क्रिस्टोफर जैफरलो की एक प्रसिद्ध पुस्तक है ‘India’s Silent Revolution’। यह उस दौर के राजनीतिक उभार को चिह्नित करती है जब दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व कांग्रेस की पकड़ से निकलकर एक स्वतंत्र अस्तित्व ग्रहण कर रहा था और साथ ही प्रभुत्वशाली समुदायों वाली पार्टियों में दलित प्रतिनिधित्व की हिस्सेदारी बढ़ रही थी। आँकड़े निश्चित रूप से इस तथ्य को रेखांकित करते हैं। जैफरलो इसके पीछे के अर्थशास्त्र पर बहुत आँकड़े पेश नहीं करते। संभवतः वे भारत की राजनीति में प्रतिनिधित्व के पीछे अर्थशास्त्र की उपस्थिति को स्वयंसिद्ध तथ्य मान लेते हैं। वे सांस्कृतिक, विशेष रूप से धार्मिक पक्ष पर और भी कम बात करते हैं।
उत्तर-प्रदेश में बसपा के नेतृत्व में दलित राजनीति का उभार आज भी भारतीय राजनीति में एक मानक के रूप में देखा जाता है, विशेषकर बहुजन राजनीति के समीकरण के तौर पर। 1980 के दशक में डॉ. अंबेडकर की मूर्तियों की स्थापना का दौर शुरू हुआ। हाथ में संविधान और भाषण देने की उनकी मुद्रा सबसे अधिक लोकप्रिय मूर्ति-संरचना थी। इन मूर्तियों में शरीर सीधा, तना हुआ है, एक ललकारने वाली मुद्रा में। संविधान और डॉ. अंबेडकर को अभिन्न बनाने वाली यह मुद्रा भारत की संवैधानिक राजनीतिक व्यवस्था को अंगीकार करने की अर्थवत्ता प्रदान करती है। निश्चित रूप से यह व्यवस्था अंग्रेजी राज के खत्म होने और विभाजन के बाद बने भारत का प्रतिनिधित्व करती है।
हालाँकि, इस व्यवस्था में ‘Silent Revolution’ के पहले स्पष्ट चिह्न 1980 के दशक में ही दिखाई देते हैं। इसके ठीक पहले दलित पैंथर्स ने डॉ. अंबेडकर की क्रांतिकारी राजनीतिक धारा के निर्माण में कुछ समय तक सक्रिय भूमिका निभाकर अवसान की ओर बढ़ गए थे।
1980 के दशक में दलित और आदिवासी समुदायों पर कई तरह के हिंसक हमले राजनीतिक मुद्दों में बदल रहे थे। विशेष रूप से पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में जाट किसानों द्वारा दलितों को बेदखल कर ग्रामसभा और सामुदायिक जमीनों पर कब्जा करने तथा दलित समुदाय पर जबरन काम कराने की हिंसक घटनाएँ सामने आ रही थीं। बिहार से लेकर आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु तक दलित बस्तियों में आग लगाने और उन्हें सामूहिक हिंसा का शिकार बनाने की भयावह घटनाएँ सामने आ रही थीं।
इसी दौर में आरएसएस ने दलितों द्वारा धर्मांतरण की घटनाओं को तूल देते हुए हिंदू बनाम मुस्लिम और ईसाई की राजनीति को जोर-शोर से उठाया। इसी दौरान साधुओं का विशाल जुलूस गायों को हाँकते हुए संसद की ओर मार्च कर रहा था। साथ ही, हिंदी पट्टी में क्रांतिकारी कविता से कविता में बढ़ते कवियों के हुजूम में ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे कवि और साहित्यकार धकियाकर किनारे किए जा रहे थे। यह वह संक्रमणकालीन समय था जिसमें कई ‘Silent Revolution’ चल रहे थे।
यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि प्रभुत्वशाली वर्ग कभी भी अपना एकाधिकार दबाव या स्वेच्छा से नहीं छोड़ता। अंग्रेजी राज में बने प्रभुत्वशाली वर्ग ने लाखों लोगों को मरते हुए देखा और खुद भी राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने के लिए लाखों लोगों को मौत की नींद सुला दिया, लेकिन विभाजन की शर्त पर अपने अधिकार छोड़ने को राजी नहीं हुआ। यह अंग्रेजी राज के बाद के दौर में भी जारी रहा। 1980 के बाद कांग्रेस का पतन शुरू हो चुका था, फिर भी यदि हम कुल शासन की समयावधि को देखें तो उसमें कांग्रेस का पक्ष अधिक मजबूत दिखाई देता है।
दरअसल, जिस समय दलित राजनीति का उभार दिखाई देता है, उस समय प्रभुत्वशाली वर्ग कांग्रेस से भाजपा की ओर बहुत सधे कदमों से आगे बढ़ा। इस वर्ग को हमेशा ही दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय की एकता को लेकर भय बना रहा। जैसे-जैसे दलित और आदिवासी समुदाय की राजनीति स्वतंत्र दलों में रूपांतरित हुई और राजनीति का ‘घेटोकरण’ बढ़ा, वैसे-वैसे हम भाजपा के वोट प्रतिशत में वृद्धि देखते हैं।
विशेष रूप से इस घेटोकरण में दलित समुदाय द्वारा डॉ. अंबेडकर को लेकर सवाल उठाने और हिंदूकरण की ओर बढ़ने की प्रक्रिया ने प्रभुत्वशाली वर्ग को आश्वस्त कर दिया कि यह समुदाय उसकी संरचना से बाहर नहीं है। विशेष रूप से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे और राजभर समुदाय द्वारा ‘भारद्वाज’ गोत्र पर दावेदारी जैसी परिघटनाएँ उन्हें हिंदू धर्मतंत्र का अभिन्न हिस्सा बनाने की ओर ले गईं। यह भारतीय राजनीति की भूमि पर एक बेहद खामोश प्रतिक्रियावादी बदलाव था, जिसमें डॉ. अंबेडकर की मूर्तियाँ तो बच गईं, लेकिन उनकी अर्थवत्ता केवल नाममात्र को रह गई।
आमतौर पर डॉ. अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म में ली गई दीक्षा को उनका व्यक्तिगत निर्णय मान लिया जाता है। इसे उनके राजनीतिक दर्शन का उसी तरह हिस्सा नहीं माना जाता, जैसे संविधान निर्माण में उनके योगदान या जाति उन्मूलन के उनके प्रतिपादित सिद्धांतों को देखा जाता है। विशेष रूप से उत्तर-प्रदेश में दलित राजनीति ने धर्म की प्रताड़ना और उन्मुक्ति की अवधारणा पर न केवल चुप्पी साधी, बल्कि इसे सांस्कृतिक आंदोलन में बदलने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया। बसपा का सांस्कृतिक आंदोलन कुल मिलाकर हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा देता हुआ दिखाई दिया।
वहीं, पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में युवा नेता चंद्रशेखर रावण का उभार एक तनी हुई मूँछों वाली ललकारती प्रतीक के रूप में सामने आया। यह प्रतीक ‘पौरुष’ के प्रदर्शन में अधिक अभिव्यक्त होता है और कई बार बेहद बचकाना भी लगता है। यदि इसमें ओमप्रकाश राजभर से लेकर अनुप्रिया पटेल तक के नेतृत्व को जोड़ लिया जाए, तो इसका कुल परिणाम प्रभुत्वशाली वर्ग की राजनीति, धर्म और संस्कृति के सामने नगण्य दिखाई देता है।
ऐसा नहीं है कि दलित समुदाय की चेतना ही कुंद हो गई है। इन दलित पार्टियों द्वारा बनाए गए परिवेश से बाहर, जब किसी गाँव में बौद्ध-कथा या डॉ. अंबेडकर-कथा जैसे आयोजन होते हैं और वहाँ प्रभुत्वशाली समुदाय द्वारा उन पर होने वाले हिंसक हमलों की खबरें आती हैं, तो ये उन बदलावों को ही रेखांकित करते हैं, जिनमें दलित चेतना नई सांस्कृतिक और धार्मिक आकांक्षाओं से लबरेज है। उत्तर-प्रदेश में जिस तरह धर्म-परिवर्तन के कानून बनाए गए, वे भी सतह के नीचे पैदा हुई इन आकांक्षाओं को ही अभिव्यक्त करते हैं। आज उत्तर-प्रदेश में दलित आंदोलन की छटपटाहट और राजनीतिक नेतृत्व की सीमाओं से बने विभाजनों को हम स्पष्ट देख सकते हैं।
आज जब संविधान, राहुल गांधी से लेकर कुनाल कामरा तक के हाथों में, एक खोती हुई राजनीतिक व्यवस्था, धार्मिक और सांस्कृतिक आजादी, नागरिक अधिकार और कानून के सामने समानता को बचाने के प्रतीक के रूप में उभरकर सामने आया है, तो निश्चित रूप से संविधान या कोई भी पुस्तक इसकी गारंटी नहीं दे सकती। प्रभुत्वशाली वर्ग हमेशा ही दिए गए प्रावधानों और उनमें लाए गए बदलावों से खुद को मजबूत करता रहता है।
इन प्रावधानों और बदलावों में हिस्सेदारी की माँग कभी भी आमूल परिवर्तन का रास्ता नहीं खोलती। डॉ. अंबेडकर का पाठ केवल संविधान और उनकी ललकारती भंगिमा तक सीमित करना उनके आमूल परिवर्तन की चेतना के साथ मेल नहीं खाता। उत्तर-प्रदेश में दलित राजनीति का संकट उनके द्वारा ग्रहण किए गए प्रतीकों के निहितार्थों में पढ़ा जाना चाहिए।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)
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