जातीय जनगणना: लोकतंत्र के आईने में बराबरी की मुकम्मल तस्वीर की तलाश

यह वक़्त इतिहास के उस मोड़ पर खड़ा है जहां आंकड़े सिर्फ़ संख्या नहीं, सदियों से दबे हुए दर्द की तहरीर बन चुके हैं। जाति जनगणना अब महज़ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे की अग्निपरीक्षा है। यह सामाजिक न्याय की वह दस्तक है जिसे दबाने की हर कोशिश की गई, मगर अंततः जनमानस की आवाज़ ने उसे सत्ता के गलियारों तक पहुंचा ही दिया।

राजनीति अब पहले जैसी नहीं रहेगी

जातीय जनगणना का फ़ैसला भारत की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ने जा रहा है। यह वह क़लम है जो सत्ता के अभिजनों के लिए असहज करने वाले सच लिखेगा। सदियों से जिन जातियों को हाशिये पर रखकर नीति बनाई जाती रही, अब वही जातियां आंकड़ों की शक्ल में दस्तक देंगी। यह बदलाव एक चेतावनी है उन ताक़तों के लिए, जो आज भी सामाजिक वर्चस्व के सहारे लोकतंत्र को बंधक बनाने का ख़्वाब पालती हैं।

जातीय असमानता का एक्स-रे

जाति जनगणना उस परत को खोलेगी जिसे अब तक ‘राष्ट्र की एकता’ के नाम पर ढंक दिया गया था। अब सवाल यह नहीं होगा कि कौन पढ़ा-लिखा है, बल्कि यह होगा कि किस जाति को पढ़ने का अवसर मिला? किसके हिस्से में ज़मीन, नौकरी और संसाधन आए, और किसके हिस्से में ग़रीबी, मज़दूरी और बेबसी?

अब साफ़ होगा कि समाज में सिर्फ़ धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर कैसी गहरी खाइयां मौजूद हैं। ये आंकड़े हमें यह भी दिखाएंगे कि प्रजनन दर किसी मज़हबी बहस का हिस्सा नहीं, बल्कि ग़रीबी और अशिक्षा की उपज है।

संविधान का असली अर्थ

जब जातीय जनगणना के आंकड़े सामने आएंगे, तब सवाल केवल संख्या का नहीं, हक़ का होगा। यह पूछने की ज़रूरत नहीं बचेगी कि जब SC, ST और OBC की आबादी मिलाकर 85% से ज़्यादा है, तो आरक्षण की सीमा महज़ 50% क्यों? यह असमानता अब सिर्फ़ भाषणों का हिस्सा नहीं रहेगी, बल्कि आंकड़ों के सहारे अदालतों और संसदों में चुनौती बनकर खड़ी होगी।

जनगणना नहीं, जन-प्रतिनिधित्व की जन-क्रांति

जो लोग दशकों से जातिगत वर्चस्व की चादर ओढ़े बैठे हैं, उन्हें अब संविधान की चौखट पर आकर यह मानना होगा कि लोकतंत्र केवल मतगणना का खेल नहीं, बल्कि हर जाति को बराबरी का हक़ देने का वादा है। अब ‘जाति नहीं देखी जाती’ का नारा खोखला साबित होगा, क्योंकि आंकड़े चीख़-चीख़ कर बताएंगे कि जाति अब भी रोज़गार, शिक्षा और सम्मान के हर दरवाज़े पर पहरेदार की तरह खड़ी है।

विरोध क्यों है?

इस जनगणना का विरोध वही ताक़तें कर रही हैं जो वर्षों से जातीय विशेषाधिकार के क़िले में सुरक्षित बैठी थीं। जिन्हें डर है कि अगर सच सामने आ गया, तो उनकी ‘मेधावी’ छवि, उनके ‘संस्कारी’ वंश और ‘कर्म प्रधान’ दर्शन सब कुछ सवालों के घेरे में आ जाएगा।

एक नए भारत की दस्तक

जाति जनगणना से उपजे सवाल एक सामाजिक इंक़लाब की बुनियाद रखेंगे। यह आंकड़े उस बहस को जन्म देंगे जो अब तक दबा दी जाती थी-पिछड़े वर्गों को असली हिस्सेदारी कैसे दी जाए? क्या अब सत्ता और संसाधनों का पुनर्वितरण संभव है? और सबसे बड़ा सवाल-क्या हम अपने संविधान की आत्मा के साथ न्याय कर पाए?

यह लड़ाई किसी धर्म, किसी राज्य या किसी विशेष वर्ग की नहीं-बल्कि उन करोड़ों भारतीयों की है, जिनके लिए आज़ादी सिर्फ़ एक तिथि है, अनुभव नहीं। जाति जनगणना इस आज़ादी को अनुभूत करने का पहला क़दम है।

भारत अब उस मुक़ाम पर आ चुका है जहां झूठी समानता के पर्दे फाड़कर सच्ची बराबरी की तस्वीर सामने लानी ही होगी। जाति जनगणना वह आईना है जिसमें भारत को अपनी असली सूरत देखनी पड़ेगी। और तब राजनीति भी बदलेगी, समाज भी बदलेगा, और सबसे बढ़कर-इंसाफ़ की वो तहरीर लिखी जाएगी जो आज तक अधूरी थी।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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