बीजेपी को राहुलफोबिया हो गया है। और यह बात बीजेपी से ज्यादा संघ के लिए सच है। बीजेपी-संघ बहुत पहले से राहुल नाम के खतरे को भांप रहे थे। लेकिन विरोधियों से निपटने का जो आमतौर पर रास्ता होता है शुरू में उन्होंने उसका ही अनुसरण किया। पहले इग्नोर करो, फिर मजाक बनाओ फिर भी बात न बने तब सीधे हमला करो। बीजेपी-संघ ने पहले दोनों चरणों को आजमा लिया। जिसमें उन्होंने इग्नोर करने से लेकर पप्पू साबित करने तक का सफर अब तक पूरा कर लिया है।
आलू से सोना बनाने से लेकर न जाने किस-किस तरह का आईटी सेल ने फर्जीवाड़ा किया। और इस मद में उसने हजारों करोड़ रुपये बीजेपी फंड के लगा दिए। बात तब भी नहीं बनी तो अब तीसरे चरण की आजमाइश शुरू हो गयी है। कल ही पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने घोषणा की कि बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी के खिलाफ अभियान चलाएगी।
आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई? भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी के उभार ने बीजेपी नेतृत्व को अंदर से हिला दिया है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के जरिये हुए अडानी संबंधी खुलासे और उस पर राहुल गांधी के लिए गए स्टैंड ने इस परेशानी को एक दूसरे स्तर पर पहुंचा दिया है। इसके साथ ही राहुल गांधी ने बार-बार अडानी को पीएम मोदी के साथ जोड़ कर उनके पेशानी के बल को और बढ़ा दिया है।
संसद के भीतर राष्ट्रपति अभिभाषण पर चर्चा के दौरान पूरे भाषण के बड़े हिस्से में अडानी अथ कथा को शामिल कर उन्होंने सामान्य तौर पर सरकार और खास तौर पर पीएम मोदी के लिए संकट खड़ा कर दिया। सरकारी पक्ष जवाब देने की जगह विपक्ष और खास कर राहुल गांधी की आवाज को बंद करने की रणनीति पर चल पड़ा। जिसके तहत विदेश में दिए गए भाषण को मुद्दा बना कर उसने राहुल गांधी से माफी की मांग शुरू कर दी। संसदीय इतिहास में यह अजीब किस्म का दौर था जिसमें सत्ता पक्ष संसद नहीं चलने देना चाह रहा था जबकि विपक्ष अडानी मुद्दे पर बहस के साथ संसद को चलाने के लिए लगातार दबाव बना रहा था।
हद तो तब हो गयी जब सत्ता पक्ष के चार मंत्रियों ने राहुल गांधी पर तमाम तरह के आरोप लगाए और जब राहुल गांधी ने उसका जवाब देने के लिए समय मांगा तो स्पीकर मुस्कराकर मामले को टाल दिए। उसके बाद राहुल ने इस सिलसिले में बाकायदा दो-दो पत्र लिखे लेकिन स्पीकर की तरफ से उसका कोई जवाब नहीं आया। यानी सत्ता पक्ष ने तय कर लिया था कि अब किसी भी कीमत पर संसद नहीं चलने देना है। संसद चलने का मतलब सत्ता पक्ष की हार। और हर तरीके से उसकी छीछालेदर। लिहाजा उसने 45 लाख करोड़ के बजट को बगैर किसी बहस के पारित करवा लिया। गिलोटिन आधार पर कई दूसरे बिल पारित करवा लिए। और इस तरह से संसद का मौजूदा सत्र सत्ता द्वारा सत्ता के लिए सत्ता का बन कर रह गया। एक के बाद दूसरी संस्था के क्षरण की ये आखिरी कड़ी थी जिसे अपनी इस नियति को पहुंचना था। लेकिन राहुल नाम का यह खतरा अभी भी पूरी तरह से टला नहीं था। वह कांटे की तरह गड़ रहा था। लिहाजा उसे कैसे संसद से दूर किया जाए यह सरकार की चिंता का पहला विषय था। ऐसे में उसने पांच साल पुराने एक मामले को जो सूरत की एक कोर्ट और गुजरात हाईकोर्ट की फाइलों में धूल फांक रहा था उसे खुलवाने का फैसला किया।
बीजेपी के पूर्व विधायक और इस केस के याचिकाकर्ता ने आनन-फानन में गुजरात हाईकोर्ट में अपील कर मुकदमे पर लगाए गए स्टे को हटवाया और फिर सूरत की निचली अदालत में नये आए जज ने महज तीन महीने में सुनवाई की प्रक्रिया पूरी कर चौथे में अपना फैसला सुना दिया। कानूनी विशेषज्ञों तक का कहना है कि जिस कानूनी धारा के तहत यह मुकदमा हुआ है उसमें ही बुनियादी खामी है। मसलन 499 और 500 की धारा एक व्यक्ति के अपमान और उसके मानहानि के दावे के लिए इस्तेमाल की जाती है। न कि समुदाय के लिए। जबकि यहां मुकदमा एक समुदाय के अपमान के खिलाफ दायर किया गया है। इसके अलावा सबसे बड़ी बात मोदी नाम का कोई समुदाय नहीं है।
यह बस एक टाइटिल होती है। जो न केवल हिंदू धर्म बल्कि पारसी से लेकर इस्लाम तक में इस्तेमाल की जाती है। ऐसे में उसे समुदाय के तौर पर पेश करना भी पूरी तरह से गलत है। इस नजरिये से न केवल वह केस बल्कि पूरा मामला ही बेबुनियाद हो जाता है। और एक ऐसा मामला जिसमें आम तौर पर माफी या फिर चेतावनी के साथ शख्स को छोड़ दिया जाता है। उसमें उस केस से जुड़ी अधिकतम सजा दे दी जाती है। यह बताता है कि पूरे मामले के पीछे ही कोई गहरी साजिश है। यह बात तब और साफ हो जाती है जब फैसला आने के दो दिन के भीतर ही गांधी की संसद सदस्यता खत्म कर दी जाती है। जबकि स्पीकर चाहते तो वह राहुल गांधी को अगली कोर्ट में सुनवाई के लिए दिए गए 30 दिन का इंतजार कर सकते थे। और बड़ी कोर्ट से आने वाले फैसले के बाद ही कोई कदम उठाते। लेकिन सत्ता पक्ष ने शायद कुछ और ही सोच रखा था। उसे तो तत्काल राहुल नाम के भय को अपने दामन से दूर करना था। राहुल का संसद के इर्द-गिर्द खड़ा होना ही सत्ता के शीर्ष पर बैठे शख्स के लिए भयाक्रांत करने वाला है। लिहाजा उन्होंने उसे किसी भी कीमत पर तत्काल अपने से दूर करने का फैसला लिया।
लेकिन यह मामला सिर्फ अडानी के खिलाफ किसी रुख या फिर पीएम मोदी के भय तक ही सीमित नहीं है। इसमें कोढ़ में खाज का काम संघ के प्रति राहुल गांधी का रुख कर रहा है। पिछले सत्तर सालों में मुख्यधारा से जुड़े मध्यमार्गी दलों का ऐसा कोई नेता नहीं रहा जो सीधे संघ को अपने निशाने पर लिया हो। जवाहर लाल नेहरू सांप्रदायिकता के खिलाफ कितना बोले हों लेकिन इस संगठन को टारगेट कर उन्होंने कभी भी सीधा हमला नहीं किया। न ही उसके खिलाफ कोई सरकारी कार्रवाई की। महात्मा गांधी की हत्या के बाद सरदार पटेल ने ज़रूर उस पर प्रतिबंध लगाया और एक समय के बाद गोलवलकर के अनुशासन में बंध कर काम करने और किसी भी तरह की हिंसक गतिविधि में भाग न लेने की शर्त के साथ वह हटा भी दिया गया। लेकिन जवाहर लाल नेहरू कभी सीधे इस तरह से कार्यवाही में नहीं गए।
ऐसे में राहुल गांधी का लगातार संघ के खिलाफ बोलना उसको अंदर से परेशान कर दिया है। उसको इस बात का डर है कि अगर किसी दिन राहुल गांधी सत्ता में आ गए तो पिछले 100 सालों के उसके किए कराए पर पानी फिर जाएगा। इसलिए राहुल गांधी को सत्ता के रास्ते से दूर करना उसका प्राथमिक कार्यभार हो गया है। यह कुछ इसी तरह का मामला है जैसे नाग के बिल में राहुल गांधी ने हाथ डाल दिया हो। और नाग अब अपनी पूरी ताकत के साथ फन निकाल कर खड़ा हो गया हो। ऐसे में मोदी के साथ मिलकर संघ ने राहुल गांधी को पूरी तरह से खत्म करने की ठान ली है। यह लड़ाई अब आर-पार की होने जा रही है। क्योंकि यह दोनों के अस्तित्व के साथ जुड़ गयी है।
लेकिन यहां संघ और बीजेपी एक गलती कर बैठे हैं। वह है स्थितियों का मूल्यांकन। राहुल गांधी इतने कमजोर नहीं हैं कि उन्हें चुटकी से मसल दिया जाए। भारत जोड़ो यात्रा के बाद वह देश की प्रमुख शख्सियत बन गए हैं। जिसको देश ही नहीं विदेशों में भी तवज्जो मिल रही है। राहुल गांधी के खिलाफ यह कदम उठाकर सत्ता पक्ष ने पूरे विपक्ष को एक कर दिया है। कल तक विपक्षी खेमे की जो पार्टियां और उसके नेता कांग्रेस से दूरी बना कर चला करते थे आज सब एकजुट होकर राहुल के साथ खड़े हैं। एक ऐसे दौर में जबकि 2024 का चुनाव बेहद नजदीक है और संसद से बड़ी भूमिका सड़क की होने वाली है तब सत्ता पक्ष ने राहुल गांधी को उस पर दौड़ने का न केवल मुद्दा दे दिया है बल्कि हर वह चीज मुहैया करा दी है जिसकी उनको ज़रूरत है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह देश और उसके लोग बहुत भावुक हैं। और एक हद से ज्यादा किसी पर की गयी ज्यादती को वह सहन नहीं कर पाते हैं। किसी गलती के लिए सजा तो बनती है। और एकबारगी उसको वह बर्दाश्त भी कर लेंगे। लेकिन अगर किसी को गलत तरीके से या फिर साजिशन फंसाया जा रहा हो तो वे उतनी ही ताकत के साथ उसका प्रतिकार भी करते हैं।
यह बात अब खुल कर कही जा रही है कि लाख कोशिशों के बाद भी राहुल गांधी को न तो नेशनल हेरल्ड और न ही किसी अन्य मामले में सरकार घेर सकी। अंत में सजा दिलवाने और उन्हें संसद से दूर करने के लिए एक ऐसे बयान का सहारा लेना पड़ा जो हर तरीके से संदिग्ध है।
हां एक बात और जो कुछ लोग कह रहे हैं कि बीजेपी विपक्ष के एक कमजोर चेहरे राहुल गांधी को आगे रख कर 2024 के अपने रास्ते को आसान बनाना चाहती है। ऐसा कहने वाले का या तो कोई अपना निहित राजनीतिक स्वार्थ है या फिर उसका मूल्यांकन ही गलत है। अव्वलन तो राहुल कमजोर नहीं हैं। और ऊपर से सत्ता विरोधी ताकतों के केंद्र में आने से उनके मजबूत होने में समय नहीं लगेगा। इस तरह से कहा जा सकता है कि बीजेपी ने अपने कब्र की कुदाल राहुल के हाथ दे दी है।
इतिहास एक बार फिर अपने को दोहराता दिख रहा है। जब जनता पार्टी की सरकार के दौरान चौधरी चरण सिंह की जिद पर पुलिस ने इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया था। जबकि उनके खिलाफ मुकदमा चलाने का कोई ठोस आधार नहीं था। लिहाजा गिरफ्तारी के साथ ही उन्हें जमानत मिल गयी और फिर जनता पार्टी के पूरे मंसूबों पर पानी फिर गया। इसी के साथ ही इंदिरा का उभार और जनता पार्टी के पराभव का दौर शुरू हो गया। और अंत में 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गयीं। तो क्या माना जाए यह बीजेपी की सत्ता के अंत की शुरुआत है?
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
सटीक