भारत के तीन पुराने कानूनों को खत्म करके नए कानून लाए गए हैं। इनमें एक ‘भारतीय न्याय संहिता’ भी है। इसे बीएनएस कहा जाता है। इसकी धारा 105 का डॉक्टरों के खिलाफ उपयोग होना बेहद चिंताजनक है।
जोधपुर के चार चिकित्सकों पर इस भारतीय न्याय संहिता की धारा 105 के अंतर्गत मामला दर्ज हुआ है। इसके गंभीर दूरगामी परिणाम होंगे। मेडिकल एवं लीगल फ्रेटरनिटी नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज के लिए यह चिंतन का विषय है।
राजस्थान की एक महिला प्रशासनिक अधिकारी अपने इलाज के लिए जोधपुर के एक निजी अस्पताल में गई थीं। वहां उनकी एक माइनर सर्जरी की गई। दुर्भाग्यवश किसी आकस्मिक मेडिकल कॉम्प्लिकेशन के बाद कई दिनों तक इलाज हुआ। फिर उन्हें अन्यत्र भर्ती कराना पड़ा। अंततः उनकी दुखद मृत्यु हुई। इसकी जांच के लिए दो बार वरिष्ठ चिकित्सकों के बोर्ड गठित किए गए। उनकी रिपोर्ट में घोर लापरवाही का होना नहीं पाया गया। इसके बाद परिजन अदालत गए। अदालत ने मामला दर्ज करने का आदेश दिया।
पुलिस ने बीएनएस की धारा 105 के अंतर्गत मामला दर्ज़ किया है। जबकि मेडिकल लापरवाही के कारण मृत्यु के मामलों में बीएनएस की धारा 106 (1) का स्पष्ट प्रावधान है।
यह एक हाई-प्रोफाइल केस है। समस्त मीडिया एवं चिकित्सक समुदाय ही नहीं, बल्कि आम नागरिक भी इस केस को फॉलो कर रहा है। इस मामले का गंभीर दुष्परिणाम समाज के लिए एवं खासकर संपन्न वर्ग के लिए होगा, जो अपने लिए अति विशिष्ट स्वास्थ्य सेवाओं की अपेक्षा रखता है।
अब छोटे एवं मध्यम श्रेणी के अस्पताल किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का इलाज करने से बचने लगेंगे। देश का प्रत्येक धनी एवं महत्वपूर्ण व्यक्ति किसी बड़े कॉरपोरेट अस्पताल के आसपास ही रहता हो, ऐसा जरूरी नहीं है। बहुत से प्रशासनिक अधिकारी दूरस्थ स्थानों पर नियुक्त हैं। वहां बड़ा अस्पताल नहीं होता। किसी आकस्मिक स्थिति में यदि चिकित्सक के मन में भय हो, तो वह सही इलाज नहीं कर पाएगा। वह किसी वीआईपी का इलाज करने के बजाय उसे रेफर कर देगा। कई स्थितियों में डॉक्टर जोखिम उठाकर इलाज करें, तो रोगी के बचने की संभावना होती है।
लेकिन डरे हुए डॉक्टर ऐसा जोखिम लेने के बजाय तुरंत मरीज को ऑक्सीजन लगाकर बड़े अस्पताल रेफर कर देंगे। यदि कार्डियक अरेस्ट के कारण अचानक बेहोश हुए व्यक्ति को तत्काल समुचित सीपीआर मिल जाए, तो वह बच सकता है। लेकिन हर एक मिनट के बाद उसके बचने की संभावना दस प्रतिशत कम होती जाती है। आठ-दस मिनट के भीतर उसे रिससिटेट नहीं किया जाए तो उसकी मृत्यु हो सकती है। अब एक चिकित्सक को भय होगा कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसे दस साल की सजा हो सकती है। ऐसे में वह इलाज करने के बजाय तत्काल रेफर करके खुद को बचाएगा।
इलाज के जरिये डॉक्टर हर दिन लाखों लोगों की जिंदगी बचाते हैं। लेकिन मृत्यु सबकी होनी ही है। इलाज के दौरान कुछ लोगों की मौत होना स्वाभाविक है। यदि ऐसे मामले में बीएनएस की धारा 105 लग जाए, तो हर गंभीर रोगी को इलाज मिलना बंद हो जाएगा।
भारत में इलाज के दौरान कोई अप्रिय घटना होने पर उसके कारणों का विश्लेषण किया जाता है। लेकिन यह विश्लेषण इस तरह होता है, मानो यह भारत नहीं बल्कि अमेरिका जैसा कोई विकसित देश है। प्रोसीजर से पहले क्या टेस्ट हुए, क्या सावधानियां रखी गईं, कॉम्प्लिकेशन होने पर चिकित्सक ने क्या किया, उसे क्या करना चाहिए था, यह सब देखा जाता है। लेकिन आकलन करने वाले यह भूल जाते हैं कि भारत में स्वास्थ्य पर अन्य देशों की तुलना में बेहद कम खर्च होता है।
भारत में अधिकांश चिकित्सक एवं अस्पताल बेहद सीमित संसाधनों में काम करते हैं। यहां कॉस्ट ऑफ ट्रीटमेंट को कम रखने के प्रयास में कई बार हमारे प्रोटोकॉल विकसित देशों के प्रोटोकॉल से भिन्न होते हैं। हमारे यहां अधिकांश जटिल ऑपरेशन भी मात्र कुछ घंटों में संभव हैं, जिनके लिए विदेशों में कई महीनों प्रतीक्षा करनी होती है। मेडिकल प्रोटोकॉल का उल्लंघन करके ही एक सरकारी फिजिशियन एक घंटे में सौ-सौ मरीजों को निपटा पाता है। विकसित देशों के प्रोटोकॉल्स का पालन किया जाए, तो जो इलाज आज एक हजार रुपए में संभव है उसके लिए लाखों रुपए खर्च करने पड़ सकते हैं। कई महीने प्रतीक्षा भी करनी होगी।
एक आम व्यक्ति उस चिकित्सक की पीड़ा नहीं समझ सकता जिसके किसी मरीज की इलाज के दौरान आकस्मिक मृत्यु हुई हो। यदि चिकित्सक से वाकई घोर लापरवाही हुई है, तो उसे कानून सम्मत सजा मिले। लेकिन यदि चिकित्सक की गर्दन पर हर समय कानून की तलवार लटकती रहेगी, तो वह अपने दायित्व से कभी न्याय नहीं कर पाएगा। एक सर्जन के हाथ ऑपरेशन के समय कांपने लगें, तो वह कैसे सर्जरी कर पाएगा?
जोधपुर प्रकरण पर गंभीर विचार आवश्यक है। कानूनी प्रावधानों और तकनीकी दांवपेंच का सहारा लेकर डॉक्टरों को मुकदमों में उलझाना ठीक नहीं। डरे हुए डॉक्टर कभी स्वस्थ समाज नहीं बना सकेंगे। जिस डॉक्टर के पास किसी जटिल ऑपरेशन या इलाज की योग्यता है, वह भी मामूली इलाज करके ही अपना गुजारा चलाने लगेगा। यदि जोखिम उठाकर मरीज को ठीक करने के दौरान खुद जेल जाने का खतरा हो, तो वह खुद को बचाना चाहेगा।
(डॉ. राज शेखर यादव यूनाइटेड प्राईवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान के स्टेट कन्वेनर हैं।)
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