अतीत चाहे मानव जीवन का हो या देश की सभ्यता-संस्कृति का, इसमें सुखद और दुखद पहलू समाहित होते हैं। अतीत हमारे वर्तमान की प्रगति में सहायक हो तो उसे दोहराया जाना चाहिए किन्तु यदि वह हमारे वर्तमान जीवन को बर्बाद करे, सामाजिक जीवन में नफरत फैलाए, एक इंसान को दूसरे इंसान का शत्रु बनाए तो ऐसे अतीत को भूल जाने या उसकी उपेक्षा करने में ही समझदारी है।
दुखद है कि आज हम जाने-अनजाने अतीत के ऐसे गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं उदाहरण के लिए मस्जिदों, दरगाहों के नीचे खोद कर मंदिर निकाल रहे हैं। यह ऐसी प्रवृति है जो हमारे भाईचारे को नष्ट कर रही है। आपसी वैमनस्य को बढ़ा रही है। भले ही यह कुछ राजनीतिक लोगों के लिए फायदे का सौदा हो पर सामाजिक रूप में इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है।
हम सब जानते हैं कि संविधान बहुत सोच-समझ कर बनाया गया विधान है जो हमारे लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। इसमें बिना किसी भेदभाव के देश के हर नागरिक को समान मानवाधिकार दिए गए हैं जिससे कि वह मानवीय गरिमा के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके। साथ ही कुछ कर्तव्य भी बताए गए हैं जिनका पालन करने से आपसी सद्भाव और सौहार्द बना रहे।
समाज में व्याप्त भेदभाव के कारण इसमें वंचित, दलित, दमित, शोषित वर्ग के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं जैसे कि आरक्षण। जिससे यह वर्ग समाज में सम्मान से जी सके और राजनीतिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व प्राप्त कर सत्ता में भी अपनी भागीदारी प्राप्त कर सके।
दूसरी ओर, हमारे धर्मग्रंथ हैं चाहे वे किसी भी धर्म के हों, हम उन्हें अपनी पवित्र पुस्तक मानते हैं और उनके प्रति आदर भाव व आस्था रखते हैं। समस्या यहीं से शुरु होती है।
हमारा संविधान वैज्ञानिक सोच को प्रतिपादित करता है जबकि धर्मग्रंथों में कुछ ऐसी बातें या प्रावधान बताए जाते हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ होते हैं।
संविधान की प्रस्तावना में ही धर्मनिरपेक्ष शब्द है जिसका आशय है कि इस देश का कोई धर्म नहीं है। देश के नागरिक अपने-अपने धर्म को अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं। बावजूद इसके, हमारे देश में धर्म के नाम पर दंगे-फसाद होते रहते हैं। जाति के नाम पर छुआछूत और भेदभाव होता रहता है। आखिर क्यों?
दरअसल हिंदुत्ववादी लोग इस देश को हिंदू बाहुल्य देश मानते हैं। उनका मानना है कि देश में अस्सी प्रतिशत हिंदू हैं बाकी धर्म के लोग बीस प्रतिशत हैं जैसे मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि।
(यह अलग बात है कि उन्होंने जाति के नाम पर इन अस्सी प्रतिशत में उच्च-निम्न क्रम में वर्गीकरण कर रखा है जो कि जाति भेद का कारण है। मान्यवर कांशीराम ने तो स्पष्ट कर दिया था कि ब्राह्मण, बनिया और वैश्य पन्द्रह प्रतिशत हैं बाकी सब मिलकर पचासी प्रतिशत जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक आदि। इसे उन्होंने बहुजन नाम दिया था।)
हिंदुओं के अस्सी प्रतिशत होने के आधार पर हिंदुत्ववादी इसे हिंदू राष्ट्र घोषित करना चाहते हैं। वे अन्य धर्म-संप्रदाय के लोगों की उपेक्षा करते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो खुले आम कहते हैं कि यह देश राम और कृष्ण की परंपरा से चलेगा बाबर और औरंगजेब की परंपरा से नहीं।
सोचने की बात यह है कि जब देश का कोई धर्म ही नहीं है तो देश धार्मिक परंपराओं से क्यों चलेगा। जब देश में संविधान है तो देश संविधान से ही चलेगा और चलना भी चाहिए।
परन्तु बहुत से हिंदुओं की आस्था मनुस्मृति में है। वे मनुविधान को ही अपना संविधान मानते हैं और चाहते हैं कि मनुस्मृति को संविधान की तरह लागू किया जाए।
गौरतलब है कि संविधान का जब ड्राफ्ट बनकर तैयार हुआ था तब भी हिंदुत्ववादियों की इससे गहरी असहमति थी। जनसंघ और आरएसएस का मानना था कि इस संविधान में भारतीय कुछ है ही नहीं।
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जब संसद में हिंदू कोड बिल लेकर आए थे, तब भी सबसे ज्यादा विरोध जनसंघ और आरएसएस ने ही किया था। क्योंकि उस बिल के माध्यम से बाबा साहेब महिलाओं को समानता का अधिकार देना चाहते थे। वे महिलाओं को संपत्ति में अधिकार देना चाहते थे।
वैवाहिक जीवन में असंतुष्ट होने पर महिलाओं को तलाक का अधिकार देना चाहते थे। ऐसे विचारों के जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग घोर विरोधी थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि यह बिल पास हुआ तो भारतीय धर्म-संस्कृति नष्ट हो जाएगी। इससे पितृसत्तावादी व्यवस्था नष्ट होने का खतरा था।
ये लोग मनुस्मृति के समर्थक थे। मनुस्मृति में महिलाओं को सदैव पुरुष के अधीन रहने का प्रावधान था। विवाह से पहले पिता या भाई के अधीन, विवाह के बाद पति के अधीन और पति की मृत्यु होने पर अपने पुत्र के अधीन।
इस विधान के अनुसार महिलाओं के स्वतंत्र होने पर उनका चारित्रिक पतन होता है। इसी की वकालत करते हुए तुलसीदास भी रामचरित मानस में कहते हैं – ‘जिमि स्वतंत्र होंहिं बिगरहिं नारी।’ वे तो एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहते हैं कि ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।’
अब मनुस्मृति के एक दो श्लोकों पर गौर करें:
अस्वतंत्रता: स्त्रियः कार्या: पुरुषै स्वैदिर्वानिशम
विषयेषु च सज्जन्त्य: संस्थाप्यात्मनो वशे
पिता रक्षति कौमारे भर्ता यौवने
रक्षन्ति स्थाविरे पुत्र,न स्त्री स्वातान्त्रयमर्हति
सूक्ष्मेभ्योपि प्रसंगेभ्यः स्त्रियों रक्ष्या विशेषत:
द्द्योहिर कुलयो:शोक मावहेयुररक्षिता:
इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम
यतन्ते भार्या भर्तारो दुर्बला अपि।
अर्थात- पुरुषों को अपने घर की सभी महिलाओं को चौबीस घंटे नियन्त्रण में रखना चाहिए और विषयासक्त स्त्रियों को तो विशेष रूप से वश में रखना चाहिए! बाल्य काल में स्त्रियों की रक्षा पिता करता है! यौवन काल में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है! इस प्रकार स्त्री कभी भी स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है! स्त्रियों के चाल-ढाल में ज़रा भी विकार आने पर उसका निराकरण करना चाहिए! क्योंकि बिना परवाह किए स्वतंत्र छोड़ देने पर स्त्रियां दोनों कुलों (पति व पिता ) के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकती है! सभी वर्णों के पुरुष इसे अपना परम धर्म समझते है! और दुर्बल से दुर्बल पति भी अपनी स्त्री की यत्नपूर्वक रक्षा करता है!
स्वभाव एष नारीणां नराणामिहदूषणम .
अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति, प्रमदासु विपश्चित:
अविद्वामसमलं लोके,विद्वामसमापि वा पुनः
प्रमदा द्युतपथं नेतुं काम क्रोध वाशानुगम
मात्रस्वस्त्रदुहित्रा वा न विविक्तसनो भवेत्
बलवान इन्द्रिय ग्रामो विध्दांसमपि कर्षति !
अर्थात- पुरुषों को अपने जाल में फंसा लेना तो स्त्रियों का स्वभाव ही है! इसलिए समझदार लोग स्त्रियों के साथ होने पर चौकन्ने रहते हैं, क्योंकि पुरुष वर्ग के काम क्रोध के वश में हो जाने की स्वाभाविक दुर्बलता को भड़काकर स्त्रियां, मूर्ख ही नहीं विद्वान पुरुषों तक को विचलित कर देती है! पुरुष को अपनी माता, बहन तथा पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है और विद्वान भी इससे नहीं बच पाते।
मनुस्मृति में शूद्रों यानी आज के दलित और ओबीसी वर्ग को गुलाम बनाए रखने के प्रावधान हैं। उन्हें शिक्षा से वंचित रखने की भी साजिश है। कहा गया है कि यदि किसी शूद्र के कान में वेद का एक शब्द भी पड़ जाए तो उसके कान में पिघला हुआ शीशा डाल देना चाहिए।
अगर वे ब्राह्मणों के प्रति अपशब्द बोलें तो उनकी जीभ काट देनी चाहिए। उनकी संपत्ति जबरन छीन लेनी चाहिए। शूद्रों को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है।
उदाहरण के लिए मनुस्मृति से कुछ उद्धरण काबिले गौर हैं :
नीच वर्ण का जो मनुष्य अपने से ऊंचे वर्ण के मनुष्य की वृत्ति को लोभवश ग्रहण कर जीविका यापन करे तो राजा उसकी सब सम्पत्ति छीनकर उसे तत्काल निष्कासित कर दे।10/95-98
ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है। इसके अतिरक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है।10/123-124
शूद्र धन संचय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करें, क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है। 10/129-130
शूद्र यदि अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश करे तो उस शूद्र के मुंह और कान में राजा गर्म तेल डलवा दें। 8/271-272
शूद्र को भोजन के लिए जूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फ़टे पुराने वस्त्र देना चाहिए ।10/125-126
बाबा साहेब ने मनुस्मृति को क्यों जलाया?
संजीव खुदशाह अपने एक लेख (25 दिसंबर 2018, फॉरवर्ड प्रेस) में कहते हैं :
25 दिसंबर 1927 को डॉ अंबेडकर ने पहली बार मनुस्मृति में दहन का कार्यक्रम किया था। उनका कहना था कि भारतीय समाज में जो कानून चल रहा है। वह मनुस्मृति के आधार पर है। यह एक ब्राह्मण, पुरूष सत्तात्मक, भेदभाव वाला कानून है। इसे खत्म किया जाना चाहिए इसीलिए वे मनुस्मृति का दहन कर रहे हैं।
डॉ. आंबेडकर मनुस्मृति को ब्राह्मणवाद की मूल संहिता मानते थे। यह किताब द्विजों को जन्मजात श्रेष्ठ और पिछड़ों, दलित एवं महिलाओं को जन्म के आधार पर निकृष्ट घोषित करती है। पिछड़े-दलितों एवं महिलाओं का एक मात्र कर्तव्य द्विजों और मर्दों का सेवा करना बताती है।
आज बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को मानने वाले हिंदुत्ववादी हिंदू क्या ये कहेंगे कि बाबा साहेब ने मनुस्मृति दहन कर उचित किया?
इसके विपरीत कुछ कट्टर हिंदुत्ववादी तो संविधान की प्रतियां जलाने का उपक्रम करते हैं।
स्वाभाविक तौर पर हम दूसरे इंसानों के प्रति प्रेम, समता, समानता, सम्मान, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की भावना रखते हैं, जिसे मानवतावादी दृष्टिकोण कहते हैं। ऐसे में जरूरी है कि अपनी धार्मिक भावना से ऊपर उठकर संविधान के प्रति श्रद्धा रखें और लोकतंत्र तथा संवैधानिक मूल्यों का सम्मान करें।
(राज वाल्मीकि सफाई कर्मचारी संघ से सम्बद्ध हैं।)
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