उत्तरप्रदेश। साल 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती बसपा सरकार ने स्वास्थ्य सेवा को गांव-गांव, घर-घर पहुंचाने के उद्देश्य से उस दौरान एक कारगर कदम उठाया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री एवं बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने अन्य ड्रीम प्रोजेक्ट की भांति स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी सुदूर ग्रामीण अंचलों में बसने वाले लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं दरवाजे तक उपलब्ध कराने के लिए जिस योजना को लागू किया था उसे नाम दिया गया था “मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल योजना”। यानी एक चलता-फिरता अस्पताल जो स्वयं लोगों तक पहुंच रहा था।
योजना के तहत एक अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस वाहन जिसमें चिकित्सा सुविधा के सारे संसाधन उपलब्ध कराए गए थे। चिकित्सक, दवा सहित स्वास्थ्य कर्मियों की टीम भी तैनात की गई थी, जो गांव-गांव कैंप लगाकर, भ्रमण करते हुए लोगों को शिक्षा-चिकित्सा के बारे में जानकारी देने के साथ मौके पर ही उपचार-परामर्श के साथ-साथ सरकार की स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में चलाई जा रही जन कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार करते हुए दवा उपचार भी उपलब्ध कराया करते थे।
बसपा ने लागू किया सपा ने किया किनारे, भाजपा ने मुंह फेरा
अब इसे दु:खद ही कहा जा सकता है कि 2007 की बसपा सरकार के दौरान स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में ग्रामीणों को होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए चलाई गई यह अति महत्वपूर्ण योजना सूबे से बसपा सरकार के हटते ही पूरी तरह से दम तोड़ कबाड़ का रूप ले चुकी है।
एक अत्याधुनिक वाहन पर चलते-फिरते अस्पताल के रूप में ग्रामीण जनता के लिए कारगर साबित हो रही “मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल योजना’’ का वाहन इन दिनों कबाड़ का रूप लेकर सरकार की गलत नीतियों को दर्शाते हुए अपने भाग्य पर आंसू बहाता हुआ नजर आ रहा है, बल्कि सत्ता बदलने के बाद योजनाओं के होने वाले बंटाधार को भी दर्शाता रहा है।
मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल से यह थे फायदे
“मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल योजना” अन्तर्गत संचालित चलते-फिरते अस्पताल वाहन से एक नहीं कई फायदे थे। लोगों को खासकर सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं दरवाजे पर दस्तक देकर पहुंचाना। मौके पर ही चिकित्सकीय परामर्श, प्राथमिक उपचार, दवाओं का वितरण और टीकाकरण, प्रसव और प्रसव के बाद स्वास्थ्य परीक्षण और आवश्यक दवाओं का वितरण, किशोरवय बालिकाओं के स्वास्थ्य परीक्षण और प्रजनन स्वास्थ्य परीक्षण, मौके पर ही मलेरिया, टीबी रोग जांच हेतु रक्त के नमूने लेना, परिवार नियोजन के विभिन्न माध्यमों सहित विभिन्न स्वास्थ्य शिक्षा, जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में भी यह वाहन न केवल सहायक सिद्ध होता रहा है, बल्कि लोगों को दरवाजे पर दस्तक देकर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में भी सफल साबित हो रहा था।
झाड़ियों में लुप्त हुआ एसी वाला अस्पताल वाहन
मिर्जापुर जिले लालगंज, पटेहरा, कोन सहित अन्य कई स्वास्थ्य केंद्रों का भ्रमण करते हुए खासकर जिला मुख्यालय से तकरीबन 60-70 किलोमीटर दूर के स्वास्थ्य केंद्रों का जायजा लेने पर ‘मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल योजना’ का ऐसी युक्त वाहन अपनी उपयोगिता को पूरी तरह से खो चुके होने के बाद कबाड़ के रूप में तब्दील नजर आया है। जिसकी ओर अब कोई झांकने वाला भी नहीं है। आखिरकार झांके भी क्यों? जब सरकार और विभाग ने ही मुंह फेर लिया है।
इन दिनों अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस यह स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने वाला वाहन यानी चलता-फिरता अस्पताल पूरी तरह से प्रचार पोस्टरों से पटकर तथा आसपास फैली हुई झाड़ियों, वाहन के नीचे उगे पेड़-पौधे इसे पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में लेकर इसे झंखाड़ का रूप दे चुके हैं।
डेढ़ दशक से ज्यादा समय से एक ही स्थान पर खड़े होने से यह अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस लग्जरी ऐसी युक्त स्वास्थ्य वाहन कबाड़ के रूप में तब्दील हो चुका है। जहां पेड़ पौधे उग कर इसे अपने आगोश में ले चुके हैं। बेहद आश्चर्य की बात तो यह है कि इस वाहन को संचालित करने की दिशा में कोई कदम तो नहीं बढ़ाया गया, अलबत्ता “मुख्यमंत्री महामाया” शब्द को जरूर लीपपोत कर छुपा दिया गया है।
मिर्जापुर के स्वास्थ्य केंद्र पटेहरा का जायजा लिया गया तो यहां मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल योजना का एसी युक्त वाहन कबाड़ में तब्दील होकर अपनी उपयोगिता खो चुका नजर आया है। जबकि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लालगंज परिसर में खड़ा ‘मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल’ का वाहन चारों ओर से जंगली पेड़ पौधों से घिरा हुआ नजर आया। चिकित्सा वाहन के अंदर नजर दौड़ाने अंदर अनगिनत दवाएं कूड़े की तरह फेंकी हुई नजर आई हैं।
जिसे देख सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य से बसपा सरकार के जाने के बाद इस सचल अस्पताल वाहन को भी एक किनारे कर दिया गया है। इसी प्रकार कोन विकासखंड के स्वास्थ्य केंद्र कोन परिसर में लबे रोड पर खड़ा अस्पताल वाहन जिसके कीमती कल पुर्जे-पुर्जे तक गायब हो चुके हैं। इसका कोई फुरसाहाल नहीं रहा।
मौके पर मौजूद एक स्वास्थ्यकर्मी ने नाम ना छापे जाने की शर्त पर इस वाहन की दुर्दशा और इस वाहन के बंद होने से जो परेशानियां हुई है उसके बारे में बुझेमन से बताया कि “यह सरकार और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग की उदासीनता लाल फीताशाही का ही परिणाम है कि यह वाहन जंग खा कर अपना अस्तित्व खो चुका है। अन्यथा इस वाहन को आज भी संचालित किया जाता तो यह इस कोविड काल से लेकर अब तक लोगों के लिए काफी हद तक मददगार साबित होता।
लेकिन सरकार की दुर्दशापूर्ण नीतियों और स्वास्थ्य मंत्रालय के बेपरवाह लापरवाह अधिकारियों की खाऊ-कमाऊ नीतियों ने इस अस्पताल वाहन को उपेक्षा के अंधियारे में ला खड़ा किया है। “वरिष्ठ पत्रकार अंजान मित्र कहते हैं,”सरकार की योजनाओं से जुड़ी हुई विकास परियोजनाओं संसाधनों के रखरखाव देखरेख से लेकर उनको अमलीजामा पहनाने का कार्य करने वाले अधिकारी और संबंधित विभाग के लोगों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बनती है कि वह इनके देखरेख से लेकर संचालन की दिशा में आने वाली परेशानियों को दूर करने के उपाय सरकार को बताते हुए उनके संचालन का रास्ता भी सुझाएं, पर यहां तो ठीक उल्टा ही दिखाई दे रहा है। नुकसान होना है तो हो अपना क्या जाता है, तो यह सरकारी संपत्ति तो फिर नुकसान से हमें क्या लेना देना?
बैनर-पोस्टर की भांति कर दिया गया किनारे
जरूरतमंदों को मौके पर पहुंचकर दवा प्रदान करने से लेकर उपचार करने तक में यह वाहन कारगर साबित होता रहा है, लेकिन दुखद है कि उत्तर प्रदेश से बसपा सरकार के जाते ही समाजवादी पार्टी की अखिलेश यादव के नेतृत्व में सरकार आने के बाद इस वाहन को पूरी तरह से किनारे कर दिया गया। जिसकी ओर से भाजपा की योगी सरकार ने भी मुंह फेर लिया।
जबकि होना यह चाहिए था कि इस वाहन का निरंतर संचालन, देखरेख होता रहता तो यह खासकर “कोविड काल” में अस्पतालों की बंद ओपीडी सेवाओं के बाद से लेकर अब तक उन लोगों के दरवाजे तक जाकर स्वास्थ्य सेवा देने में कितना कारगर साबित होता जो अस्पताल आने पर अपना पूरा दिन बीता देते हैं।
स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो रहे इस वाहन को भी राजनीति के आईने से देखते हुए, जिस प्रकार से सरकार जाते ही उस दल, उस पार्टी के झंडे बैनर हटने लगते हैं ठीक उसी प्रकार बसपा सरकार के दौरान चलाई गई इस योजना को भी एक किनारे कर दिया गया है। ठीक उसी तरह से जैसे सत्ता बदलने पर बैनर-पोस्टर हटने लगते हैं।
गरीबों के लिए वरदान रहा महामाया सचल अस्पताल
सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए ‘मुख्यमंत्री महामाया सचल अस्पताल’ काफी कारगर साबित हो रहा था। ग़रीबों के लिए तो मानो यह किसी वरदान से कम नहीं रहा। ग़रीबों को अस्पताल न जाकर छोटी मोटी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से गांव में ही राहत मिल जाती थी। दवा, उपचार से लेकर स्वास्थ्य संबंधित योजनाओं की भी जानकारी गांव में ही मिल जाती थी। जिससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोग इसे किसी वरदान से कम नहीं आंकते थे।
मुख्यालय से दूर रहने वाले लोगों के लिए रहा वरदान
मिर्ज़ापुर जिला मुख्यालय से तकरीबन 80 किमी दूर स्थित हलिया, जमालपुर, अहरौरा, राजगढ़ आदि विकास खंडों के उन गांवों के लोगों के लिए यह चलता-फिरता अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस एसी वाहन वाला अस्पताल कई प्रकार से राहत देने के साथ ही समय और धन का बचत कराने में कारगर साबित हो रहा था। खासकर जंगल और पहाड़ वाले इलाके के ग्रामीणों को उनके दर तक पहुंच कर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के मामले में इस चलते-फिरते अस्पताल का कोई तोड़ नहीं था।
लेकिन सरकारों की इर्ष्या पूर्ण नीतियों ने इस चलते-फिरते अस्पताल को कबाड़ बना डाला है। जिसकी हो रही दुर्दशा देख सरकारों की मंशा, जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, विभागीय अधिकारियों की लचर नीतियों पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, कि क्या इससे सरकारी धन को क्षति नहीं पहुंचती होगी?
(उत्तर प्रदेश से संतोष देव गिरी की ग्राउंड रिपोर्ट।)