Tuesday, March 19, 2024

कितना कारगर है दिल्ली में कूड़े से बिजली उत्पन्न करना

कूड़ा निपटान की समस्या को लेकर भारत करीब पिछले तीस सालों से जूझ रहा है। हालांकि 1990 से पहले यह समस्या वर्तमान समय की तरह विकट नहीं थी। भारत के शहरों में लगातार कूड़े का बढ़ना लोगों की जीवन शैली में आये बदलाव, खान-पान की आदतें और लगातार बढ़ते शहरीकरण के चलते हो रहा है। इसके अलावा कूड़ा बढ़ने को अर्थव्यवस्था के साथ भी जोड़कर देखा जाता है कि हम कितना कूड़ा पैदा करते हैं उसको देश के सकल घरेलू उत्पाद का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। जबकि भारत में केवल एक तबका ही अमीर हो रहा है, ज्यादातर लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।

इन कारणों के साथ-साथ एक मुख्य कारण प्रशासन की तरफ से भी हैं जिसमें शहरों की म्युनिसिपालिटिया उत्पन्न कचरे का निपटान करने में असमर्थ है, वर्तमान स्थिति में कुल उत्पन्न कचरे का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक जगहों और कच्ची रिहायशी कालोनियों में पड़े खाली प्लाट में डाला जाता है। यह रिहायशी कालोनियां वह हैं जो मास्टर प्लान के तहत नहीं बसाई गई हैं, इस तरह की कालोनियों में न सिर्फ कच्ची कालोनियां आती हैं बल्कि पुनर्वासित कालोनियां भी आती है, यह कचरा जो इन कच्ची कालोनियों में फेंका जाता है वह सरकार द्वारा बनाये गये लैंडफिलों तक नही पहुंच पाता है।

कूड़े का व्यवस्थित तरीके से निपटान न होने की वजह से एवं बेतहाशा बढ़ते कूड़े के असर से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए भारत में कूड़े से बिजली बनाने की तकनीक को अपनाया गया कि मात्र यही एक हल है देश में बढ़ते कूड़े को कम करने का। हालांकि यह तकनीक विदेशों में चल रहे कूड़े से बिजली बनाने की तकनीकी से प्रभावित है। अगर हम विदेशों में बन रही कूड़े से बिजली पर अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि वहां पर कूड़े से बिजली बनाना एक स्थायी हल हो सकता है क्योंकि कूड़े से बिजली बनाने के लिए कूड़े में जिस मात्रा में कैरोलिफिक वैल्यू मिलनी चाहिए वह मिल जाती है, जबकि भारत में घरों के स्तर पर कूड़े को अलग-अलग करने की जानकारी का अभाव जिसके चलते कूड़े से बिजली बनाने के लिए जिस तरह का कूड़ा चाहिए उस तरह का कूड़ा भारत के कूड़े से बिजली उत्पन्न करने वाले संयंत्रों को मिलना संभव नहीं है। कूड़े से बिजली बनाने के लिए कैरोलिफिक वैल्यू की जरूरत होती है जिससे कि बिजली बन सके। 

कूड़े से बिजली बनाने के बारे में भारत में 1986 में गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय द्वारा इस पर विचार किया गया की शहरों में उत्पन्न होने वाले कूड़े से बिजली बनाई जाये। सन् 1990 में दिल्ली के तीमारपुर इलाके में पहला कूड़े से बिजली बनाने का संयंत्र लगाया गया। इस संयंत्र को लगाने के लिए डेनिश कंपनी ने 58 करोड़ रूपये निवेश किये थे, कूड़े से बिजली बनाने का यह संयंत्र मात्र 7 दिन चला और आठवें दिन यह बंद हो गया।

इस योजना के तहत यह संयंत्र उतनी भी बिजली नही पैदा कर पाया जिससे की वह अपना प्लांट चला सके जबकि दावा यह किया गया था कि इस संयंत्र से करीब 6 मेगावाट बिजली पैदा करेगा परन्तु यह संयंत्र उतनी भी बिजली नहीं पैदा कर पाया जिससे कि प्लांट चल सके। सन् 1997 में पर्यावरण मंत्रालय ने अपने श्वेत पत्र में इस बात को स्वीकार किया कि जिस तरह से उत्पन्न होने वाले कूडे़ का निपटान किया जा रहा है उससे बिजली पैदा नहीं हो सकती है। इसके बाद भी पूरे भारत में करीब 30 कूड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्रों का निर्माण होना है। जबकि शहरों में आज भी कूड़े का निपटान उसी प्रकार से हो रहा है जिस तरह से पहले हो रहा था। 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में रोजाना के आधार पर करीब 12 हजार मैट्रिक टन कूड़े का उत्पन्न होता है जिसमें गीला कूड़ा और सूखा कूड़ा दोनो तरह का कचरा मिक्स होता है। अगर दिल्ली के चारों कूड़े से बिजली बनाने वाले संयंत्र चला दिये जायें तो उन्हें करीब 8000 मीट्रिक टन कूड़े की जरूरत होगी और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कूड़ा मिक्स कूड़ा है। इस कूड़े पर दिल्ली शहरों के हजारों कचरा बीनने वाले मजदूर अपनी जीविका चलाते हैं उनका परिवार इसी कूड़े पर निर्भर है इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है जिससे वह अपना जीवन यापन कर सकें। दिल्ली में स्थित एक संस्थान लोकाधिकार ने एक अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पाया कि उत्पन्न कूड़े में से करीब 54 तरह के रिसाइकिल होने वाला कूड़ा निकलता है। जिसे कूड़ा बीनने के काम में लगे असंगठित मजदूरों द्वारा अलग-अलग किया जाता है। कूड़े से बिजली बनाने की प्रकिया में यह मजदूर केवल 2 प्रतिशत तक ही रिसाइकिल ऐबल निकाल पाते है जिसके चलते इनकी जीविका पर गहरा असर हो पड़ रहा है। 

हालांकि कूड़े से बिजली बनाने की तकनीकी को एक साफ सुधरी तकनीक के तहत माना जा रहा है और यह सुनने में भी अच्छा लगता है कि कूड़े से बिजली बन रही है यानि गंदगी को साफ करके यदि बिजली बनाई जा रही है तो इसमें हर्ज ही क्या है। परन्तु वास्तव में यह प्रकिया इतनी  साफ सुधरी नहीं है, कूड़े से बिजली बनाने कि प्रकिया में कूड़े को जलाना पड़ता है जिससे कि विभिन्न प्रकार की गैसे निकलती है, कार्बन डाइआक्साइड फुआन, डायआक्सीन, नाइट्रोजन आदि गैसों का उत्सर्जन होता है जो कि पर्यावरण के लिए खतरनाक है, इन गैसों में डाईआक्सीन नाम की गैस है जो कैंसर के लिए जिम्मेदार है।

दिल्ली शहर में जहां पर भी कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र लगे हैं वहां पर एक ठीक-ठाक आबादी में मध्य एवं निम्न वर्ग के लोग रहते हैं। इसके अलावा इन संयंत्रों के नजदीक कई निजी अस्पताल भी बने हुये हैं जैसे होली फैमिली अस्पताल, फोर्टिस एवं एस्कोर्ट आदि है। अस्पताल और रिहायशी इलाकों के अलावा यहां पर दो वाइल्ड लाइफ सैंचुरी भी है जिसमें ओखला बर्ड सेंचुरी और असोला वाइल्ड लाइफ सेंचुरी है, इन दोनों ही वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के मात्र दस किलोमीटर के दायरे में यह संयंत्र लगा हुआ है। 

सवाल यह है कि शहरों को साफ रखना एक बुनियादी जरूरत तो है जिसे नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि स्वच्छ वातावरण में ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है, परन्तु क्या शहरों को साफ रखने के लिए अपनाई जा रही तकनीक से शहरों की सफाई संभव है, क्या हमें उन सभी खतरों के बारे में नहीं सोचना चाहिए जो इस तकनीक के माध्यम से पर्यावरण, मानव और जीव जन्तुओं को बुरे तरीके से प्रभावित करेगा। क्या इस तकनीक के अलावा और भी रास्ते हो सकते हैं जिससे शहरों का कचरा कम किया जा सकता है या कहें कि शहरों को साफ रखा जा सकता है।  

(बलजीत जामिया मिलिया इस्लामिया में पीएचडी स्कॉलर हैं।)

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