‘अराजनीतिक’ होने के भ्रम

किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल जिन मांगों के समर्थन में 36 दिन से भूख हड़ताल पर हैं, उनके समर्थन में आयोजित पंजाब बंद को व्यापक सफलता मिली। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इस कामयाबी का एक बड़ा कारण यह रहा कि वे किसान संगठन भी इसके पक्ष में लामबंद हुए, जो संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के दल्लेवाल- यानी अपने को अराजनीतिक कहने वाले- गुट के साथ नहीं हैं। चूंकि दल्लेवाल ने किसानों के मुद्दे पर अपनी जान दांव पर लगा दी है, इसलिए उनके प्रति समर्थन एवं आदर का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। संभवतः इसी वजह से अन्य तबकों के लोगों ने भी पंजाब बंद को अपना सकारात्मक समर्थन दिया।

दल्लेवाल एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय कृषक आयोग की सिफारिशों में शामिल फॉर्मूले के आधार पर फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने की मांग पर जोर डालने के लिए अनशन पर बैठे हैं। इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने संवेदनशीलता दिखाई, लेकिन आरंभिक सुनवाई में उसने दल्लेवाल की जान बचाने की पूरी जिम्मेदारी पंजाब सरकार पर डाल दी। जबकि संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक) की मांगें केंद्र से हैं। इस समूह ने भी कहा है कि केंद्र का हस्तक्षेप ही 70 वर्षीय किसान नेता की जान बचा सकता है। ऐसे मामलों में किसी राज्य सरकार का लाचार दिखना वाजिब ही है।

पंजाब ने राज्य में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के गठन का प्रस्ताव रखा है, ताकि राज्य स्तर पर एमएसपी का निर्धारण हो सके। लेकिन आखिरकार वहां जो भी तय होगा, उसकी सिफारिश केंद्र को ही भेजनी होगी। एमएसपी एक राष्ट्रीय मुद्दा है, जिस पर केंद्र सरकार ही फैसला कर सकती है। जहां तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का संबंध है, उसकी राय में एमएसपी का कोई मसला अब बाकी नहीं है। वह जो एमएसपी दे रही है, उसे जिस आधार पर तय किया गया, वही आखिरी फॉर्मूला है।

इसके साथ ही केंद्र ने हाल में कृषि मार्केटिंग पर राष्ट्रीय नीति ढांचे (फ्रेमवर्क) का नया प्रारूप जारी कर दिया। किसान संगठनों का आरोप है कि इसके तहत 2021 में उनके ऐतिहासिक संघर्ष से वापस हुए तीन कृषि कानूनों के कई प्रावधानों को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। (https://www.msn.com/en-in/news/world/farm-groups-oppose-draft-national-policy-framework-on-agriculture-marketing-seeks-president-murmus-intervention-to-resolve-multiple-issues/ar-AA1wwbKn?ocid=BingNewsVerp)

पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार ने भी किसान संगठनों की इस राय से इत्तेफाक जताया है। (https://indianexpress.com/article/political-pulse/punjab-centre-draft-policy-three-scrapped-laws-bhagwant-mann-government-9735437/)

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें, तो साफ होता है कि कृषि का कॉरपोटीकरण केंद्र सरकार की नीति है, जिसे वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आगे बढ़ाना चाहती है। और भी तह में जाकर देखें, तो स्पष्ट होगा कि यह असल में आज राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) का तकाजा है। किसान संगठन अगर सोचते हैं कि वे बिना इस political economy का मुकाबला किए अपनी लड़ाई जीत लेंगे, तो यह उनका भ्रम ही माना जाएगा।

राजनीतिक समझ बताती है कि ये संघर्ष सिर्फ उन तमाम तबकों की व्यापक एकता बना कर साझा संघर्ष से ही जीती जा सकती है, जो इस political economy के शिकार हैं। इस वर्ष के आरंभ में एसकेएम ने इस दिशा में पहल की थी। उसने ट्रेड यूनियनों के साथ मिल कर 14 फरवरी को भारत बंद का बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया था। लेकिन उस कार्यक्रम की चमक खुद दल्लेवाल और उनके समर्थकों ने मद्धम कर दी। तभी ये चर्चित हुआ कि एसकेएम विभाजित हो गया है और दल्लेवाल के नेतृत्व में एसकेएम (अराजनीतिक) का गठन हुआ है।

एसकेएम-ट्रेड यूनियनों के कार्यक्रम से तीन दिन पहले अराजनीतिक गुट ने दिल्ली कूच करने का कार्यक्रम शुरू कर दिया। जैसा कि One upmanship यानी दूसरे खुद को अधिक लड़ाकू दिखाने की होड़ में होता है, अराजनीतिक गुट ने अधिक उग्र रुख अपनाया। उस पर पुलिस कार्रवाई हुई। इससे ये गुट चर्चित हुआ। लेकिन इसकी ताकत वह नहीं थी, जिससे केंद्र को चिंता हो। तो दिल्ली कूच को हरियाणा में प्रवेश से पहले ही खनौरी बॉर्डर पर रोक दिया गया। वहां से गुट एक इंच भी आज तक आगे नहीं बढ़ पाया है।

इस गुट का आरोप था कि एसकेएम का नेतृत्व “राजनीति” कर रहा है। एसकेएम चुनावों में भी अपना रुख तय कर रहा था और “भाजपा हराओ” का आह्वान कर रहा था। दल्लेवाल और उनके समर्थकों को यह मंजूर नहीं था। उन्होंने कहा कि एसकेएम को किसानों की लड़ाई तक खुद को सीमित रखना चाहिए। बाकी समूहों की चिंता उसे नहीं करनी चाहिए। तो उन्होंने अपने गुट का नाम “अराजनीतिक” रखा। केंद्र ने आरंभ में इस गुट को अहमियत देकर मीडिया के जरिए यह संदेश फैलाया कि किसान आंदोलन में फूट पड़ गई है। दल्लेवाल के साथ पंजाब के किसान भी सीमित संख्या में हुए जुड़े।

ऐसे में दल्लेवाल ने व्यक्तिगत बलिदान की राह पर चलने का फैसला किया। मगर हकीकत यही है कि जब अंतर्विरोध मौजूद राजनीतिक-अर्थव्यवस्था से हो, तो उस ढांचे से प्रभावित विभिन्न वर्गों की व्यापक एकता आधारित संघर्ष के अलावा किसी अन्य तरीके से लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। इसे व्यक्तिगत बलिदान या सरकार पर नैतिक दबाव बना कर हासिल करने की सोच भ्रामक है।

सभी किसान गुटों के सक्रिय होने से पंजाब बंद को मिली बड़ी सफलता के बाद अब बेहतर होगा कि अराजनीतिक गुट इसे स्वीकार करे कि वह सीमित समर्थन और छोटी शक्ति के साथ खड़ा है। ऐसे में उसकी मांगों को नजरअंदाज करना सरकार के लिए और भी आसान बना हुआ है। केंद्र यही कर भी रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने अच्छी मंशा के साथ दखल दिया, लेकिन दल्लेवाल को जबरन अस्पताल में भर्ती कराने के अलावा वह और क्या आदेश दे सकता है? नीतिगत मामलों पर सरकार को आदेश देना तो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। पंजाब सरकार ने कहा है कि अनशन स्थल पर जिस तरह किसानों का जमावड़ा है, उसे देखते हुए दल्लेवाल को जबरन अस्पताल ले जाना उसके लिए आसान नहीं है। पंजाब सरकार की मजबूरी समझी जा सकती है।

अब अराजनीतिक गुट ने चार जनवरी को किसान पंचायत बुलाई है। पंचायत के लिए बुद्धिमानी का फैसला यह होगा कि वो दल्लेवाल से अनशन खत्म करने का आग्रह करे। वह उन्हें समझाने की कोशिश करे कि ऐसी लड़ाइयां ठोस वैचारिक समझ और व्यावहारिक रणनीति के जरिए लड़ी जाती हैं। हठ की रणनीति आत्म-हानि का सबब बनती है।

और इस प्रकरण से देश के दूसरे संघर्षरत समूह भी सबक ले सकते हैं। फिलहाल एक लड़ाई पटना की सड़ों पर चल रही है। बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) की संयुक्त (प्रारंभिक) परीक्षा में शामिल हुए छात्र दोबारा इम्तिहान की मांग को लेकर अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं। यह स्थिति क्यों आई है, उसके कारणों को समझना बेहद जरूरी है।

पहली बात यह कि उत्तरी राज्यों में सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए होने वाली तमाम परीक्षाओं की साख संदिग्ध हो चुकी है। पेपर इतनी बार लीक हुए हैं या गड़बड़ियों के आरोप में इन्हें इतनी बार अदालतों ने रद्द किया है कि परीक्षाओं को लेकर अविश्वास का माहौल बना हुआ है। इसलिए बिहार में हालिया परीक्षा को लेकर संदेह फैला, तो बीपीएससी के परीक्षार्थी स्वाभाविक रूप से आशंकित हो गए।

दूसरा अहम पहलू यह है कि भारत में अच्छे रोजगार के अवसर बेहद सिकुड़ चुके है। इस कारण सीमित संख्या में उपलब्ध सरकारी नौकरियां ही स्थिर करियर का एकमात्र आश्वासन रह गई हैं। बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां निजी कारोबार में सम्मानजनक काम पाने की गुंजाइशें बेहद सीमित हैं, वहां इन नौकरियों को लेकर मारामारी मचने की मिसालें और भी ज्यादा देखने को मिल रही हैं। इसीलिए बीपीएससी की परीक्षा पर से संदेह का साया हटे, इसे सुनिश्चित करना छात्रों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है।

बीपीएससी परीक्षार्थियों को पेपर लीक होने का शक है। इसके अलावा छात्रों ने परीक्षा में कई दूसरी तरह की गड़बड़ियों के आरोप भी लगाए हैं। इनमें प्रश्न पत्र के स्तरहीन होने और कोचिंग संस्थानों के मॉडल सवालों के मेल खाने के इल्जाम शामिल हैं। आरोप है कि कई केंद्रों पर सीसीटीवी कैमरा और जैमर काम नहीं कर रहे थे। कुछ केंद्रों पर प्रश्न पत्र देरी से वितरित किए गए। 

गौरतलब है कि परीक्षा से कुछ समय पहले भी ये छात्र पटना में इकट्ठा हुए थे। तब उनकी मांग थी कि सारे राज्य में एक ही दिन, एक ही समय, और एक ही प्रकार के प्रश्न पत्र पर इम्तिहान लिया जाए। उनके विरोध को देखते हुए अलग-अलग केंद्रों पर अलग परीक्षा आयोजित करने का इरादा बिहार लोक सेवा आयोग ने तब टाल दिया था। मगर परीक्षा के बाद दूसरे संदेह खड़े हुए।

यहां भी छात्र टीवी चैनलों पर यह कहते सुने गए हैं कि उनका संघर्ष ‘अराजनीतिक’ है। इसलिए जब एक वक्ता ने बिहार में गिरे पुलों और जीडीपी गिरने का जिक्र किया, तो छात्रों के एक समूह ने उसे वहीं रोक दिया। कहा कि वे ‘राजनीति’ ना करें। यह बात इन छात्रों की सोच से बाहर है कि बीपीएससी परीक्षा से उनकी ‘तकदीर’ इसीलिए इतनी  जुड़ गई है, क्योंकि अन्यत्र अवसरों का अभाव है। इस स्थिति के लिए देश की मौजूदा political economy ही जिम्मेदार है। मगर छात्र वहां तक नहीं जाना चाहते। वे सिर्फ अपनी समस्या का हल चाहते हैँ।

इस बिंदु पर ये छात्र और एसकेएम का दल्लेवाल गुट एक ही धरातल पर खड़े नजर आएंगे। मगर यह धरातल भुरभुरा है। इस पर चलते हुए बहुत आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं है। यह गुंजाइश तब बनेगी, जब ये समूह ‘राजनीतिक’ रुख लेंगे और ‘राजनीति’ करेंगे। इसके बिना सारी लड़ाइयां डेड-एंड यानी बंद गली में होने वाली यात्रा बनी रहेंगी। यानी ऐसी गली, जो कहीं नहीं पहुंचती।      

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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