर्थिक हालात की जो स्थिति बयां की, वह वास्तविकता से भी काफी बदतर दर्शाई थी।

जो सुझाव दिए वे सारे सरकार के जिम्मे और अपने जिम्मे कुछ नहीं रखा था। चार मुख्य सलाह में, लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स को खत्म करने, बजट घाटे को तत्काल कम करने और इसके लिए तेजी से विनिवेश की प्रक्रिया को तेज करने, भारत सरकार के बांड्स में बहुपक्षीय संस्थानों के निवेश सहित एमएसएमई सहित कई कंपनियों के हजारों करोड़ के लंबित बिलों को चुकता करने जैसे सुझाव शामिल थे।

इस पर अरुण जेटली जो लेखक के मुताबिक आम तौर पर बेहद धैर्यवान और सार्वजिनक तौर पर अपने गुस्से को जाहिर नहीं होने देने के लिए जाने जाते थे, ने साफ़-साफ़ लफ्जों में कहा कि आरबीआई गवर्नर द्वारा सुझाये गये विचार पूरी तरह से अव्यावहारिक और गैर-वांछित हैं। राजीव कुमार ने पीएम मोदी को एनपीए की बिगड़ती स्थिति से वाकिफ करते हुए आरबीआई के अड़ियल रवैये से अवगत करा दिया था। लेखक ने भी बैठक में अपने सुझाव व्यक्त करते हुए इशारा किया कि इस प्रकार की कोशिशों से 1-2 वर्ष में कहीं जाकर 2-2 बिलियन डॉलर ही इकट्ठा किये जा सकते हैं।

इसके बाद लेखक उर्जित पटेल की वाक्पटुता की कमी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि जुलाई 2018 आते-आते मेरे साथ भी उनकी बातचीत खत्म हो गई थी। पीएम मोदी ने उर्जित पटेल का चयन किया था, और अभी तक उनका बचाव ही करते आ रहे थे, लेकिन आर्थिक हालात दिन-प्रतिदिन खराब होने की सूरत में आरबीआई गवर्नर की ओर से बातचीत के दरवाजे भी लगभग हर तरफ से बंद हो चले थे, और सिर्फ पीएमओ में पीके मिश्र के साथ ही उनकी बातचीत होती थी। लेकिन इलेक्टोरल बांड्स पर पटेल के स्टैंड में 180 डिग्री बदलाव के बाद वहां से भी उनका संपर्क टूट गया था।

लेखक साहब आगे लिखते हैं कि पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम से पीएम मोदी खुश नहीं थे। इसी के चलते अंतिम उपाय के तौर पर सरकार को आरबीआई एक्ट 1934 के सेक्शन 7 को इस्तेमाल में लाने का फैसला करना पड़ा। वे आगे लिखते हैं कि पीएम ने उर्जित पटेल को बड़े ही धैर्यपूर्वक 2 घंटे तक सुना। सुनने के बाद पीएम मोदी का आकलन था कि पटेल को जमीनी हालात की जानकारी नहीं है, और वे सरकार के साथ मिलकर कोई सोद्देश्य समाधान नहीं निकालने जा रहे हैं।

इस स्थिति में पीएम मोदी अपना धैर्य खो बैठते हैं, और एनपीए, एलटीसीजी टैक्स जिस पर अब किसी को आपत्ति भी नहीं थी, सहित वित्तीय वर्ष के मध्य में ही बजट घाटे में भारी कटौती करने जैसे काल्पनिक सुझावों पर बुरी तरह से बिफर पड़ते हैं, जो कि शायद ही कभी देखने को नजर आता है। पीएम मोदी ने उर्जित पटेल की तुलना सांप से की थी, जो धन के ढेर पर कुंडली मारे बैठा था और आरबीआई के पास रिजर्व में पड़े पैसे का सदुपयोग करने में आनाकानी कर रहा था।

लेखक का निष्कर्ष और उर्जित पटेल का संक्षिप्त परिचय

कुल मिलाकर देखें तो इस पूरी कहानी में सुभाष चंद्र गर्ग ने एक निकम्मे, संवेदनहीन और दब्बू आरबीआई गवर्नर की छवि उकेरी है, जो वक्त की जरूरत के हिसाब से खुद को नहीं ढालता। इसलिए आखिर में सरकार के भारी दबाव और आम जनता के बीच में नोटबंदी जैसे जनविरोधी नीतियों को लागू करने वाले गवर्नर के रूप में हर तरह से बेकार था।

28 अक्टूबर 1963 को केन्या (नैरोबी) में जन्मे उर्जित पटेल के दादा पहले-पहल देश छोड़ अफ्रीका में जाकर बसे और केमिकल उद्योग में रमा उनका परिवार अपने-आप में एक सफल उद्यमी परिवार था। पढ़ने में कुशाग्र उर्जित पटेल की शिक्षा-दीक्षा का आलम यह है कि लंदन विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.एस.सी की डिग्री, ऑक्सफ़ोर्ड से एम.फिल और येल यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी की उपाधि बेहद कम उम्र में ही हासिल कर ली थी। आईएमएफ सहित आरबीआई में काम का उनुभव और उनका काम बताता है कि वे बेहद होनहार और विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों में देश की सेवा कर चुके थे। देश में मोदी शासनकाल में रघुराम राजन, अरविंद सुब्रह्मण्यन के बाद उर्जित पटेल ही थे, जो सही मायने में अर्थशास्त्री कहे जा सकते हैं, बाकी तो जो है सो हैये है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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