यह एक विडम्बना है कि जिस देश की जड़ें तथाकथित आध्यात्मिकता में रहीं हैं, उसके धर्म और आध्यात्मिक ज्ञान उसे नैराश्य और अवसाद का सामना करने में मदद नहीं कर पाए हैं! गीता को विश्व की महानतम धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तकों में गिना जाता है, और उसकी शुरुआत ही होती है विषाद से। विषाद का अर्थ ही गहरा दुःख है। गीता के पहले अध्याय में ही जब अर्जुन कौरव सेना में अपने रिश्ते-नातेदारों को देखता है तो उसकी जो मनोदैहिक स्थिति होती है, वह अवसाद के विशेष किस्म के लक्षण ही दर्शाती है।
वह कृष्ण से कहता है कि उसके अंग शिथिल होते जा रहे हैं, और गांडीव उसके हाथ से छूटा जा रहा है, उसका शरीर काँप रहा है और कंठ सूख रहा है। बाद में मित्र और सारथी कृष्ण के साथ एक लम्बे संवाद के बाद वह इस पीड़ादायक उहापोह से बाहर आता है। एक तरह से देखा जाय तो इसमें यह संकेत मिलता है कि अवसाद से पीड़ित कोई व्यक्ति जब अपने भावों को किसी मित्र के सामने व्यक्त कर पाए, तो वह अपनी दुखदायी स्थिति से बाहर हो सकता है। यही काम आज के समय में पेशेवर मनोचिकित्सक और मनोविश्लेषक करते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अवसादग्रस्त लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है, यानी 36 फीसदी! जब कोई देश या समाज अभूतपूर्व सामाजिक और आर्थिक बदलावों के दौर से गुज़रता है, तो बने बनाये तौर-तरीकों, जीवन शैली का टूटना कई लोगों को अवसाद की ओर ले जाता है। कभी वे इन बदलावों को संकट के रूप में देख कर इनके बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ करते हैं, और कभी ये बदलाव उनके लिए वास्तविक संकट बन कर प्रस्तुत होते हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में एक और और बात सामने आयी है और वह यह कि स्त्रियों के अवसाद में जाने की सम्भावना पुरुषों की तुलना में दुगुनी होती है।
यह समूचा सर्वेक्षण दुनिया भर के 89000 लोगों के साथ बातचीत पर आधारित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस सर्वे के मुताबिक फ्रांस, नीदरलैंड्स और अमेरिका में ऐसे करीब 30 फीसदी लोग हैं जो जीवन में कभी न कभी भयंकर अवसाद का शिकार हुए हैं। आम तौर पर कम विकसित देशों में अवसाद कम होता है, पर भारत की ओर देखें तो यह एक अपवाद है। आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में हर रोज़ 381 लोग आत्महत्या करते हैं। राज्यों के हिसाब से देखें तो सबसे ऊपर है तमिलनाडु और दूसरे नंबर पर है महाराष्ट्र। आत्महत्या और अवसाद के गहरे सम्बन्ध हैं, इस विषय में विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं।
‘एसोचैम’ की यह रिपोर्ट के मुताबिक भारत में निजी और सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले करीब 42.5 प्रतिशत कर्मचारी अवसादग्रस्त हैं।’ यह रिपोर्ट युवा भारत की उस तस्वीर को सामने लाती है जो निजी क्षेत्र की मोटी तनख्वाह, ऐशो आराम, और शान की ऊपरी तहों के बीच कहीं दबी हुई है। निजी क्षेत्र में काम के दबाव की वजह से देश में 30 से 40 वर्ष के बीच के लोगों में उच्च रक्तचाप, मधुमेह और दिल की बीमारियाँ बढ़ी हैं। बड़े ओहदे पर बैठे अधिकारियों को भयंकर दबाव में काम करना पड़ता है और वह इस तनाव और दबाव को अपने मातहतों के बीच बाँटते रहते हैं।
कंपनियों के अध्ययन में अवसाद (डिप्रेशन) के कारणों को चिन्हित करने की कोशिश की गई और पाया गया कि 38.5 प्रतिशत कॉर्पोरेट कर्मचारी छह घंटे से भी कम सोते हैं। इन घंटों में भी उनकी नींद गहरी नहीं होती। नियोक्ताओं की ओर से मुश्किल लक्ष्य तय किए जाने से तनाव का स्तर बढ़ जाता है। विश्व भर में 13 से 44 वर्ष के आयु वर्ग में अवसाद जीवनकाल घटाने वाला दूसरा सबसे बड़ा कारण है और लोगों में विकलांगता पैदा करने वाला चौथा बड़ा कारण।
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे बताता है कि कौन से शहरी इलाकों में मानसिक सेहत की समस्या सबसे अधिक है: भारत की करीब 13.7 फीसदी आबादी कई तरह के मानसिक रोगों से प्रभावित है और इनमें से 10.6 फीसदी को तुरंत सहायता की जरूरत है। करीब दस फीसदी आबादी को सामान्य मानसिक बीमारियाँ हैं, जबकि 1.9 फीसदी गंभीर मानसिक रुग्णता का शिकार हैं। यह सर्वे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (निमहान्स) ने किया है|
इन मानसिक बीमारियों में रासायनिक पदार्थों का दुरुपयोग, शराब का आदी होना, तंबाकू का व्यसन होना, अवसाद, दुश्चिंता, भय या किसी सदमे का असर होना (पी टी एस डी) शामिल हैं। यह सर्वे 34,802 लोगों के बीच किया गया था। बारह राज्यों में किये गए सर्वे में देखा गया कि असम में मानसिक रुग्णता से 5.8 फीसदी लोग मानसिक बीमारियों से पीड़ित थे, जबकि मणिपुर में करीब 14.1 फीसदी आबादी में ऐसी रुग्णता देखी गई। वहीं असम, उत्तर प्रदेश और गुजरात में इसकी दर दस फीसदी से कम आंकी गई।
सर्वे में बताया गया कि करीब अस्सी फीसदी लोग ऐसे भी थे जो बारह महीनों से बीमार रहने के बावजूद इलाज के लिये नहीं गए क्योंकि मानसिक बीमारी के प्रति एक अजीब तरह का रवैया है और इसे लोग एक कलंक की तरह देखते हैं। इसके लिए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का अपर्याप्त क्रियान्वयन सबसे अधिक जिम्मेदार है। मानसिक बीमारी का इलाज खर्चीला भी है और करीब 1000 से 1500 रुपये हर महीने खर्च हो जाते हैं। देश में करोड़ों लोग इतने अधिक पैसे खर्च करने की क्षमता नहीं रखते।
ऐसी सिफारिश की गई है कि मानसिक स्वास्थ्य की जरूरतों से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग गठित करने की आवश्यकता है। इस योग में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवर लोग, जन स्वास्थ्य, सामाजिक विज्ञान और न्यायपालिका से जुड़े लोग होने चाहिए। इन लोगों को मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नीतियों पर सुझाव देने चाहिए, और उनके क्रियान्वयन पर नज़र रखनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार विश्व में हर वर्ष तकरीबन दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें बड़ी संख्या इस बीमारी के शिकार लोगों की होती है।
अवसाद का एक बड़ा कारण है झूठी कामनाएं, अतृप्त इच्छाएं। पूँजीवाद, बाजार, झूठी कामनाओं के जरिये, विज्ञापन और मार्केटिंग के माध्यम से लोगों को भरोसा दिलाता है कि जीवन का वास्तविक सुख एक महंगे टेलीविज़न सेट, लेटेस्ट स्मार्ट फ़ोन और सबसे आरामदायक कार में ही है। जिनके पास पर्याप्त पैसा नहीं, वे परिवार के बाकी सदस्यों के लगातार दबाव में रहते हैं और इन चीज़ों को खरीदना, उनका मालिक बनना उनका ख़ास उद्देश्य बन जाता है। इस उद्देश्य को पूरा न कर पाने के दबाव के तले वे पिसते रहते हैं और धीरे-धीरे अवसाद उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लेता है। आप गौर से देखें तो एक और गंभीर कारण दिखेगा। हमारे परिवारों का ढांचा कुछ ऐसा है कि बच्चे अपने माँ-बाप से अपनी बातें शेयर करने में हिचकिचाते हैं।
पितृसत्तात्मक पारिवारिक संरचना में पिता भय और नैतिकता का अंतिम प्रतीक होता है और बच्चे उससे बात तक करने में डरते हैं। जनरेशन गैप की वजह से कई परिवारों में यह तनाव बढ़ता जाता है और खासकर बच्चे इसके असर में आ जाते हैं। यदि पढ़ाई को लेकर उनपर अनावश्यक दबाव है और लगातार उनकी तुलना दूसरे बच्चों से की जाए, तो भी उन्हें अवसाद का शिकार होना पड़ सकता है। आम तौर पर जीवन में बड़ी उम्र में होने वाले अवसाद का गहरा सम्बन्ध होता है बचपन में हुए अनुभवों के साथ। ऐसे में सही परवरिश अवसाद से निपटने का एक बहुत ही अच्छा उपाय है। अक्सर पाया गया है कि अधेड़ उम्र में अवसाद का शिकार होने वाले बचपन के बड़े पीड़ादायक अनुभवों से गुज़रे हुए लोग होते हैं।
इंडियन साइकायट्रिक सोसायटी की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि ‘एकांत’ अवसाद का प्रमुख कारण है। हो सकता है कई लोगों को सामाजिकता, मेल जोल वगैरह समय की बर्बादी नजर आए, परंतु अपनों का ख्याल रखना, उनके दुःख-सुख में शामिल होना, जितना समाज और परिवार के लिए जरूरी है उतना ही स्वयं के लिए भी। महा नगरीय संस्कृति से गायब होती सामाजिक भावनाओं ने व्यक्ति को भीतर से खोखला कर दिया है। फेसबुक और अन्य सोशल साइटों पर हम घंटों उपलब्ध रहते हैं, लेकिन आस-पड़ोस के मित्रों-परिजनों के लिए हमारे पास वक्त नहीं होता। अकेलापन अवसाद का पहला लक्षण है। यदि आप कड़वाहट से भरे हुए हैं और इसलिए लोगों से दूर रहना पसंद करते हैं, तो आप निश्चित रूप से अवसाद को आमंत्रित कर रहे हैं।
आपको यह जानकार भी ताज्जुब होगा कि भारत में प्रति दस लाख लोगों पर सिर्फ 3.5 मनोचिकित्सक हैं! इनमें से भी अधिकाँश शहरों में बसे हैं, क्योंकि वहां अवसाद, और अन्य मनोरोगों के बारे में जागरूकता ज्यादा है। पर पिछले कुछ वर्षों में गाँवों में, खासकर किसानों द्वारा की गयी आत्महत्याएं यही दर्शाती हैं कि समस्या वहां भी बहुत गंभीर है। पर मेडिकल सहायता कोई नहीं।
(चैतन्य नागर पत्रकार, लेखक और अनुवादक हैं।)
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