देश के कई राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव होना है। इन राज्यों में महाराष्ट्र भी शामिल है। ऐसी खबर है कि महाराष्ट्र में पिछले दिनों जिस तरह से तोड़-मरोड़कर सरकार के बिगड़ने-बनने का खेल हुआ, उसके असर में चुनावी उथल-पुथल का माहौल गर्म है।
इधर, महाराष्ट्र के तटीय सिंधुदुर्ग जिले के राजकोट किले में कुछ ही महीने पहले हजारों करोड़ की लागत से बनवाई गई मराठा योद्धा और आराध्य छत्रपति शिवाजी महाराज की विशाल प्रतिमा गिर गई है। भारतीय नौसेना द्वारा निर्मित इस प्रतिमा का अनावरण खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगभग नौ महीने पहले किया था।
अब जबकि महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं, प्रतिमा के गिर जाने से मराठी अस्मिता के सवाल के साथ सियासी तूफान का माहौल बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आराध्य की प्रतिमा के गिर जाने पर दुखी हैं। उन्होंने इस दुखद घटना के लिए माफी मांग ली है। मीडिया इस माफी मांगने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘बड़प्पन’ बता रही है।
नये दौर में ‘बड़प्पन’ और करप्शन के रिश्ते पर मुख्य धारा की मीडिया ने पहले कभी सवाल नहीं किया है, उम्मीद है अब भी कोई सवाल नहीं किया जायेगा। हां, दोषियों के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धाराओं के तहत कार्रवाई जरूर की जायेगी। ‘सब कुछ’ सही हो जायेगा बस ‘बड़प्पन’ से करप्शन के रिश्ते का भेद नहीं खुलेगा। क्या पता, खुल भी जाये!
सुना है, सौ साल पूरे होने के ठीक पहले राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ (27 सितंबर 1925) की प्रतिनिधि सभा केरल में हो रही है। प्रतिनिधि सभा के ‘प्रतिभावानों’ के मन में बहुत बेचैनी है। यह सच है कि राहुल गांधी की जोरदार गतिविधि से देश के मुट्ठी भर समझदार लोग बहुत बेचैन हैं।
समझदार भले ही मुट्ठी भर हों, भले ही उनके मत से बुनियादी मतभेद हो उनके मत को बहुत ध्यान से समझा जाना चाहिए। यह सच है कि किसी भी देश में समझदार तो मुट्ठी भर ही होते हैं। जी, लेकिन इनमें से अंगुली पर गिने-चुने लोगों को भी ‘मुट्ठी भर’ कहना ही उचित है, कारण ‘मुट्ठी’ के बंधने में इन के योगदान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
अंगुली उठी रहेगी तो ‘मुट्ठी’ कैसे बंधेगी! अंगुली पर गिने-चुने ये समझदार किस्म के ‘प्रतिभावान’ लोग कौन हैं! इनके मत क्या हैं? मत नहीं समझा जायेगा तो मतभेद को समझना मुश्किल ही नहीं, अ-संभव होगा। यह गैर-राजनीतिक बात तो नहीं है, लेकिन हां सत्ता के लिए की जानेवाली पारंपरिक राजनीति से अलग और आगे की बात जरूर है।
यह तो अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दिनों भारत के लोकतंत्र को एक तरह से पुराने अर्थ में परिभाषित करते हुए वर्तमान संवैधानिक लोकतंत्र में संरचनागत बदलाव की तैयारी कर ली गई थी। न सिर्फ तैयारी कर ली गई थी, बल्कि पूर्ण बहुमत हासिल कर लेने के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेंद्र मोदी के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की वैचारिकी और सिद्धांतिकी ने अपने पंख फैलाना शुरू कर दिया था।
इन पंखों के फैलाव ने विचार के आकाश को अधिकांश आच्छादित कर लिया था। जाहिर है कि विचार के आकाश में पहले से उड़ान भर रहे पुराने पंखों से नये पंखों में टकराव शुरू हो गया। इन टकरावों से जो पहली ध्वनि निकली वह वाम-विचार को ‘गाली’ की तरह व्यवहार करती दिखी। वाम-विचार को गाली बनाने की परियोजना का लक्ष्य था, पीछे की तरफ लौटना।
वाम-विचार से चाहे जितनी भी असहमति हो, हर निष्पक्ष व्यक्ति कम-से-कम इतना तो जरूर मानेगा कि वाम-विचार में आगे बढ़ने की प्रवृत्ति होती है। क्योंकि वाम-विचार धर्म से अधिक विज्ञानमुखी होता है। विज्ञान पीछे से नहीं आगे से प्रमाण प्राप्त करता है।
उदाहरण के लिए विज्ञान न्यूटन (3 जनवरी 1643 – 31 मार्च 1727) से अधिक आइंस्टाइन (14 मार्च 1879 – 18 अप्रैल 1955) प्रामाणिक मानेगा। जबकि दक्षिण-विचार विज्ञान से अधिक धर्ममुखी होता है। धर्म पीछे से प्रमाण प्राप्त करता है। वर्तमान शंकराचार्यों से अधिक प्रामाणिक आदि शंकराचार्य माने जाते हैं।
कहने का आशय यह है कि आज के बड़े-बड़े ‘ज्ञानी’ लोगों के हर धर्म-विचार को अपने-अपने पीछे से प्रमाणित होना होता है। क्योंकि धर्म-विचार अपने में परिवर्तन-रोधी होता है। परिवर्तन-रोधी होने का मतलब हर-बार परिवर्तन के पहले की स्थिति में विचार और जीवन को परिवर्तित करना, अर्थात आगे के विचार और जीवन को परिवर्तित करने की विरोधी दिशा में दक्षिण-विचार की गति होती है।
फिर से ध्यान में लाना जरूरी है, दक्षिण-विचार धर्ममुखी और वाम-विचार विज्ञानमुखी होता है। दक्षिण-विचार के वर्चस्व में बने रहकर वाम-विचार का विरोधी होना वैचारिक पिछड़ेपन के प्रभाव का समर्थन करना ही हो सकता है। वैचारिक पिछड़ापन अंततः सामाजिक पिछड़ापन का कारण बन जाता है।
संस्कृति धर्म के आधार पर अपने को टिकाये रखने की कोशिश करती है। सभ्यता विज्ञान के आधार पर आगे बढ़ने की कोशिश करती है। संस्कृति और सभ्यता में एक तरह का तनाव सदैव विद्यमान रहता है। संस्कृति और सभ्यता में रस्साकशी चलती रहती है। इस रस्साकशी में संस्कृति की तरफ दक्षिण-विचार होता है। सभ्यता की तरफ वाम-विचार होता है।
समझना मुश्किल नहीं है कि आजादी के आंदोलन में सक्रिय भारत-विचार सभ्यता के संदर्भ से प्राण-शक्ति और प्रेरणा प्राप्त कर रहा था। स्वाभाविक है कि दक्षिण-विचार में आजादी के आंदोलन के भारत-विचार के आस-पास होने पर सहमति नहीं बन पायी।
जाहिर है कि दक्षिण-विचार संविधान के तैयार होने की प्रक्रिया से भी सिद्धांततः नहीं जुड़ा। यह सच है कि वाम-विचार भी संविधान के तैयार होने की प्रक्रिया से पूरी तरह नहीं जुड़ पाया था।
कहना न होगा कि दक्षिण-विचार और वाम-विचार दोनों का संविधान से कुछ-न-कुछ मतभेद का बने रहना स्वाभाविक है। इस से बड़ा सच यह है कि तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श से जो भी विचार या व्यवस्था बने उसमें समायोजन और समझौता का तत्व होता है। समायोजन और समझौता के मूल में ‘असहमति के साथ सहमति’ की स्वीकृति होती है।
असल में आजादी के आंदोलन की राजनीति में दक्षिण-विचार और वाम-विचार दोनों की अव्यावहारिक मानी गई तार्किकताओं की जिद से बचते हुए व्यावहारिक जरूरतों को पूरा करनेवाले तर्क-वितर्क से मिले भारत-विचार को, भारत को संविधान-विचार के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
भारत के संविधान-विचार से असंतुष्ट दक्षिण और वाम विचार को दाहिने बायें साथ-साथ लेकर व्यावहारिक संविधान-विचार प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ता गया। यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि संविधान-विचार वाम की तरफ लुढ़का हुआ तो नहीं लेकिन झुका हुआ जरूर रहा है।
इस तरह ‘असहमति के प्रति सहमति के साथ’ 2014 तक की यात्रा भारत के लोकतंत्र ने पूरी की। ‘असहमति के प्रति सहमति’ के साथ ‘चरैवेति-चरैवेति’ कहता हुआ भारत चिरकाल से आगे बढ़ता आया है। असल में ‘असहमति के प्रति सहमति के साथ’ का ‘मज्झिमनिकाय’ भारत-विचार का मूल दिशा-सूचक है। भारत को मध्य-मार्ग पर चलते रहने का चिरकालिक अभ्यास है।
इधर 2014 में आकर, आजादी के आंदोलन के दौरान विकसित भारत-विचार में सक्रिय भागीदारी से बचती रहनेवाली और संविधान-विचार से सहमति न रखनेवाली विचारधारा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में प्रतिष्ठित हो गई। याद किया जा सकता है कि इस विचारधारा के लोगों ने भारत के संविधान-विचार में कुछ भी ‘भारतीय’ न होने का सांस्कृतिक दुख उस समय प्रकट भी किया था।
उनका यह सांस्कृतिक दुख धीरे-धीरे राजनीतिक दुख में भी बदल गया था। सत्ता का सुयोग मिलते ही इनकी पुरानी ‘सांस्कृतिक जिद’ फिर से बलवती हो उठी। इसके बाद हिंदू-मुसलमान और ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ का मुहावरा इनका चुनावी मुद्दा, औजार और हथियार बन गया।
यह सच है कि देश-विभाजन के चलते भारत को बहुत बड़ी विभीषिका का सामना करना पड़ा। आज ये सत्ताधारी दल ‘विभाजन विभीषिका’ पर बात करते हुए कांग्रेस और उसके नेताओं के मत्थे सारा दोष मढ़ते हैं। कोई नहीं पूछता कि ठीक विभाजन विभीषिका के दौर में विभाजन रोकने के लिए इनके विचार-पुरखों ने क्या भूमिका निभाई थी!
बात-बात में ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ करने पर आमादा ये लोग आजादी का कोई श्रेय कांग्रेस को सीधे मुंह नहीं देते, विभाजन का दोष बढ़-चढ़कर कांग्रेस के माथे मढ़ते हैं! इस खेल में इनके समर्थक ‘महा-पुरुषों’ की बुद्धि रात-दिन खटती रहती है।
‘सब कुछ’ ठीक ही चल रहा था। लेकिन इस खेल में एक गड़बड़ी हो गई। इंडिया अलायंस और कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी के शासन-काल के दौरान देश और संविधान पर खतरे की बात से देश के आम नागरिकों को अवगत कराया। अवगत कराने में सोशल मीडिया ने जबरदस्त भूमिका निभाई।
इसीलिए सोशल मीडिया पर लगाम कसने के लिए एक कानून तैयार किया गया। विपक्षी और सहयोगी राजनीतिक दलों के अलग-अलग लेकिन समवेत विरोध के कारण राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कानून के बनाने रास्ते से वापस लौटने के लिए मजबूर हो गये।
अब उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पैसे के ‘लालच का जाल’ फैला दिया! साम-दाम-दंड-भेद सारे तरकीब लगाये गये हैं। आगे, जो होगा वह देखा जायेगा! यह तथ्य है कि सोशल और समानांतर मीडिया ने 2024 के आम चुनाव में जमकर काम किया। कुल मिलाकर यह कि आम मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक हवा थोड़ी-सी निकाल दी।
जैसी ‘विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों’ में 2024 का आम चुनाव संपन्न हुआ उसे देखते हुए, यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। यही कारण है कि विपक्ष में रहते हुए भी कांग्रेस अधिक उत्साह में है और सरकार बनाने में कामयाब हो जाने पर भी भारतीय जनता पार्टी गहरी हताशा में है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ को पूरा एहसास है कि 2024 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी पराजित नहीं हुई है बल्कि सही और गंभीर अर्थ में हिंदुत्व की विचारधारा पराजित हुई है। ‘चुनावी तानाशाही’ का चुनावी प्रक्रिया से समाप्त होना बहुत आसान नहीं होता है।
‘चुनावी तानाशाही’ को चुनाव के माध्यम से रोक देने का असंभव काम इंडिया अलायंस के नेतृत्व में भारत की जनता ने किया, इसे कम बड़ी बात समझने की भूल किसी को भी नहीं करनी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी के समर्थक ‘महा-पुरुषों’ की टोली खुद इस पराजय को कमतर नहीं मानते हुए भी सामान्य लोगों को यह समझाने में लगी है कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। इंडिया अलायंस और राहुल गांधी के होने का मतलब भारतीय जनता पार्टी अच्छे से समझ चुकी है; उससे भी अधिक अच्छे से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ समझ रहा है।
राहुल गांधी की राजनीति को काटने की रणनीति बनाने में भारतीय जनता पार्टी के चाणक्य लगे हुए हैं। मुश्किल यह है कि ‘अवतारी छवि’ तो गई ही, साथ ही इधर राहुल गांधी की ‘पप्पू छवि’ भी गायब हो गई और उधर ‘महा-पुरुष’ की ‘चाणक्य छवि’ भी लुप्त हो गई! एक ओर पुराने चाणक्य ठीक से राजनीति परिस्थिति संभाल नहीं पा रहे हैं, दूसरी ओर नये चाणक्य बनने की कतार में लगे लोगों की चढ़ा-उतरी से भी भारतीय जनता पार्टी को कम परेशानी नहीं हो रही है।
‘चाणक्य की कतार’ में लगे लोग समझाते हैं कि पहले के जमाने में चाणक्य बहुवचन में नहीं पाये जाते थे, अब पाये जाते हैं। प्रसंगवश, जब चाणक्य के प्रति इतना अधिक आकर्षण है तो, असली चाणक्य की जीवनी और कारस्तानी को जानने की कोशिश अलग से जरूर की जानी चाहिए।
जो भी हो, अच्छे-बुरे दिनों में काम आनेवाले एक नहीं कई ‘मीडिया चाणक्य’ इन दिनों सक्रिय हैं। उल्लेखनीय यह है कि हारी हुई बाजी को पलटने के लिए अब ये चाणक्य बड़ी मीडिया से निकलकर सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गये हैं। सही है, उनको हक है जहां जगह मिले, वहीं सक्रिय हो जाने का; अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आखिर कब काम आयेगी।
ये चाणक्य तेज और तर्काभासी बोलते हैं। इनके तर्कों को तर्काभासी इसलिए कहा जा सकता है कि उनकी बातों में तर्क तो नहीं होता, हां तर्क का आभास जरूर होता है। वे जानते हैं तर्क की गहराइयों में जाने कि फुरसत किसी को नहीं है, उन्हें भी गहराई में नहीं जाना है, बस उपस्थित मुद्दों को खुरचकर निकल जाना है। मुद्दों का मतलब राहुल गांधी!
इस समय सभी चाणक्यों के पास एक ही मुद्दा है, राहुल गांधी। लेकिन इन्होंने इस एक मुद्दे को तोड़-तोड़कर बहुवचनीय और बहुस्तरीय बना लिया है।
नागरिक अधिकार और सुविधा का कोई मुद्दा हो जिम्मेवारी सीधे कांग्रेस की बताई जाती है और राहुल गांधी को पकड़ने की कोशिश की है। कांग्रेस ने कुछ नहीं किया, कांग्रेस या विपक्ष के हाथ में सत्ता आई तो देश पाकिस्तान हो जायेगा, अब बांग्लादेश का नाम भी इस मुहावरे में जुड़ गया है।
बड़े भोलेपन से सवाल किया जाता है कि कांग्रेस ने तब यह क्यों नहीं किया? मुद्दा जातिवार जनगणना का हो, सामाजिक न्याय का हो या कुछ अन्य मुद्दा हो, ‘कांग्रेस ने तब क्यों नहीं किया?’ क्या गजब की बात है, कांग्रेस ने तब नहीं किया तो अब क्यों न करे! आरोप यह कि कांग्रेस जाति-वर्ण के आधार पर देश-समाज को बांट रही है।
जाति-वर्ण के आधार पर देश-समाज को नहीं हिंदुओं को उन शास्त्रों के झूठ-सच हवाले से सदियों से भेद-भाव के इरादे से बांटकर रखा गया है, जिन शास्त्रों की रात-दिन दुहाई देते फिरते हैं दक्षिण-विचार के सारे ‘प्रतिभावान लोग’। जातिवार जनगणना के आधार पर पहले से विभक्त समाज के एक होने की ही बेहतर संभावना बनेगी! यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ और सिर्फ न्याय और अवसर की समानता का कारगर आश्वासन ही एक होने के भरोसा का आधार बना सकता है।
सामने चुनाव और उप-चुनाव है। ‘हिंदू-मुसलमान’ और ‘हिंदुस्तान-पाकिस्तान’ राजनीतिक शब्दावली फिर से तेजी में है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं, ‘एक बनो, नेक बनो’, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’। योगी आदित्यनाथ किसके ‘एक’ होने की बात कह रहे हैं; किन शर्तों पर ‘एक’ होने की बात कह रहे हैं! ‘एक’ नहीं बनने यानी ‘नेक’ नहीं बनने पर किसके और कैसे ‘कटने’ की बात कर रहे हैं?
जाति-वर्ण व्यवस्था पर अभी कुछ दिन पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल ‘आध्यात्मिक गुरु’ आचार्य प्रमोद कृष्णम ने ‘ऊपरवाले की नजर में बने रहकर’ सवाल उछाला कि सभी मुसलमान ‘एक’ हैं, तो सभी ‘हिंदुओं’ के ‘एक’ होने में क्या बुराई है! किसलिए ‘एक’ करना चाहते हैं, क्या सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को वोट देने के लिए! यानी ध्रुवीकरण! स्थाई बहुमत! स्थाई बहुमत की लालसा लोकतंत्र के लिए प्राणलेवा होता है।
कमाल है जो काम मीडिया ‘महापुरुषों’ के बूते नहीं हुआ तो, अब मीडिया में ‘कृत्रिम कन्या’ को राहुल गांधी से सवाल करने के लिए आगे बढ़ाने का इंतजाम किया जा रहा है। सवाल बार-बार उठाने की जरूरत है और उठानेवाले पूरी ताकत से उठा भी रहे हैं।
जाति के नाम पर विभाजन क्या कांग्रेस या राजनीतिक पार्टी कर रही है या उन शास्त्रों के आधार पहले से जाति पर बंटा हुआ है, जिन शास्त्रों की ‘महानता’ की दुहाई हिंदू को एक करने के लिए कृत-संकल्प दिख रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में वोट करने के लिए ‘हिंदुओं की एकता’ की बात करनेवालों में से कोई ‘प्रतिभावान’ फुसफुसा कर ही सही, इस सवाल का जवाब तो दे!
आचार्य प्रमोद कृष्णम ‘आध्यात्मिक गुरु’ हैं उनके लिए तो अस्तित्व सिर्फ ईश्वर का ही होता है, बाकी तो माया है! ईश्वर एक है, तो सब एक है। हे ‘आध्यात्मिक गुरु’ जो पहले से एक है, उसे फिर से एक कैसे किया जा सकता है, आचार्य! ‘आध्यात्मिक गुरु’ लाख कोशिश कर लें ‘अपने अध्यात्म’ से वे मुक्त हो नहीं सकते और ‘आध्यात्मिक चाणक्य’ का कोई प्रावधान अभी तक बना नहीं है।
‘एक रहकर’ ही हजारों साल से अन्याय के शिकार बनते रहे हैं! अन्याय का शिकार ही तो ‘कटना’ है। बकवास की बड़ी समृद्ध परंपरा है! समानता और एकता में अंतर होता है। इस पर शास्त्रार्थ तो होता रहेगा मूल बात यह है कि मनुष्य को व्यवहार और अवसर की समानता का भरोसा ही एक नहीं, एक साथ करता है।
सिर्फ हिंदू ही नहीं समस्त प्राणी ही एक होता है, सवाल एक नहीं एक साथ होने का है, लेकिन वोट के लिए तो बिल्कुल नहीं! मनुष्य तो पहले से ‘एक’ होता है।
इसलिए भारत के संविधान में अवसर की समानता का कानूनी प्रावधान करता है। भारतीय जनता पार्टी और उनके समर्थकों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि व्यवहार और अवसर की समानता का भरोसा बनाये बिना हिंदुओं की एकता की राजनीति करने में लगे रहते हैं।
सत्ता-समर्थित विचार व्यवस्था में सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन के अधिकार की बात करना अपराध और हाथ पसार कर कृपा का प्रसाद पाने की दीनता में जीने को संस्कृति मानती है। यह ‘संस्कृति’ लोकतंत्र के कितना अनुकूल है, इस पर फिर कभी!
बताया गया है कि असम विधानसभा के हिंदू और मुसलमान ने माला नियम समिति (Malas Rule Committee) में फैसला किया है कि 1937 से शुक्रवार के दिन नमाज अदा करने के लिए दो घंटे के स्थगन की प्रथा अब सही नहीं माने जाने के कारण रोक दी गई है।
असम विधानसभा में नमाज के लिए दी जाने वाली दो घंटे की ब्रेक को खत्म करने की सूचना मुख्यमंत्री ने दी। विपक्षी नेताओं की असहमति पर सत्ताधारी दल के नेता कहते हैं कि तेजस्वी यादव और राहुल गांधी देश को पाकिस्तान, बांग्लादेश बनाना चाहते हैं।
एक प्रवृत्ति पर भी ध्यान देने की जरूरत है। सामाजिक संवर्ग के रूप में धनी द्विज और धनी द्विजेतर नजदीक आ रहे हैं। सामाजिक तौर पर अलग-अलग रहते हुए भी राजनीतिक रूप से पूरी तरह अभी एक नहीं हो गये हैं, लेकिन उसी दिशा में बढ़ते हुए दिख रहे हैं। निर्धन द्विज और द्विजेतर! समाज-शास्त्री ही बता सकते हैं।
अब जब राहुल गांधी की पॉपुलेरिटी बढ़ रही है, ‘महा-पुरुषों’ का पवित्र विचार है कि पॉपुलेरिटी से पावर नहीं मिलता है। विधानसभाओं और उप-चुनाव का परिणाम उन्हें सही सलाह दे सकता है कि लोकतंत्र में सत्ता की शक्ति लोकप्रियता से नहीं आती है तो किससे आती है?
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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