बारिश, तबाही और मौत की आपदा में फंसा हिमाचलः संभलने का अभी भी वक्त है!

चार दिन पहले एक बार फिर हिमाचल में बारिश होनी शुरू हुई। इस बार बारिश का केंद्र शिमला के आस-पास का इलाका था। जैसे-जैसे बारिश का जोर बढ़ा, तबाहियों से भरे दृश्य सामने आने लगे। पहाड़ों के मलबों को खींचकर नीचे लाता हुआ नाला घरों को ठेलते-तोड़ते हुए ताश के पत्तों की तरह नीचे गिराता हुआ दिख रहा था। मलबा तेजी से सरकते हुए अन्य घरों को अपनी जद में ले रहा था।

एक ऐसा ही मंजर शिव मंदिर के साथ देखा गया। वहां लोग पूजा करने के लिए इकट्ठा हुए थे। इस पर पहाड़ का मलबा सरकते हुए अन्य घरों को चपेट में लेते हुए इस मंदिर पर आ गिरा। तत्काल कम से कम 12 लोगों के मर जाने की खबर थी। इसमें एक ही परिवार के 7 लोग थे।

इसी तरह बहुत से घर तबाह होते देखे गये। 14 अगस्त, 2023 तक 48 लोगों के मरने की खबर आ चुकी थी। 15 अगस्त, 2023 को हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखबिंदर सिंह सुक्खू ने बताया कि बारिश जैसी आपदा से जुलाई से अब तक 300 लोगों की जान चली गई है। और 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है।

हमने जुलाई के महीने में भी ऐसे ही भयावह दृश्य देखे। पूरे हिमाचल में असामान्य बारिश देखी जा रही थी। लाखों पर्यटक वहां फंस गये थे। बहुतों को जान से हाथ धोना पड़ा। लोग बारिश में जहां-तहां फंसे हुए खुले में रात बिताने के लिए मजबूर हुए। बहुत से फंस गये पर्यटकों की तलाश लंबे समय तक होती रही। ऐसी स्थिति उत्तराखंड की भी थी। यदि हम दोनों प्रदेशों से पिछले एक सप्ताह में मरने वाले लोगों की संख्या को जोड़ें तो यह 100 के पार चली जाती है। तबाही का आकलन अलग से है।

हम हिमाचल में इस बार की हुई तबाही के बारे में बात करें तो यह तबाही शिमला और आस-पास के इलाकों में हुई है। इस बार इसने उस रेल की पटरी को भी उखाड़ फेंका जिस पर कालका से शिमला जाने वाली टॉय रेलगाड़ी चलती है। शिमला शहर का विकास और विस्तार अंग्रेजों के समय हुआ और यह गर्मियों में देश की राजधानी में बदल जाता था। यह हमेशा की तरह एक आकर्षण का केंद्र बना रहा।

इसकी ऐतिहासिकता, मौसम का सुहावना होना और इस जगह तक आसानी से पहुंचना वे कारण रहे हैं, जिससे यहां पर्यटकों की संख्या हमेशा ही अधिक बनी रहती है। निश्चित ही हिमाचल सिर्फ शिमला की वजह से नहीं जाना जाता और यहां की अर्थव्यवस्था इसके पर्यटन की मोहताज नहीं थी। लेकिन, बाद के समय में पर्यटन पर निर्भरता बढ़ती हुई दिखी और यह एक मुख्य उद्योग में बदल गया।

पर्यटन अपने साथ हाइवे का निर्माण, आरामदायक और आतिथ्य वाले होटलों का निर्माण, पानी का दोहन, कचरे का भंडार, आलीशान घरों का निर्माण और जमीन की खरीद-बिक्री जैसी गतिविधियों को भी बढ़ा दिया है। पिछले दस सालों में शिमला, सोलन और कसौली में बिल्डरों की गतिविधियों में बढ़ोत्तरी को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। करोड़ों रुपये में बिकने वाले अपार्टमेंट और घर सिर्फ रिटायरमेंट की जिंदगी के लिए ही नहीं हैं, ये गर्मियों के डेस्टिनेशन भी हैं।

यह सारा इलाका शिवालिक घाटी का हिस्सा है। ऐसी ही गतिविधियां मांडी, मनाली और ऊपर के इलाकों में देखी जा सकती हैं। इन घरों के निर्माण, सुविधाओं वाले सामानों को पहुंचाने से लेकर नियमित जरूरतों की आपूर्ति वे कारक हैं जिन्हें पूरा करने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण योजनाएं सड़कों को चौड़ा करने में लगी हैं। साथ ही भवन निर्माण को पूरा करने के लिए पहाड़ों को समतल करने का काम किया जाता रहा है।

ये दोनों ही वे कारक हैं जिनसे निरंतर ऊपर की ओर बढ़ते हुए कचरे का वह निर्माण देख सकते हैं, जो रास्तों पर तेजी से सरकते हुए पानी के साथ नीचे की ओर गिरता है। बात इतनी सी ही हो, तो कुछ सालों में यह मसला हल हो सकता है, जैसा कि कई दावेदार कह रहे हैं। लेकिन, पहाड़ों के कमजोर होने, जैविक विविधता के नष्ट होने, पानी का दोहन और कचरों से प्राकृतिक नालों और नदियों के बहाव में बाधा ऐसे कारक हैं जिसे स्थिर होने में कितना समय लगेगा, कहना कठिन है। सबसे बड़ी बात यह है कि विकास के नाम पर आरामदायक घरों, होटलों और हाइवे का निर्माण एक ऐसी कार्रवाई है, जो निरंतर चलती ही रहती है।

इसके अतिरिक्त एक बड़ा मसला शिवालिक क्षेत्र में बदलते मौसम का भी है। जिस तरह थोड़ा सा तामपान बढ़ने का अर्थ है समुद्र के पानी के स्तर में बढ़ाव, जिससे समुद्री किनारों की जमीन उसकी जद में आ जायेगी। इसी तरह तापमान में बढ़ोत्तरी असामान्य तरीकों से हवाओं के बहाव और दबाव क्षेत्र को निर्मित करता है जिससे गर्म हवाओं का चलना और चक्रवातों का बनना भी समुद्री इलाकों के लिए खतरा पैदा करता है। ठीक यही स्थिति हिमालय के क्षेत्र की भी है।

हम परिस्थिति के इतिहास का अध्ययन के आधार पर कह सकते हैं कि पिछले 10 हजार सालों से यहां मौसम में काफी स्थिरता है। लेकिन, बदल रहे मौसम के चिन्हों को आसानी से पहचाना जा सकता है। पहाड़ के औसत तापमान में वृद्धि देखी जा रही है। नदियों के स्रोत ग्लेशियर पीछे की ओर खिसकते गये हैं। ऐसे में नदियों में पानी के स्रोत में हिम का क्षेत्र कम और मानसून का आकार बढ़ता हुआ देखा जा सकता है। पहाड़ में खदान, निर्माण और बड़ी परियोजनाओं के प्रभाव का अध्ययन दिखा रहा है कि पहाड़ दरक रहे हैं। जैव विविधता पर असर पड़ रहा है।

इस बार शिमला में जो तबाही देखी गई है वह पर्यावरण के गंभीर संकट को दिखा रहा है। यह सिर्फ पर्यटन से जुड़ा मसला ही नहीं है। यह शिवालिक रेंज में चल रही भवन निर्माण योजनाओं से लेकर कथित विकास की परियोजनाओं के लिए पहाड़ों के साथ हो रही बर्बादियों का भी परिणाम है। ऐसे में इस बर्बादी के लिए मुख्यमंत्री सुखबिंदर सिंह सुक्खू द्वारा ‘प्रवासी ठेकदारों’ और अवैज्ञानिक निर्माणों को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं लगता। आज जिन बातों की ओर विशेषज्ञ ध्यान दिला रहे हैं, उसमें पहाड़ों की खड़ी कटाई एक मुख्य बात है। निश्चय ही आने वाले समय में और भी कई खामियों को गिना जायेगा और संभव है उसे ठीक करने की ओर बढ़ा जायेगा।

लेकिन, हिमालय के क्षेत्र की विशिष्टताओं को समझे बिना कोई भी कदम उठाना सिर्फ पहाड़ के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना ही नहीं होगा, इसका सीधा असर मैदान के इलाकों पर भी पड़ेगा। हम पिछले कुछ सालों में मानसून का सीधा असर बाढ़ और बर्बादियों में देख रहे हैं। इन दोनों के बीच का संबंध सिर्फ असामान्य बारिश ही नहीं है। इसमें वे कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं जिसे हम इंसानी हस्तक्षेप कहते हैं।

लेकिन, ये हस्तक्षेप निरपेक्ष नहीं हैं। मसलन, दिल्ली में यमुना में इस बार की आई बाढ़ के लिए कौन जिम्मेवार है? इसकी तह में जाने पर कई सवाल खुलकर सामने आये हैं। लेकिन, जो मुख्य बात सामने आई वह इसके तटों पर होने वाले निर्माण ही मुख्य कारक हैं। कई विशेषज्ञ, हिमाचल में आ रही बर्बादियों के लिए इसी तरह के कारकों को गिना रहे हैं। निश्चित ही हिमाचल की बर्बादी के अध्ययन में इन कारकों को भी ध्यान में रखा जायेगा।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments