Friday, March 29, 2024

हरियाली बचाने, वाहन हटाने में वायु प्रदूषण का निदान

शीत का प्रकोप बढ़ने के साथ पटना की हवा एक बार फिर खराब होने लगी है। मंगलवार को पटना का वायु गुणवत्ता स्तर (एक्यूआई) 328 था, कल बृहस्पतिवार को वह गिरकर 330 हो गया है। शहर के भीतर छह प्रमुख इलाके राजधानी वाटिका,राजवंशी नगर, बेली रोड इलाके में आईक्यू सूचकांक कभी कभी 400 से अधिक हो गया। इसे 426 तक नापा गया है। तो तारामंडल, कोतवाली, डाकबंगला क्षेत्र में आईक्यूआई सूचकांक 498 तक पहुंच गया।

पटना ही नहीं, बिहार दस प्रमुख शहरों की हवा खराब से बहुत खराब की श्रेणी में है। आरा, दरभंगा, छपरा, बिहारशरीफ, सीवान, सासाराम, मुजफ्फरपुर, भागलपुर और कटिहार की हवा पटना से अधिक खराब है। आरा की हवा बुधवार को देश भर में सबसे खराब रही। वहां का आईक्यू सूचकांक 414 रहा जो दिल्ली के स्तर 407 से कहीं अधिक था।

खतरनाक जानकारी यह है कि वर्ष 2017 से वर्ष 2021 के बीच कुल 1810 दिनों में केवल 84 दिन हवा स्वच्छ रही। वर्ष 21 में अब तक केवल 14 दिन स्वच्छ हवा चली। वर्ष 2020 में 58 दिन हवा स्वच्छ रही। इस वर्ष अब तक 27 दिन हवा बहुत खराब श्रेणी में रही और 104 दिन खराब क्षेणी में। 14 दिन हवा स्वच्छ रही तो 123 दिन संतोषजनक।  

राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक वैज्ञानिक ने बताया कि तापमान गिरने की वजह से धूलकण उपर नहीं जा पा रहे, पटना की हवा की नीचली परत में धूलकणों की मात्रा मानक से आठ गुना अधिक हो गई है। अन्य शहरों में पीएम 10 व पीएम 2.5 की मात्रा मानक से चार गुना अधिक पाया गया है। हवा में धूलकण अधिक होने से छाए कोहरे के कारण विमानों की आवाजाही पर असर पड़ा है। कई विमान देर से उड़ान भर रहे हैं तो कुछ उड़ानें रद्द हो जा रही हैं। वायु प्रदूषण वैज्ञानिक रविरंजन सिन्हा ने बताया कि हवा के निचले स्तर में धूलकण की मात्रा अधिक होने और तापमान घटने से हवा तेजी से प्रदूषित हो रही है। इस स्थिति के अभी जारी रहने की संभावना है।

हवा में धूलकण की मात्रा अधिक होने का मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। चिकित्सक दिवाकर तेजस्वी के अनुसार, इससे सांस और फेफड़े की बीमारी बढ़ रही है। लोगों में एलर्जी, अस्थमा व त्वचा संक्रमण की शिकायतें भी मिल रही हैं। बच्चों में न्यूमोनिया, सांस लेने में तकलीफ और दम फूलने की शिकायतें दिख रही हैं। इससे बचने के लिए मास्क पहनना फायदेमंद है।

लेकिन प्रश्न है कि बिहार के शहरों की हवा में इतने धूलकण आते कहां से हैं जबकि यहां न तो अधिक औद्योगिक क्षेत्र हैं, न वाहनों की संख्या दूसरे इलाकों, अन्य महानगरों की तरह है। यह जरूर है कि वाहनों खासकर व्यावसायिक वाहनों में मिलावटी ईंधन का इस्तेमाल होता है जो अधिक धुआं छोड़ते हैं। पिछले साल तक यहां भी वायुमंडल की धूल के लिए किसानों को जिम्मेवार ठहराने का चलन हो गया था जो फसल-अवशेष को खेतों में जला देते हैं। पर वास्तविकता यही है कि राज्य में पराली जलाना उतना आम नहीं है और यह कुछ दिनों के लिए ही होता है। विचार करने पर पता चलता है कि असली कारण धरती पर हरियाली का कम होना है जो धूलकणों को वायुमंडल में मिलने से रोकती है और स्वयं में समेट लेती है। पर राज्य में चल रहे जल-जीवन-हरियाली अभियान के दौरान कागजों में तो हरियाली क्षेत्र में बढ़ोत्तरी भले हुई हो, धरती पर तो सड़कें लंबी और चौड़ी होती गई हैं जिससे प्राकृतिक हरियाली लगातार कम होती गई है।

सड़कों में टूट-फूट होती है, विभिन्न कारणों से उन्हें खोदा जाता है जैसे पानी की पाइप डालने या बिजली केबल बिछाने, गैस पाइप लाइन लगाने के लिए खोदने के बाद मरम्मत में महीनों लगा दिए जाते हैं। धूल उड़ती रहती है और हवा में मिलती रहती है। वैसे भी इधर की मिट्टी गंगा की गाद से बनी है, उसे महीन कणों में बदलने में देर नहीं लगता। बचाव का अकेला उपाय हरियाली को बनाए रखना है जिससे मिट्टी का बायोमास अधिक हो। इस मसले पर गंभीर सोच विचार की जरूरत है। पर जलवायु परिवर्तन की बड़ी समस्या पर विचार तो हम करते हैं पर उसमें योगदान करने वाली छोटी समस्याओं पर नहीं सोचते, उनके समाधान की छोटी-छोटी पहल नहीं करते।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण मामलों के जानकार हैं।)

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