Tuesday, April 16, 2024

विश्व विख्यात फूलों की घाटी की घटती जा रही है नैसर्गिक छटा

देहरादून। बेतुके वन्य जीवन संरक्षण उपायों, विवेकहीन पर्यटन विकास एवं पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में जानकारी के नितांत अभाव के कारण विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है और अगर अभी भी इस तरह के बेतुके निर्णय रोके नहीं गये तो इस घाटी की नैसर्गिक छटा तथा विलक्षण जैव विविधता की स्मृतियां ही शेष रह जाएंगी।

ऋषिकेश से लगभग 289 किमी दूर चमोली जिले में बद्रीनाथ के निकट कामेट शिखर पर सफल चढ़ाई के बाद अंग्रेज पर्वतारोही फ्रेंक एस स्माइथ सन् 1931 में जब भूले भटके अपने साथियों के साथ बेशुमार खूबसूरत जंगली फूलों के सागर में डूबी इस घाटी में पहुंचा था तो वह दंग रह गया था। इस दिव्य दृश्य ने उसका मन हर लिया था। स्माइथ ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘द वैली ऑफ फ्लावर्स’ में खुद ही लिखा कि निसंदेह यह दुनिया की सबसे खूबसूरत फूलों की घाटी है।

फ्रेंक स्माइथ इस घाटी में बिताये कुछ दिनों की यादें लेकर जब इंग्लैण्ड पहुंचा तो वह खुद को रोक न सका और 6 साल बाद फिर इसी घाटी में आ पहुंचा जहां उसने फूलों और अन्य पादप प्रजातियों का अपने सहयोगी वनस्पतिशास्त्री आरएल होल्ड्सवर्थ के साथ विस्तृत अध्ययन किया और 1938 में अपने अनुभवों तथा घाटी की विलक्षण पादप विविधता के आधार पर अपनी पुस्तक ‘‘वैली ऑफ फ्लावर्स’’ प्रकाशित कर डाली। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ईडनबर्ग बॉटेनिकल गार्डन के अधिकारियों ने 1939 में अपनी वनस्पति विशेषज्ञा मार्गरेट लेगी को इस घाटी में अध्ययन के लिए भेज दिया।

उन दिनों ऋषिकेश से ऊपर मोटर मार्ग नहीं था। पैदल सड़क भी अच्छी हालत में नहीं थी। यह इस घाटी का अनोखा आकर्षण ही था कि जिसके प्रभाव में एक नाजुक सी अंग्रेज युवती लगभग 289 किमी से अधिक कठिनतम पैदल यात्रा कर हिमालय की उस कल्पनालोक जैसी सुन्दर घाटी में जा पहुंची। मगर उसकी देह और रूह दोनों ही वहीं की हो गई। क्योंकि एक माह तक वहां विलक्षण प्रजातियों के संकलन के दौरान एक दिन उसका पांव चट्टान से फिसल गया और वह जान गंवा बैठी। लंदन से बाद में मार्गरेट की बहन घाटी में पहुंची और उसने उसकी वहीं कब्र बनाकर उसे सदा-सदा के लिए प्रकृति की सुरम्य गोद में सुला दिया।

लेकिन आज जब प्रकृति की विलक्षण कारीगरी का नमूना देखने देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं तो फ्रेंक स्माइथ, होल्ड्सवर्थ, मार्गरेट लेगी और अस्सी के दशक से पूर्व वहां पहुंचे प्रकृति प्रेमियों की तरह यह हसीन घाटी उनके मन उस तरह नहीं हर पाती। इसका कारण यह है कि सनकी दिमागों से उपजे निर्णयों, आस-पास की अत्यधिक अनियंत्रित भीड़ और पहाड़ों की अत्यंत जटिल और सहज भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ प्रबंधकों और नीति निर्माताओं के कारण वहां काफी पारिस्थितिकीय बदलाव आ गये हैं।

वन अनुसंधन संस्थान के पारिस्थितिकी विशेषज्ञों के अनुसार गलत नीतियों के कारण वहां प्राकृतिक सक्सेशन की प्रक्रिया शुरू हो गई है और अब घाटी की उम्र महज 100 साल ही रह गई है। घाटी की अल्पायु के बारे में इस तरह की भविष्यवाणी करने वालों में एफआरआई के डॉ. जेडीएस नेगी एवं डॉ. एचबी नैथाणी के अलावा भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. पीके हाजरा, स्वर्गीय डॉ. विपिन बलोदी एवं सुरेंद्र सिंह बत्र्वाल आदि भी घाटी के वर्तमान प्रबंधन के आलोचक रहे हैं। इसके अलावा जाने-माने अनुसंधनकर्ता डॉ. तेजवीर सिंह, डॉ. जगदीश कौर एवं महेंद्र सिंह कुंवर के शोधपत्रों में भी कहा गया है कि गलत निर्णयों और अविवेकपूर्ण पर्यटन नीतियों के कारण घाटी का स्वरूप बिगड़ा है।

फूलों की घाटी की विलक्षण वनस्पति विविधता के संरक्षण के उद्देश्य से भारत सरकार ने सन् 1982 में इसे राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया। हालांकि उस समय तक वन्य जीवन में केवल वन्य जन्तु ही शामिल थे क्योंकि पादप प्रजातियां वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम 1972 में शामिल नहीं थीं। इस अधिनियम के 1994 में संशोधन के बाद पादपों को वन्य जीवन में शामिल कर दिया गया। बहरहाल जैव विविधता के संरक्षण के लिए इस घाटी में भी वही उपाय किए गये जैसे कि देश के अन्य पार्कों में किए गये या किए जा रहे हैं। मतलब यह कि घाटी पर कानून का ताला जड़ कर पर्यावरण पर पुलिस तैनात और पर्यावरण के प्राकृतिक रखवाले अपने परंपरागत हक़ों और गतिविधियों से वंचित।

1994 के संशोधित वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के घाटी में लागू हो जाने के बाद स्थानीय लोग जिन्हें ‘‘पारिस्थितिकीय लोग’’ कहा जाता है, को तथा उनकी बकरियों को पर्यावरण का शत्रु नम्बर एक मानकर पार्क में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी गई और पार्क की नैसर्गिक सुन्दरता की बिक्री के लिए देशी और विदेशी पर्यटक आमंत्रित किए जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि 5 माह के एक ही सीजन में गोविन्दघाट से ऊपर फूलों की घाटी के सिरे तक कई टन प्लास्टिक, कांच, रबर एवं पॉलीथिन जैसा स्वतः समाप्त न होने वाला कचरा जमा होने लगा। उधर बकरियों के चुगान पर प्रतिबंध से पोलीगोनम पौलिस्टैच्यूम और ओसमुण्डा जैसी प्रजातियां नाजुक जंगली फूलों को उगने से रोककर बड़ी तेजी से फैलने लगीं। यद्यपि फूलों की घाटी का कोर जोन घंरघरिया के बाद शुरू होता है लेकिन देखा जाए तो घाटी गोविन्दघाट से शुरू हो रही भ्यूंडार वैली से ही शुरू हो जाती है। हर साल जून में जब हेमकुण्ड साहिब के कपाट खुलते हैं तो नवम्बर तक उस घाटी से 5 से लेकर 6 लाख तक सिख यात्री गुजरते हैं, जो कि कई टन कचरा वहां छोड़ जाते हैं।

फूलों की घाटी की पादप विविधता के लिये सबसे बड़ा खतरा पॉलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम ने पैदा कर दिया है। हैरानी का विषय यह है कि पर्यटन विभाग सहित सरकारी विभागों द्वारा घाटी का महिमा मण्डन कर पर्यटकों को रिझाने के लिये जो फोटो प्रचारित किये जाते हैं उनमें पॉलीगोनम ही होता है। यह खर पतवार बहुत तेजी से फैल रहा है। अगर यही रफ्तार कायम रही तो कुछ ही दशकों में लगभग ढाई सौ खूबसूरत फूलों की प्रजातियों की जगह ढाई मीटर तक ऊंची पॉलिगोनम पौलिस्टैच्यूम की झाड़ियां नजर आयेंगी। पादप विज्ञानी मानते हैं कि यह फूलों की घाटी की नैसर्गिक छटा और विलक्षण जैव विविधता के अंत की शुरुआत है। इसके बाद झाड़ियां उगेंगी और उसके बाद 100 साल के अन्दर ही वहां पर घना जंगल होगा। वैसे भी जलवायु पविर्तन के कारण हिमालय पर वनस्पतियां ऊपर हिम प्रदेश की ओर बढ़ रही हैं।

वनस्पति सर्वेक्षण विभाग, वन अनुसंधन संस्थान एवं वन्य जीव संस्थान द्वारा किए गये अध्ययनों में कहा गया है कि जब फूलों की घाटी को राष्ट्रीय पार्क घोषित किया गया। उस समय सरकार को इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि वहां पादप विविधता घट रही है या बढ़ रही है। सरकारी निर्णय के 5 साल बाद वनस्पति सर्वेक्षण विभाग ने 1987 में जो सर्वेक्षण कर पादपों की सूची उसे भारत सरकार के ही वन अनुसंधान संस्थान एवं वन्य जीव संस्थान ने अधूरा बताया है।

इन तीनों केंद्रीय संस्थानों के अध्ययन के बाद बनी वनस्पतियों की सूचियों में भारी अन्तर है। वनस्पति सर्वेक्षण विभाग ने गोविन्दघाट से लेकर फूलों की घाटी के सिरे तक की 19 कि.मी. लम्बी सम्पूर्ण भ्यूंडार घाटी में 613 प्रजातियां दर्ज की हैं। जबकि वन्य जीव संस्थान के अनुसंधानकर्ताओं ने केवल 5 किमी के अन्दर 521 प्रजातियां दर्ज की हैं। इधर वन अनुसंधान संस्थान के विशेषज्ञों ने पूर्व सूची में 50 अतिरिक्त प्रजातियां होने के साथ ही कहा है सर्वे में बड़े छायादार वृक्ष भी छोड़ दिए गये जबकि बांज जैसे वृक्ष वहां न होने पर भी सूची में जोड़ दिये।

वर्तमान में लगभग 5 लाख यात्री हेमकुंड तथा लगभग 10 हजार पर्यटक प्रतिवर्ष फूलों की घाटी पहुंचते हैं। फूलों की घाटी से कहीं अधिक उससे जुड़े हेमकुण्ड साहब क्षेत्र में पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। इस क्षेत्र में दिव्य पुष्प ब्रह्मकमल समाप्ति की ओर है। यहां जहां तहां कूड़े कचरे के ढेर लगे हुए हैं। प्रतिदिन सैकड़ों खच्चरों के आवागमन के कारण गोविन्दघाट से लेकर घांघरिया तक खच्चर की लीद के अम्बार लगे रहते हैं जिससे सारा मार्ग दुर्गंध से भरा रहता है। इतने लोगों के लिए शौचालयों की व्यवस्था न होने के कारण जहां तहां मानव मलमूत्र नजर आता है। हेमकुण्ड के यात्रियों की भीड़ की जरूरतों की पूर्ति के लिए गोविन्द घाट से लेकर हेमकुण्ड तक सैकड़ों खोखे जहां-तहां खड़े नजर आते हैं।

इन खोखों को बनाने के लिये छोटे पेड़ों का ही विनाश किया गया। यहां कार्यरत विभाग में कोई तालमेल नहीं है। गढ़वाल मंडल विकास निगम स्थानीय लोगों को पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग देने तथा उन्हें पर्यटन से जोड़ने के बजाय खुद पर्यटन व्यवसायी बना हुआ है और जो कमाई वह यहां कर रहा है उसका एक प्रतिशत अंश भी पर्यावरण संरक्षण पर खर्च नहीं करता है। यही नहीं निगम पारिस्थितिकीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्र में मैदानी इलाकों की तर्ज पर पर्यटन चला रहा है। उसे पर्यावरण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन, प्राकृतिक पर्यटन एवं स्थानीय रीति रिवाज तथा वास्तुशिल्प की कोई जानकारी नहीं है।

पर्यटक स्वभाव से अति जिज्ञासु होता है। वह ऐसी जगह जाना चाहता है जहां उसे बिल्कुल नई चीजें या स्थितियां देखने को मिलें। फूलों की घाटी धीरे-धीरे अपनी विशेषताएं खोती जा रही है। योजनाकारों तथा पार्क प्रबन्धकों को यह चिन्ता नहीं कि प्राकृतिक विशेषताएं पूर्णतः समाप्त हो जायेंगी तो यहां का पर्यटन भी समाप्त हो जायेगा और साथ ही अगर प्रकृति कुपित हो गई तो वह भयंकर अंगड़ाई भी ले सकती है।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं आप आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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