अनमने लोकतंत्र और ढीठ राजनीति की छलकारी रणनीति

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ऐसा लगता है कि भारत में ही नहीं, दुनिया के बड़े हिस्सा में विपत्तियों और आपदाओं का अटूट सिल-सिला चल पड़ा है। चारों तरफ कोलाहल और कलह का माहौल ऐसा है कि जन-सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बात भी करना मुश्किल है। इतिहास का यह वह दौर है जब जरूरी सवाल अ-प्रासंगिक और गैर-जरूरी सवाल सिर पर सवार रहते हैं। हमारे देश के प्रधानमंत्री सपनों का जाल, नहीं माया-जाल पसारने में लगे हैं। पल की खबर नहीं, कल की बात करते हैं। 2047 के विकसित भारत की बात करते हैं। पांच साल के खंडित जनादेश पर खड़े हो कर पचास साल की बात करते हैं। वे सपनों की बात करते हैं, क्योंकि सपनों का कोई सबूत नहीं होता है।

सपनों को सवाल पसंद नहीं, सपनों को सपने के बाहर का शोर पसंद नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों के शहंशाह हैं। कुछ लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि वे सपनों के शहंशाह नहीं, सपनों के तानाशाह हैं। हालांकि हर बात को कानून से जोड़कर देखने-दिखानेवालों के मन में इस पर अलग-अलग राय है। लोकतंत्र के अनमने कर्णाधारों के लिए सपनों का शरणागत होना, आंख-कान मूंदकर आदेश-पालन में रात-दिन लगे रहना पवित्र कर्तव्य है। हालांकि प्रतिपक्षी दल कर्तव्य-निबाह की मर्म-कथाओं का सार संकेत ग्रहण नहीं करते हैं।

मैले-कुचले लोगों को साथ लेकर सपनों में घुसना अपराध है, अराजकता फैलाना है, देश-द्रोह है, अर्थ-व्यवस्था को तबाह करने की कोशिश है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी तो मैले-कुचले लोगों को साथ लेकर जब-तब 2047 के सपनों में घुसकर शोर मचाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। इंडिया अलायंस को साथ लेकर प्रधानमंत्री के ‘मित्र-धर्म निभाव’ को चुनौती देते रहते हैं। उन के इस दुस्साहस को ‘बालक-बुद्धि’ की नटखटी मान कर माफ नहीं किया जा सकता है।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि राजनीतिक आबो-हवा बदल रही है। जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की घोषणा केंद्रीय चुनाव आयोग ने कर दी है। लेकिन इस या उस कारण से महाराष्ट्र, झारखंड विधानसभा और कई राज्यों के उप-चुनावों के बारे में कोई घोषणा नहीं की है। लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के परिणाम में भारतीय जनता पार्टी को लगे झटका के बाद यह पहला चुनाव होगा।

बदलाव के लिए आम चुनाव में दिखे जनता के मूड में स्थायित्व के बारे में अनुमान करने की दृष्टि से जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के चुनाव का बहुत महत्व है। इसलिए विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक हलचल बढ़ गई है। राजनीतिक हलचल का मतलब? जन-समूह और मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए तरह-तरह की चर्चाओं, अफवाहों का सिल-सिला! भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा बनाने के मकसद से मुख्य धारा की मीडिया में अटकल को अटकल बताते हुए उसे खबर की तरह पेश किया जाता है!

इन राजनीतिक हलचलों के अलावा राजनीतिक आबो-हवा में बदलाव के कुछ अन्य महत्वपूर्ण संकेत मिल रहे हैं। खबर है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दारमैया पर मुकदमा चलाने की अनुमति कर्नाटक के राज्यपाल ने दे दी है। भारतीय जनता पार्टी के नेता डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी को राहुल गांधी के भारत के नागरिक होने या बचे रहने पर ही इस समय नये सिरे से संदेह हो गया है! यों तो, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी हैं भारतीय जनता पार्टी के ही नेता लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी बनती नहीं हैं। पूरे ‘गांधी परिवार’ और राहुल गांधी से उन की शिकायत का कोई अंत ही नहीं है।

वे राहुल गांधी को भारतीय नागरिकता से ही वंचित करना चाहते हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार से राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता छीनने की मांग करते हुए पत्र लिखा, पांच साल तक इंतजार किया। सरकार से कोई जवाब नहीं मिलने या संतोषजनक जवाब नहीं मिलने के कारण उन्होंने दिल्ली उच्च-न्यायालय में याचिका दायर की है। जिस आधार पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भारत सरकार से राहुल गांधी की भारतीय नागरिकता रद्द करने की मांग की थी उन में जरा भी दम होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह अवसर मिलते ही कैसी कार्रवाई करते, किसी के लिए भी उसे समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। खैर, अब मामला दिल्ली उच्च-न्यायालय में है।

जो येन-केन-प्रकारेण पूरे ‘गांधी परिवार’ को राजनीतिक रूप से पंगु करने के लिए भारतीय जनता पार्टी किसी भी हद तक जा सकती है, इस के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं। हालांकि खुद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भारतीय जनता पार्टी अकेले दम पर बहुमत में नहीं है। इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार का रुख ‘बहुत कुछ’ तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के मौन-मुखर रुख पर भी निर्भर करेगा। इस समय भारतीय जनता पार्टी अपनी राजनीतिक परियोजना और ‘मित्र-धर्म निभाव’ में कब क्या कर बैठेगी, कुछ भी कहना मुश्किल है।

यह ध्यान में होना ही चाहिए कि नेशनल हेराल्ड प्रकरण भी डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी का ही उठाया हुआ मामला है। इस मामला में श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी से प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) की लंबी पूछ-ताछ हो चुकी है। मामला को नये सिरे से उठाने की कोशिश भी शायद हो रही है। मजे की बात है कि 2015 से ही यह मामला अपने तौर-तरीका से चल रहा है।

‘गांधी परिवार’ के एक अन्य सदस्य श्रीमती प्रियंका गांधी के परिवार से भी पूछ-ताछ हुई है। कहा जा सकता है कि शायद इसे भी फिर नये सिरे से उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जायेगी। पिछले दिनों वायनाड पीड़ितों के बीच से राहुल गांधी ने ट्वीट (X) के जरिये इडी के अंदरूनी सूत्रों के हवाले से अपने खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई के प्रति आगाह किया था।

‘गांधी परिवार’ और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर क्या कार्रवाई होती है, नहीं होती है इस बारे में कुछ भी साफ-साफ कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि मामला के गहराने के लक्षण साफ-साफ देखे जा सकते हैं। तब, यह जरूर है कि ‘बहुत नहीं तो कुछ’ विधानसभा के चुनाव नतीजों पर भी निर्भर करेगा। ‘बहुत कुछ’ इंडिया अलायंस की एकजुटता और जन-समर्थन भी निर्भर करेगा।

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यदि ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी को इन्हीं उलझावों में पड़े रहेंगे, तो ‘सामग्रिक न्याय’ संस्कृति संबंधित उन मुद्दों पर अपना ध्यान कैसे केंद्रित कर सकेंगे, जिन्हें पूरी ताकत से न्याय-पत्र में शामिल किया गया है। यह ठीक है कि ‘न्याय-पत्र’ कांग्रेस का घोषणा पत्र है, लेकिन व्यवहारतः वह इंडिया अलायंस का राजनीतिक दस्तावेज है। यह बात कभी नहीं भूलने में ही सयानापन है कि ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी के लिए राजनीतिक परेशानी खड़ी करके किसी राजनीतिक समस्या के समाधान के संभव होने की बात सोचना भी सत्यानाशी कुमति के अलावा कुछ नहीं है।

विभिन्न मुद्दों पर जन-आक्रोश बढ़ रहा है। जन-आक्रोशों में राजनीतिक दलों के अंतर्विरोध खुलकर सामने आ रहे हैं। जन-सरोकार के मुद्दों पर राजनीतिक दल नागरिकों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता है। अ-प्रासंगिक और बे सिर पैर के राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिल-सिला असल में जन-आक्रोश का इस्तेमाल जनता के खिलाफ ही कर लेने का षड़यंत्र होता है।

पेपरलीक, हत्या, बलात्कार, कृषि-उपज के न्यूनतम-समर्थन (MSP), विकराल बेरोजगारी, बेसम्हार महंगाई जैसे किसी मुद्दे पर आक्रोश हो, राजनीतिक प्रवक्ताओं के लिए तो लगता है अपनी बयान-बहादुरी और वफादारी साबित करने का मौका ही मिल जाता है। इन राजनीतिक प्रवक्ताओं को ऐसे मुद्दों की संवेदनशीलता से वाकिफ कराते हुए समझदारी से पार्टी का पक्ष रखने की सलाह संबंधित राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व दे सकते हैं, लेकिन नहीं देते हैं। उन से उम्मीद भी क्या की जा सकती है! उन से उम्मीद न करे तो फिर किन से उम्मीद रखे! कुछ भी कहना मुश्किल है।

सब से दुखद संकेत यह है कि अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व के बड़े अंश के मन में भी अपनी या अन्य की राजनीति की नैतिक विच्छिन्नता के प्रति कोई प्रतिरोधी मानसिकता है ही नहीं! जहां नीति न हो वहां कैसी नैतिकता! मानव सभ्यता के इतिहास में युवाओं के इतने बड़े अंश की ऐसी नैतिक विच्छिन्नता का उदाहरण शायद ही मिले! जी, है यह कठोर बात, कोई उपयुक्त कोमल शब्द न खोज पाने के लिए खेद है।

इस नैतिक विच्छिन्नता का संबंध भरोसा के अभाव और सरोकारहीन सलूक से है। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अनास्था से भी इस नैतिक विच्छिन्नता का गहरा संबंध होता है। शासन व्यवस्था का कोई भी ढांचा हो या सभ्यता का कोई दौर हो नैतिक-आभा और नैतिक-निष्ठा के बिना चल नहीं सकता। नैतिक विच्छिन्नता समाज को अंधा बना देती है, विवेकहीन बना देती है। इसलिए खतरा यह है कि नैतिक विच्छिन्नता के राजनीतिक विच्छिन्नता में बदलते बहुत देर नहीं लगती है।

राजनीतिक विच्छिन्नता और अराजकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। राजनीतिक दल लोकतंत्र की प्रक्रिया के प्रत्यक्ष और मूर्तिमंत स्वरूप होते हैं। उन से जुड़े साधारण-असाधारण सदस्य के अपराध के लिए पूरे दल को जवाबदेह बनाकर राजनीतिक-अग्रता हासिल करने की प्रवृत्ति अंततः लोकतंत्र को ही क्षतिग्रस्त कर देती है। पता नहीं राजनीतिक दलों को स्थिति की गंभीरता कब समझ में आयेगी!

यह बात साफ-साफ समझना जरूरी है कि आजादी हो या लोकतंत्र आम आदमी को उसे रोटी की तरह अर्जित रोज करना पड़ता है। आज मुश्किल यह है कि आम आदमी सही तौर-तरीका से न रोटी अर्जित कर पा रहा है, न आजादी और लोकतंत्र ही अर्जित कर पा रहा है। व्यवस्था संचालकों को पता है कि भूखे लोगों का पहला मोर्चा रोटी है, उसे पहले मोर्चा पर ही भूखे लोगों को पराजित कर देना है ताकि वह आजादी और लोकतंत्र के मोर्चा तक पहुंच ही न पाये।

विडंबना यह है कि कई बार व्यवस्था संचालक लोगों को भूखा रखने के लिए अ-व्यवस्था संचालक में बदल जाता है। भूखे रख दिये गये लोगों की पहली जरूरत रोटी होती है। ये जो कहा गया है न कि ‘भूखे, भजन न होई गोपाला’ का यह गलत अर्थ पा लिया कि ‘भूखा मांगे रोटी, न मांगे आजादी या लोकतंत्र’। गलत अर्थ इसलिए कि पेट की आग की ज्वाला में ज्वालामुखी से भी अधिक विनाशकारी होता है। क्या हमारे पैर के नीचे कोई ज्वालामुखी सुगबुगा रहा है। अनमने लोकतंत्र और ढीठ राजनीति की छलकारी रणनीति के नतीजे बहुत भयानक होते हैं!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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