स्वतंत्रता दिवस विशेष-2: खतरे में है आज़ादी, लोकतंत्र और संविधान?

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इतिहास की इस सांप्रदायिक व्याख्या को उन हिंदुओं और मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया जिनका दृष्टिकोण सांप्रदायिक था और जो यह मानते थे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं और वे कभी एक साथ नहीं रह सकते। यहां इस तथ्य को रेखांकित करने की ज़रूरत है कि केवल मुस्लिम लीग ही नहीं हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इस द्विराष्ट्र सिद्धांत में यकीन करते थे। जबकि कांग्रेस जो स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी, राष्ट्र को धर्म के आधार पर परिभाषित करने के सिद्धांत के विरुद्ध थी। हमारे आज़ादी के आंदोलन का यह आंतरिक संघर्ष था जिसका नतीजा देश के विभाजन में निकला और इसी सांप्रदायिक दृष्टिकोण से प्रेरित नाथूराम गोडसे के हाथों आज़ादी के आंदोलन के सबसे महान नायक महात्मा गांधी मारे गये। नाथूराम गोडसे का संबंध हिंदू महासभा से भी था और आरएसएस से भी।

आज़ादी के आंदोलन का दूसरा अंतर्विरोध वर्णव्यवस्था और जातिवाद था। उन्नीसवीं सदी में समाज सुधार के जो आंदोलन चले उसने जातिवाद पर भी प्रहार किया। राजा राममोहन राय से लेकर विवेकानंद तक ने किसी न किसी रूप में जाति व्यवस्था की मुखालफत की लेकिन जातिवाद पर निर्णायक प्रहार उन समाज सुधारकों और चिंतकों ने किया जो समाज के दलित वर्ग से आये थे। ज्योतिबा फुले और बाबा साहब अंबेडकर उनमें प्रमुख थे। इन समाजों से आये नेताओं ने आज़ादी के आंदोलन के नेताओं के सामने यह उचित सवाल रखा कि अगर देश आज़ाद हुआ तो क्या दलितों के साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार होगा जैसा सदियों से होता आया है। क्या उन्हें भी बराबरी का अधिकार मिलेगा। ये ऐसे सवाल थे जिनका उत्तर आज़ादी के संघर्ष को देना ज़रूरी था।

1932 में अंबेडकर और गांधी के बीच जो समझौता हुआ उसने इस बात को रेखांकित कर दिया कि आज़ाद भारत में दलित समुदायों के साथ सदियों से चला आ रहा अमानुषिक भेदभाव समाप्त किया जाना ही जरूरी नहीं है बल्कि नागरिकता के उन सभी अधिकारों की संवैधानिक गारंटी देनी होगी जिनसे अबतक उन्हें वंचित रखा गया है। आज़ादी के आंदोलन ने इस बात का एहसास भी कराया कि अगर एक समतावादी समाज बनाया जाना है तो जो वर्ग और समुदाय पिछड़े रह गये हैं उनके लिए विशेष प्रयत्न करने होंगे। आरक्षण व्यवस्था उन्हीं में से एक प्रयत्न है।

भारत से अलग होकर जो पाकिस्तान बना उसने एक धार्मिक राज्य बनने का फैसला किया लेकिन भारत ने दूसरा मार्ग चुना। 1946 में जो संविधान सभा गठित की गयी उसमें बीआर अंबेडकर को भी शामिल किया गया और उन्हें उस समिति का अध्यक्ष बनाया गया जिसका दायित्व संविधान का प्रारूप तैयार करना था। अंबेडकर आधुनिक विचारों में यकीन करने वाले महान चिंतक थे। गांधी, नेहरू आदि की तरह वे भी धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और समानता में यकीन करते थे। वे भी चाहते थे कि देश के संविधान का आधार धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय हो। इन्हीं मूलभूत सिद्धांतों पर संविधान का प्रारूप तैयार किया गया और जिसे विस्तृत बहस के बाद संविधान सभा ने स्वीकार किया।

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ भारत ने अपने को संप्रभु धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया। यह भारतीय इतिहास में एक नये युग की शुरुआत थी। जिस संविधान के अंतर्गत भारत धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र बना, उसमें सर्वोच्च सत्ता स्वयं भारत की जनता थी जिसने अपने को यह संविधान प्रदान किया था। संविधान की नज़र में प्रत्येक भारतीय नागरिक चाहे उसका धर्म, उसकी जाति, उसकी नस्ल, उसकी भाषा कुछ भी क्यों न हो, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष या वह हिंदुस्तान के किसी भी इलाके का रहने वाला क्यों न हो, सब बराबर थे और सबको समान अधिकार हासिल थे। स्वतंत्रता, समानता और पारस्परिक भाईचारे के सिद्धांत पर इस लोकतांत्रिक गणतंत्र की नींव रखी गयी थी, जिसकी सबसे बड़ी पहचान धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावादी संस्कृति थी।

लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि भारत का संविधान जिन मूल्यों पर टिका था, भारतीय समाज वैसा नहीं था। सामंती और औपनिवेशिक दौर की विकृतियां भारतीय समाज में बहुत गहरे रूप में धंसी हुई थीं। जीवन के हर क्षेत्र में विषमता व्याप्त थी। जाति, धर्म, भाषा, लिंग और क्षेत्र के आधार पर हर स्तर पर भेदभाव व्याप्त था। आर्थिक विषमता के कारण जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित था। अशिक्षा, अंधविश्वास और असमानता के विरुद्ध हर स्तर पर संघर्ष करने की ज़रूरत थी। यह सिर्फ़ सरकारी आदेशों और नीतियों से ही संभव नहीं था। इसके लिए व्यापक जन अभियान की ज़रूरत थी। यह इसलिए भी ज़रूरी था कि इसी के द्वारा हम एक देश के रूप में अपने को एकजुट रख सकते थे और तरक्की भी कर सकते थे।

1947 में जब देश आज़ाद हुआ तब राष्ट्र का नवनिर्माण सबसे बड़ा प्रश्न था। उस दौर में इस बात को गहराई से महसूस किया गया था कि शांति, सद्भाव, भाईचारा और पारस्परिक सहयोग द्वारा ही देश का निर्माण और प्रगति संभव है। लेकिन यह भी सच्चाई थी कि नवनिर्माण के मार्ग में आने वाली बाधाएं और समस्याएं भी कम नहीं थी। दरअसल, आज़ादी के बाद के दो दशकों को हम तभी सही ढंग से समझ सकते हैं जब हम उसे गांधी-नेहरू-अंबेडकर-भगतसिंह विचारधारा के संदर्भ में समझने का प्रयास करें।

संविधान निर्माण के संदर्भ में ही नहीं भारत के नवनिर्माण के संदर्भ में भी यह विचारधारा सबसे व्यापक और गहरे असर को दर्शाती है। इन राष्ट्रीय नेताओं के विचार बहुत से मामलों में एक-दूसरे से भिन्न थे, लेकिन वे अपने को लोकतांत्रिक विचारधारा के दायरे में ही बनाये रखते हैं, जिसमें उनका बल एक आधुनिक, उदार, समतावादी, धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी समाज बनाने पर है। इस विचारधारा का मुख्य विरोध सांप्रदायिक तत्त्ववाद और ब्राह्मणवादी मनुवाद से भी था और आज भी है।

आज़ाद भारत में उन्नति और विकास के नये-नये रास्ते खुल रहे थे, लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसा घटित हो रहा था, जो चिंतनीय था, जो भविष्य के प्रति आशंकाएं पैदा कर रहा था। इस दौर का शासक वर्ग चाहता था कि जनता अपनी दयनीय हालत से मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग न चुनकर वर्ग सहयोग का मार्ग चुने। वह इस बात को समझे कि उसके पास वोट देने की जो शक्ति है उससे वह ऐसे शासकों को सत्ता पर बिठा सकती है जो उनके हितों के प्रति ईमानदार हो और उसकी प्रगति के लिए निष्ठापूर्वक काम करे।

लेकिन उन सभी राजनीतिक पार्टियों ने जो इस बात में यकीन करती थी कि पूंजीवाद से देश की प्रगति मुमकिन है, उन्होंने सत्ता में आने या बने रहने के लिए जाति और धर्म का खुलकर इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे उन्होंने इस बात को समझ लिया था कि जनता के वास्तविक हितों के लिए काम करने की बजाय जाति और धर्म के आधार पर उनके वोट हासिल कर सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है।

जवाहर लाल नेहरू जैसे नेता जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में गहरी आस्था रखते थे और इस खतरे को जानते थे कि आरएसएस और भारतीय जनसंघ जैसे संगठन देश की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक हैं क्योंकि वे बहुसंख्यक हिंदुओं का समर्थन हासिल कर लोकतंत्र का खात्मा कर सकते हैं और फासीवादी सत्ता कायम कर सकते हैं। लेकिन उनका यह विश्वास था कि जनता धर्मनिरपेक्षता के मार्ग पर चलते हुए इन सांप्रदायिक संगठनों को कभी इतना ताकतवर नहीं बनने देगी कि वे सत्ता पर काबिज हो सकें। नेहरू यह नहीं देख सके कि स्वयं उनकी पार्टी में ऐसे तत्व काफी बड़ी तादाद में थे जिनकी सोच न केवल दक्षिणपंथी बल्कि सांप्रदायिक भी थी।

आज़ादी के बाद देश के नवनिर्माण की चुनौतियां और उसको लेकर उम्मीदों की अभिव्यक्ति नेहरू युग की समाप्ति के साथ-साथ कमजोर पड़ने लगी थी। पूंजीवादी विकास के जिस रास्ते पर देश चल रहा था, उससे भारतीय पूंजीपति वर्ग मजबूत होने लगा था। उसके लिए अब किसी तरह के आदर्शवाद की ज़रूरत नहीं थी। इस बात को धीरे-धीरे भुलाया जा रहा था कि यह आज़ादी कितने लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद हासिल हुई है। यही नहीं देश को एकजुट रखने के लिए सांप्रदायिक और सवर्णपरस्त जातिवादी पूर्वाग्रहों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष करने की ज़रूरत को भी अनदेखा कर दिया गया।

संविधान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की जो बात कही गयी वह कभी भी हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग नहीं बन सकी। नतीजतन आरएसएस जैसा फासीवादी संगठन जिसे आज़ादी के बाद भी काम करने की छूट दे दी गयी थी, जनता के बीच सांप्रदायिक और जातिवादी ज़हर फैलाने के अपने अभियान को बिना किसी डर के चलाती रही और हिंदू जनता के बीच अपनी जड़ें मजबूत करती गयी। अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने इसको अनदेखा ही रहने दिया।

1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो उनकी छवि तानाशाह की बन गयी। उस समय देश में जो कुछ भी हो रहा था, उसके लिए वे ही जिम्मेदार लगती थीं। इसलिए कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना लोकतंत्र की रक्षा के लिए ज़रूरी लगता था। इसलिए जब आपातकाल हटाकर कांग्रेस ने चुनाव कराने का फैसला लिया और कांग्रेस को परास्त करने के लिए जब सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर एक पार्टी बनाने पर एकमत हुए तो उनका यह फैसला सही लगा। लेकिन उस समय इस बात की अनदेखी की गयी कि जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ भी शामिल हुई है जिसकी बुनियादी आस्था आरएसएस में है और आरएसएस न लोकतंत्र में यकीन करता है और न संघात्मक गणराज्य (फेडेरल रिपब्लिक) में।

दरअसल 1967-68 से ही कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों ने भारतीय जनसंघ के साथ गठबंधन की शुरुआत कर दी थी। इस तरह एक फासीवादी-मनुवादी संगठन को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान कर दी गयी। 1977 में जनता पार्टी सत्ता में तो आ गयी लेकिन वह ज्यादा समय तक सत्ता में नहीं रह सकी। भारतीय जनसंघ भी जनता पार्टी से अलग हो गयी और उसने एक नये नाम भारतीय जनता पार्टी के साथ अपने को पुनर्गठित कर लिया। लेकिन अल्प समय में सत्ता में रहने का लाभ यह हुआ कि प्रशासन में वह घुसपैठ करने में कामयाब हुई।

1980 में इन्दिरा गांधी की राजसत्ता में वापसी हो गयी लेकिन सांप्रदायिकता के विरुद्ध उसका संघर्ष पहले की अपेक्षा कमजोर पड़ चुका था। 1980 के बाद देश के कई भागों में सांप्रदायिक दंगे हुए मुरादाबाद, नैली, भागलपुर में हुए दंगे दरअसल दंगे नहीं थे, मुसलमानों का बड़े पैमाने पर नरसंहार था। 1980 के बाद खालिस्तान की मांग करते हुए आतंकवाद की जो लहर उभरी और जिसके कारण पंजाब, दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में निरपराध लोगों पर हमले किये गये। सिख उग्रवादियों ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर कब्जा कर लिया और उसे खाली कराने के लिए जो सैनिक कार्रवाई की गयी उस दौरान सैकड़ों निर्दोष लोग भी मारे गये।

इसका बदला लेने के लिए 31 अक्टूबर 1984 को इन्दिरा गांधी की हत्या कर दी गयी। इसके बाद हुए सिख विरोधी दंगों में पांच हजार लोग मारे गये। हालांकि इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को भारी कामयाबी मिली। लेकिन यह कामयाबी हिंदू प्रतिक्रिया का नतीजा थी। आरएसएस ने इस बात को समझ लिया कि अगर हिंदू जनता को सांप्रदायिक आधार पर भड़काया जाय तो वे भी सत्ता पर काबिज हो सकते हैं। रामजन्म भूमि आंदोलन का मकसद आरएसएस का सत्ता हथियाना था।

कांग्रेस नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा शुरू से ही घोर दक्षिणपंथी ही नहीं था, बल्कि संघ परिवार के साथ सहानुभूति रखने वाला भी था। इसी हिस्से ने 1949 में बाबरी मस्जिद में राम की मूर्तियां रखवाने में भूमिका निभायी थी। इसी ने बाद में शिलान्यास भी करवाया था और बाद में इसी हिस्से ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को होने दिया था। कांग्रेस और भाजपा के बीच फर्क यही था कि कांग्रेस सत्ता में रहने के लिए सांप्रदायिकता के प्रति नरम रुख अपनाती थी, जबकि भाजपा इस देश की धर्मनिरपेक्षता और बहुसांस्कृतिकता की परंपरा को ध्वंस कर बहुसंख्यकवाद पर आधारित ब्राह्मणवादी हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती थी।

बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि आंदोलन ने भारतीय राजनीति को निर्णायक रूप से बदल डाला। चुनावों में भाजपा का समर्थन लगातार बढ़ता गया। ज़रूरत इस बात की थी कि अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियां एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध संघर्ष करतीं ताकि जनता के बीच उसके समर्थन को नियंत्रित किया जा सके। लेकिन इसके विपरीत बहुत सी पार्टियां राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अवसर मिलते ही भाजपा के साथ गठबंधन करने में नहीं हिचकिचाती थी। 1998 में जब पहली बार भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी तब उसको समर्थन देने वाली कई और पार्टियां भी थीं। 1999 में यह समर्थन और बढ़ा जिसके कारण भाजपा लगातार पांच साल तक केंद्र में सत्तासीन रही।

आपातकाल के बाद से वामपंथी पार्टियों की नीति यही रही कि किसी भी तरह कांग्रेस और भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। लेकिन वे यह नहीं देख पाये कि सत्ता से बाहर रहकर भी सत्ता से नजदिकियों का लाभ भाजपा को लगातार मिलता रहा। शायद इसका कारण यह था कि वे अब भी कांग्रेस और भाजपा का मूल्यांकन एक ही तरह से कर रहे थे। तानाशाही प्रवृत्ति की पार्टी (कांग्रेस) और फासीवाद पार्टी (भाजपा) के बीच के अंतर को वे तब तक नहीं समझ पाये जब तक कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस नहीं हो गया।

पिछले तीन दशकों में सांप्रदायिकता के उभार ने देश के माहौल को बिगाड़ने में अहम भूमिका निभायी है। 6 दिसंबर, 1992 को संविधान को धता बताते हुए आरएसएस के स्वयंसेवकों ने चार सौ साल पुरानी बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद मुंबई और दूसरे शहरों में हिंसक कार्रवाइयां हुईं। इन घटनाओं ने मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा की। जहां भी वे अल्पसंख्यक थे, उन्हें मुख्यधारा से अलगाने की प्रक्रिया तेज हो गयी। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। इसी दौरान कश्मीर के हालात बिगड़ते चले गये। कश्मीर और देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी कार्रवाइयां बढ़ गयीं।

2002 में गोधरा की घटना और उसके बाद गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार ने हालात को और अधिक बिगाड़ा जिसका पूरा लाभ उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी लगातार ताकतवर होती गयी और नतीजतन 2014 से यह पार्टी एक बार फिर से केंद्र में सत्ता में है। भारतीय जनता पार्टी के मजबूत होने का अर्थ केवल एक सांप्रदायिक पार्टी का मजबूत होना ही नहीं है। वह एक ब्राह्मणवादी-मनुवादी पार्टी भी है जो संविधान प्रदत्त समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों में विश्वास नहीं करती।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह दौर आज़ादी के बाद का सबसे संकटपूर्ण और चुनौती भरा दौर है। धर्म के नाम पर जिस तरह एक पूरे वर्ग को देश के दुश्मन की तरह पेश किया जा रहा है और उन्हें संविधान में मिले नागरिक अधिकारों से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील किया जा रहा है, वह इस राजसत्ता के फ़ासीवादी चरित्र का ही प्रमाण है। भारत का यह फ़ासीवाद अपने चरित्र में अति दक्षिणपंथी भी है और ब्राह्मणवादी भी। मौजूदा राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष उन सब भारतीयों का कर्त्तव्य है जो भारतीय संविधान में यक़ीन करते हैं और जो भारत की बहुविध धार्मिक, जातीय, भाषायी और सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखना चाहते हैं क्योंकि असली भारत इसी परंपरा में निहित है जिसे हिंदुत्वपरस्त ताक़तें ख़त्म करना चाहती हैं’।

मौजूदा राजसत्ता के चरित्र को समझने के लिए आरएसएस की विचारधारा को समझना जरूरी है। वे अपनी राजनीतिक विचारधारा को हिंदुत्व नाम देते हैं। यह विचारधारा उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर से ग्रहण की थी जिन्होंने 1923 में ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखी थी। आरएसएस ने अपने इस राजनीतिक उद्देश्यों को कभी छुपाया नहीं। इस संगठन के दूसरे सरसंघचालक एम एस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड’ में उन्होंने जो विचार पेश किये उसके पीछे फासीवाद और नाज़ीवाद का प्रभाव भी था।

इस पुस्तक में गोलवलकर यह प्रश्न उठाते हैं कि ‘अगर निर्विवाद रूप से हिंदुस्थान हिंदुओं की भूमि है और केवल हिंदुओं ही के फलने-फूलने के लिए है, तो उन सभी लोगों की नियति क्या होनी चाहिए जो इस धरती पर रह रहे हैं, परंतु हिंदू धर्म, नस्ल और संस्कृति से संबंध नहीं रखते’ (गोलवलकर की हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा : एक आलोचनात्मक समीक्षा, शम्सुल इस्लाम, फारोस, नई दिल्ली, पृ. 199)।

स्वयं द्वारा उठाये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे लिखते हैं कि ‘वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं, राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते। वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें। राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा एवं संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें। जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतरों को बनाये रखते हैं, वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रवत हो सकते हैं या शत्रुवत्त’ (वही, 199)।

गोलवलकर की इन बातों का अर्थ यही है कि भारत केवल हिंदुओं का राष्ट्र् है और बाकी सभी धार्मिक और नस्ली समुदाय विदेशी हैं। वे भारत में रह सकते हैं लेकिन जब वे ‘अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें’ और ‘खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि ‘अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर, सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक़ नहीं होगा’ (वही, पृ. 201-202)।

अगर वे अपने को राष्ट्रीय नस्ल में समाहित नहीं करते हैं तो ‘जब तक राष्ट्रीय नस्ल उन्हें अनुमति दें वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं’। स्पष्ट है कि आरएसएस के अनुसार हिंदू राष्ट्र में गैरहिंदुओं विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को नागरिकता के वे अधिकार नहीं मिल सकते जो हिंदुओं को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होंगे। यानी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा। यह संयोग नहीं है कि आरएसएस ने अपनी प्रेरणा फासीवाद और नाजीवाद से ग्रहण की है। इस पुस्तक में गोलवलकर ने अल्पसंख्यकों के प्रति जर्मनी और इटली ने जो रवैया अपनाया, उसकी न केवल प्रशंसा की बल्कि उसे अनुकरणीय भी माना।

भाजपा जिस आरएसएस का हिस्सा है और उसी की विचारधारा इसका राजनीतिक आधार है, वह न संविधान में यकीन करती है और न ही संघात्मक गणराज्य में। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ (बंच ऑफ थॉट्स) में संविधान पर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा था, ‘हमारा संविधान पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों में से लिए गए विभिन्न अनुच्छेदों का एक भारी-भरकम तथा बेमेल अंशों का संग्रह मात्र है। उसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जिसको कि हम अपना कह सकें। उसके निर्देशक सिद्धांतों में क्या एक भी शब्द इस संदर्भ में दिया है कि हमारा राष्ट्रीय-जीवनोद्देश्य तथा हमारे जीवन का मूल स्वर क्या है? नहीं’ (विचार नवनीत, ज्ञानगंगा, जयपुर, 1997, पृ. 237)।

संघ और भाजपा अकेले ऐसे संगठन हैं जो संघात्मक गणराज्य में यकीन नहीं करते। गोलवलकर ने लिखा था, ‘आज की संघात्मक (फेडेरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण और पोषण करने वाली, एक राष्ट्रभाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटा कर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्म शासन प्रस्थापित हो’ (समग्र दर्शन, खंड-3, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृ. 128)।

भारतीय संविधान के मूल में यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं का संघ है क्योंकि भारत विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रीय भिन्नताओं और सांस्कृतिक बहुलताओं वाला देश हैं। इन भिन्नताओं को स्वीकार करके ही उनके बीच एकता की स्थापना की जा सकती है। इसीलिए भारत की संकल्पना संविधान निर्माताओं ने लोकतांत्रिक संघात्मक गणराज्य के रूप में की थी। इसके विपरीत आरएसएस भारत को हिंदुओं का ही देश मानता है और अन्य धर्मावलंबियों को या तो हिंदुओं में ही समाहित करता है या उन्हें विदेशी मानता है इसलिए वह एक राष्ट्र्, एक धर्म, एक नस्ल, एक जाति की बात करता है। स्वयं आरएसएस का उद्देश्य, ‘एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्ज्वलित कर रहा है’ (समग्र दर्शन, खंड-1, पृ. 11)। नरेंद्र मोदी के शासन काल में जो बदलाव हो रहे हैं उनको हम तभी समझ सकते हैं जब आरएसएस की उपर्युक्त विचारधारा को ठीक से समझें।

भारतीय जनता पार्टी (जिसका पहले नाम भारतीय जनसंघ था) जब-जब सत्ता में आयी है, चाहे राज्यों में या केंद्र में उसने उस दिशा में लगातार कदम उठाये जो आरएसएस की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा के पक्ष में जाते हैं। लेकिन 2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी है, हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ी है। लेकिन इस काम में सफलता तभी हासिल हो सकती है जब व्यापक हिंदू जनता का समर्थन उसे मिले। इस दिशा में तो आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठन ज़मीनी स्तर पर हमेशा काम करते रहे हैं लेकिन सत्ता में आने पर वे पूरे सरकारी तंत्र का भी निर्लज्जतापूर्वक अपने लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इनमें पाठ्यक्रमों में फेरबदल, हिंदुत्वपरस्त सांप्रदायिक इतिहास लेखन और अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए सिनेमा सहित मीडिया का इस्तेमाल शामिल हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है कानूनों में बदलाव।

भारतीय जनता पार्टी अपने घोषणापत्रों में तीन लक्ष्यों को बारबार दोहराती रही है। पहला, कश्मीर से धारा 370 हटाना, दूसरा, समान नागरिक संहिता लागू करना और तीसरा अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। नरेंद्र मोदी के शासन काल में कश्मीर से धारा 370 हटायी जा चुकी है, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण चल रहा है और जनवरी, 2024 में मंदिर के द्वार भी खुल जायेंगे और समान नागरिक संहिता के बारे में मध्य प्रदेश की एक सभा में बोलकर इस संबंध में अपने इरादे जाहिर कर चुके हैं और इसे राजनीतिक विमर्श के केंद्र में ला दिया गया है।

जिस दौर में सांप्रदायिक राजनीति का तेजी से फैलाव और उभार हो रहा था, उसी दौर में भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दक्षिणपंथी करवट ले रही थी। कह सकते हैं कि इस दौर में पूंजीवादी व्यवस्थाओं का विस्तार हुआ है, उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान बढ़ा है और जो और जिस तरह की भी वैकल्पिक व्यवस्थाएं थीं, वे या तो ढह गयी हैं, या कमजोर हुई हैं। इस दौर की तीन पहचानें हैं, निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण। इसी दौर की उपज आतंकवाद भी है। आतंकवाद को विश्वव्यापी और खतरनाक बनाने में यदि अमरीका की नवसाम्राज्यवादी नीतियां जिम्मेदार हैं, तो उस प्रौद्योगिकी का भी हाथ है जो नवीनतम हथियारों और संचार प्रौद्योगिकी के रूप में सामने आये हैं।

भारत में आतंकवाद कई रूपों में सक्रिय है। लेकिन मीडिया आमतौर पर कथित रूप से जिहादी या इस्लामी आतंकवाद को ही अपने हमले का निशाना बनाता रहा है। आतंकवाद यदि एक ओर देशभक्ति की भावनाओं को भुनाने का जरिया बनता है, तो दूसरी ओर, यह मीडिया को एक बहुत ही उत्तेजनापूर्ण और रोमांचकारी विषयवस्तु भी प्रदान करता है। मीडिया दर्शकों के इस राजनीतिक दुराग्रह को मजबूत करता है कि ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’ जबकि हिंदूत्वपरस्त आतंकवाद भी अपने खूंखार रूप में सामने आ चुका है। यहां यह नहीं भुला जाना चाहिए कि गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार और बाबरी मस्जिद का विध्वंस, उड़ीसा, कर्नाटक आदि में ईसाइयों पर हमले भी आतंकवाद ही है।

नरेंद्र मोदी के शासनकाल में मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या, उनके घरों पर बुलडोजर चलवाना और उन्हें निरपराध होते हुए भी गिरफ्तार करके लंबे समय के लिए जेल भेज देना भी आतंकवाद ही है। मणिपुर में पिछले तीन महीने से कुकी आदिवासी समूह और मैतेई लोगों के बीच गृह युद्ध की सी स्थिति बनी हुई है। सत्ता समर्थक मैतेई समूहों (जो अधिकतर हिंदू हैं और बताया जाता है कि आरएसएस उनके बीच सक्रिय है) द्वारा कुकी अल्पसंख्यकों (जो अधिकतर ईसाई हैं) पर हिंसक हमले किये जा रहे हैं, वह भी एक तरह का आतंकवाद ही है। अब तक 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लगभग 6000 घरों को जलाया जा चुका है। लगभग 250 चर्च नष्ट किये गये हैं। 60 हजार लोग विभिन्न शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हैं। हजारों की संख्या में हथियार लूटे जा चुके हैं। कई महिलाओं को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया है। इतनी भयावह स्थिति के बावजूद प्रधानमंत्री ने न मणिपुर जाना जरूरी समझा और न वहां शांति स्थापित करने के लिए कोई कदम उठाया है।

इन दस सालों में मनुवादी, दलितविरोधी, पितृसत्तावादी, मुस्लिम-विरोधी, हिंदुत्वपरस्त ताक़तों को अच्छी तरह से एहसास हो चुका है कि यह राजसत्ता उनकी है। यह अकारण नहीं है कि इन दस सालों में लगातार मुसलमानों पर ही नहीं महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अन्य कमज़ोर वर्गों पर हमले बढ़े हैं। शिक्षा संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण लगातार कम किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के बेचने की मुहिम का नतीजा है कि इन सभी कमज़ोर वर्गों के रोज़गार के रास्ते लगातार बंद होते जा रहे हैं।

लेकिन इन सबसे अधिक खतरनाक है, कानूनों में ऐसे बदलाव जिसके कारण जहां एक ओर मुसलमानों को संविधान में मिली समानता और स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है, तो दूसरी ओर आम भारतीय नागरिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं उनमें भी कटौती की जा रही है। इसके साथ ही पिछले दस सालों में संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है।

5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी ने संवैधानिक प्रक्रियाओं को धता बताते हुए जम्मू और कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देने वाले आर्टिकल 370 के उन प्रावधानों को हटा दिया है जो भारत के साथ उसके विलय के समय संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किये गये थे। आर्टिकल 370 के इन प्रावधानों को हटाये जाने से पहले भी और आज भी जम्मू और कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग था और है। लेकिन अब वह राज्य नहीं रह गया है बल्कि इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बदल दिया गया है। जम्मू और कश्मीर ऐसा केंद्रशासित प्रदेश होगा जिसमें एक विधानसभा तो होगी लेकिन जिसे वे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे जो पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्यों को प्राप्त होते हैं।

जम्मू और कश्मीर के उपराज्यपाल की सलाह और स्वीकृति के बिना वहां का मंत्रिमंडल कोई काम नहीं कर सकेगा। लद्दाख भी केंद्र शासित प्रदेश होगा लेकिन उसकी कोई विधान सभा नहीं होगी और वह सीधे केंद्र द्वारा ही शासित होगा। इस तरह जम्मू और कश्मीर राज्य को जो स्वायत्तता प्राप्त थी उसने सिर्फ वही नहीं खो दी है बल्कि उसे वह स्वायत्तता भी नहीं मिली है जो अन्य पूर्ण राज्यों को प्राप्त है। केंद्र को आज की तरह वहां सेना, अर्धसैनिक बल तैनात करने का ही अधिकार नहीं होगा बल्कि वहां की पुलिस भी पूरी तरह केंद्र के नियंत्रण में होगी। निश्चय ही यह विलय के समय हुए समझौते और संविधान सभा द्वारा किये गये प्रावधानों का उल्लंघन है। ये प्रावधान क्या है जिसे खत्म करना इतना जरूरी समझा गया और इन्हें समाप्त करने के बाद ही यह माना जा रहा है कि अब जम्मू और कश्मीर भारत का वास्तव में अंग बना है।

गौरतलब है कि एक अलग झंडा होने से या विधानसभा का कार्यकाल पांच वर्ष की जगह छह वर्ष होने से या वहां जम्मू और कश्मीर के बाहर के लोग जमीन न खरीद सकने के प्रावधान से वह भारत का कम अभिन्न अंग नहीं था तो फिर भारत के कई राज्यों में विशेष रूप से उत्तर-पूर्व के राज्यों को जो विशेष दर्जा प्राप्त है उनकी वजह से क्या वे भारत के अभिन्न अंग नहीं हैं। सिक्किम की विधानसभा का कार्यकाल सिर्फ चार साल का है।

इसी तरह हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तर पूर्व के सभी राज्यों में कोई बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड आदि राज्यों में किसी अन्य राज्य के नागरिक को वहां जाने के लिए अनुमति पत्र लेने की जरूरत होती है। जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख के भारत में पूर्ण विलय का चाहे जो दावा किया जा रहा हो, लेकिन पिछले चार सालों में वहां चुनाव का न होना बताता है कि सब कुछ सही नहीं है।

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद हिंदुओं को एकजुट करना है ताकि वे एकजुट होकर भाजपा को वोट दें। उनके और मुसलमानों में इस हद तक विभाजन पैदा करना है जिससे न केवल हिंदू एकजुट हों बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग भी किया जा सके। चाहे मसला, गौमांस या गौ-तस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर लें। उनका मकसद यह भी है कि वे हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत और घृणा भर दें (और भय भी) कि वे उनका अपने आसपास होना भी बर्दाश्त न कर सकें और मौका लगते ही उनके प्रति हिंसक हो जाएं।

हिंदू यह मानने लगे कि मुसलमान उनके लिए वैसे ही बोझ हैं जैसे हिटलर की जर्मनी में यहूदी। उनकी समस्त परेशानियों का कारण मुसलमान ही है। इसलिए मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध, अपराध की श्रेणी में नहीं आता। प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा और संघ का कोई नेता ऐसे हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार द्वारा कोई कदम उठाया गया है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उनकी मौजूदगी को औरतों और बच्चों के लिए खतरा बताया जाये। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाए और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य हैं, यह बात हिंदू अपने दिमागों में बैठा ले।

इसके लिए वे दो और हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक कश्मीर के मुसलमान जो उनकी नज़र में अलगाववादी हैं और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद के समर्थक हैं और इसी प्रचार का परिणाम है, कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म। दूसरे, वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखना। इसी के लिए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाया गया है और जिसका अगला कदम नागरिकों का राष्ट्रीय पंजीकरण (एनआरसी) होगा।

भारतीय संविधान सभी नागरिकों को चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि कुछ भी क्यों न हो, उन्हें समान नागरिकता का अधिकार देता है। लेकिन अब इसमें से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। अगर कोई पड़ोसी राज्य का मुसलमान भारत की नागरिकता लेना चाहता है तो उसे सीएए के तहत नागरिकता नहीं मिलेगी। जहां तक नागरिकता के रजिस्टर का सवाल है, उन सभी लोगों की नागरिकता खतरे में पड़ जायेगी जिनके पास नागरिकता का प्रमाण नहीं होगा। लेकिन मुसलमानों को छोड़कर शेष समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता दे दी जायेगी। अभी इसे लागू करने से रोक दिया गया है, लेकिन इसे निश्चय ही 2024 में चुनाव जीतने के बाद लागू किया जा सकता है।

नरेंद्र मोदी सरकार के निशाने पर भारत की लोकतांत्रिक और संघात्मक संरचना है। अभी हाल ही में दिल्ली राज्य को लेकर जो कानून संसद द्वारा पारित कराया गया है उसके बाद दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास नाम मात्र को भी अधिकार नहीं होंगे। उनके हर फैसले को उपराज्यपाल बदल सकेगा। यहां तक कि एक मंत्री से ज्यादा हैसियत एक सचिव की होगी। स्पष्ट ही यह कानून भारत के संघात्मक ढांचे पर प्रहार है और इस बात का खतरा है कि इस तरह के कानून भविष्य में दूसरे राज्यों पर भी लागू किये जा सकते हैं। सूचना के अधिकार कानून को कमजोर बनाया जा चुका है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कई तरह के प्रतिबंध लगाये जा रहे हैं। इसी तरह कई आपराधिक और दंडात्मक कानून बदले गये हैं। उनके केवल हिंदी नाम ही नहीं रखे गये हैं बल्कि उन्हें पहले से ज्यादा कठोर बना दिया गया है। दावा भले ही इससे उलट किया गया हो। मसलन, धारा 124 जो देशद्रोह से संबंधित कानून है और जो अंग्रेजों के समय से चला आ रहा था और जिसे हटाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी, उसे हटा दिया गया है। संसद में इस कानून को समाप्त करने की घोषणा करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आजाद भारत में इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए और सबको अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। लेकिन इस कानून की जगह अब जो नया कानून लाया जा रहा है, उसमें वे सभी प्रावधान हैं जो धारा 124 में थे।

यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि पिछले दस साल में इसी सरकार ने धारा 124 का काफी इस्तेमाल किया है। इसी तरह यूएपीए जैसे कानून का भी इस सरकार ने सबसे अधिक इस्तेमाल किया है जिसमें बिना कारण बताये किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है। भीमा कोरेगांव मामले में पांच साल से ज्यादा समय से बहुत से बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाये जेलों में बंद है। इसी तरह बिना किसी सबूत के उमर खालिद को तीन साल से जेल में बंद रखा गया है।

कानूनों में जो बदलाव किये जा रहे हैं उससे स्पष्ट है कि सरकार के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमान हैं जिन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा आदि भाजपा शासित राज्यों में तुरत-फुरत न्याय के नाम पर मुसलमानों के घर, दुकानें और व्यवसायिक भवनों को बुलडोजर के द्वारा धराशाई किया गया है।

अभी कुछ ही दिनों पहले हरियाणा में नूंह में हुए दंगे के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों के घर, दुकानें और कई भवन बुलडोजर से धराशाई कर दिये गये। न्याय करने का यह गैरकानूनी तरीका है लेकिन इसे रोकने वाला कोई नहीं है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी करते हुए इस पर रोक लगायी थी कि क्या यह जातीय नरसंहार का मामला है? इस मामले में इन दो न्यायाधीशों द्वारा आगे सुनवाई हो उससे पहले ही उन दोनों न्यायाधीशों से केस हटा दिया गया।

दरअसल, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई अंग ऐसा नहीं है जो इस सांप्रदायिक फासीवादी सरकार के निशाने से बाहर है। संसद का हाल हम देख रहे हैं जिसकी बहसों में शामिल होना प्रधानमंत्री अपना अपमान समझते हैं। बहुत से जरूरी विधेयक बिना बहस-मुबाहिसे के पास हो जाते हैं। अगर विपक्ष का कोई सांसद ज्यादा विरोध करता है तो उसे निलंबित कर दिया जाता है। इससे कुछ भिन्न स्थिति न्यायपालिका की नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर मामलों में न्यायालय के फैसले न्याय से नहीं बल्कि सत्ता की राजनीतिक जरूरतों से तय होते हैं। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में जिस तरह से अधिकतम सजा दी गयी, वह इसका ठोस प्रमाण है।

अरुण गोयल को चुनाव आयोग का सदस्य नियुक्त करने का जो तरीका अपनाया गया, वह इतना अधिक पक्षपातपूर्ण था कि पांच जजों की बैंच ने यह व्यवस्था की कि जब तक संसद कानून नहीं बनाता तब तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें प्रधानमंत्री, विपक्षी दल का नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन अब संसद में सरकार एक ऐसा विधेयक लेकर आयी है जिसमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति जिन तीन सदस्यों द्वारा होगी उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश नहीं होंगे बल्कि उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त एक कैबिनेट मंत्री होगा। स्प्ष्ट है कि कैबिनेट मंत्री कभी भी अपने प्रधानमंत्री के विरुद्ध नहीं जायेगा इसलिए भविष्य में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति दरअसल प्रधानमंत्री द्वारा होगी। विपक्ष के नेता पक्ष में रहे या विपक्ष में उससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा।

ये सब बदलाव जो हो रहे हैं, वह लोकतंत्र को कमजोर करने वाले हैं और संविधान की मूल आत्मा का हनन है। इसका एक मकसद हिंदू राष्ट्र की दिशा में कदम बढ़ाते जाना है, तो दूसरी तरफ भारत के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे की बुनियाद को कमजोर करना है। ये दोनों मकसद दरअसल एक ही हैं। आशुतोष वार्ष्णेय का यह कहना सही प्रतीत होता है कि अगर नरेंद्र मोदी 2024 में जीतकर आते हैं तो वे कानूनों में ऐसे बदलाव कर सकते हैं जिससे मुसलमान भारत का दोयम दर्जे का नागरिक रह जायेगा।

अभी संविधान में जो अधिकार अन्य समुदायों के साथ-साथ उसे मिले हुए हैं, उनमें से बहुत से अधिकार उनसे छीने जा सकते हैं, जैसा कि किसी समय अमरीका के कुछ राज्यों में अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ किया गया था। हो सकता है कि फौरी तौर पर मुसलमानों की इस हालात को देखकर हिंदू आबादी का बड़ा हिस्सा इसे राष्ट्रवाद की विजय के रूप में देखे और इस बात से प्रसन्न हो कि पाकिस्तान की तरह हम भी एक धार्मिक राष्ट्र बन गये हैं लेकिन इन सबकी आड़ में जो शोषणकारी पूंजीवादी राजसत्ता जनता के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और आगे ये मुश्किलें दिन ब दिन बढ़ती जाएंगी उसे वे कैसे और कब तक भूल पायेंगे।

देश पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और मंदी की मार से त्रस्त है और इनके पास इन समस्याओं से निपटने के जो तरीके हैं, उनसे निश्चय ही संकट और गहराता जाएगा तब हिंदू राष्ट्र के प्रति गर्व भावना और मुसलमानों के प्रति नफ़रत उनकी कोई मदद नहीं करेगी। यही नहीं संघ की विचारधारा केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के ही विरुद्ध नहीं है वह दरअसल ब्राह्मणवादी विचारधारा भी है और उसका एक बड़ा हिस्सा जितनी नफरत मुसलमानों से करता है उससे कम दलितों से नहीं करता। वे यह भी चाहते हैं कि दलितों को संविधान ने जो बराबरी का अधिकार दिया है,आरक्षण की सुविधा दी है वह भी उनसे छीन ली जाए।

सच्चाई यह है कि संघ का पूरा वैचारिक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता और संघीय संरचना के विरोध में निर्मित हुआ है। उनके हमले का मूल निशाना यह संविधान ही है जिसे वे खत्म न कर सकें तो पूरी तरह से कमजोर और निष्प्रभावी जरूर बना देना चाहते हैं। 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार यही काम कर रही है। संविधान हमारे लोकतंत्र का ही नहीं इस देश के प्रत्येक नागरिक की आज़ादी का भी रक्षक है और उसी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

(जवरीमल्ल पारख रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

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