यह एक ऐसा उपन्यास है, जिसका कथानक दुनिया के चार महाद्वीपों में फैला है! इसके चरित्र भी कई देशों से हैं। लेकिन अलग-अलग देशों-क्षेत्रों, धर्मों-जातियों, वर्गों और पेशों की विविधता के साथ उऩकी कुछ बड़ी समस्याओं में एकरूपता हैं। वे सब मौजूदा मानव सभ्यता की जटिल चुनौतियों से रू-ब-रू हैं। कुछ व्यवस्थागत हमलों और सभ्यतागत विकृतियों का स्वयं शिकार हो चुके हैं या हो रहे हैं। कुछ उनसे जूझने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं तो कुछ उन हमलों और विकृतियों के अध्येता और पर्यवेक्षक हैं। यह विश्व प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक अमिताभ घोष के नये उपन्यास- ‘गन आइलैंड’(2019) का हिंदी अनुवाद- ‘बंदूक द्वीप’ (प्रकाशन वर्ष-2020, प्रकाशक-एका (वेस्टलैंड),चेन्नई, अनुवादक-मनीषा तनेजा, पृष्ठ-287) है! अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के अमिताभ ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले अंग्रेजी लेखक हैं। जलवायु-परिवर्तन, संक्रमण, व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और मानव-तस्करी इस उपन्यास की कथा के केंद्र में है। विदेश में रहकर काम के सक्रिय अनुभव और प्रवासन-पलायन की अच्छी-बुरी कहानियों के सच से रू-ब-रू हुए बगैर ऐसा उपन्यास लिखना संभव नहीं!
लंबे समय बाद मैंने किसी अनूदित उपन्यास को बीच में छोड़े बगैर पूरा पढ़ गया। रुचि के साथ इसे पढ़ जाने का एक कारण, इसका बिल्कुल नया कथानक है। ईमानदारी से कहूं तो ऐसे अनोखे विषय पर मैंने आज तक किसी भाषा में कोई कथा-रचना नहीं पढ़ी थी। दूसरा कारण, इसकी औसत काया ने मुझे डराया नहीं। यह तीन सौ से कम पृष्ठों का उपन्यास है। तीसरा महत्वपूर्ण कारण, इसका सुंदर-सहज हिंदी अनुवाद है! निश्चय ही इसका श्रेय मनीषा तनेजा को मिलना चाहिए जो उपन्यास की अनुवादक हैं। मजे की बात कि वह स्पेनिश भाषा और साहित्य की प्रोफेसर हैं। इससे पहले उन्होंने गार्सिया मार्क्वेज और पाब्लो नेरूदा जैसे स्पेनी भाषा के महान् लेखकों के भी अनुवाद किये हैं। ‘एका’ की साफ-सुंदर छपाई और मनीषा के भाषायी रुपांतरण की क्षमता ने अमिताभ घोष के अंग्रेजी उपन्यास को हिंदी का अपना उपन्यास बना दिया है।
‘बंदूक द्वीप’ का नाम सुनकर ‘कन्फ्यूजन’ हो सकता है कि कहीं यह हथियारों के किसी द्वीप या हिंसा-टकराव की गाथा तो नहीं है। उपन्यास में बंदूक के व्यवसाय और हिंसा-टकराव की वैश्विक पृष्ठभूमि की छाया जरूर है पर मुख्य कथानक इससे अलग है। यह मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में बढ़ते तरह-तरह के प्रदूषण, जलवायु-परिवर्तन, प्रवासन (माइग्रेशन), संक्रमण, भ्रष्टाचार और रोजगार के विश्वव्यापी संकट पर केंद्रित है। ऐसे जटिल और गैर-रोमानी विषय पर इतनी सुंदर और रोचक कथा-रचना को साकार करना कोई साधारण काम नहीं है। वैसे उपन्यास का दिलचस्प पात्र दीनानाथ दत्ता उर्फ दीन साठ की उम्र में अपने लिए एक सुंदर-मन की पार्टनर खोजने का सपना नहीं छोड़ता! पिया में उसे संभावना नजर आती है। ‘मरीन बॉयोलाजी’ में शोध कर चुकी पियाली उर्फ पिया का कामकाज अमेरिका के ओरेगॉन से बंगाल के सुंदरबन तक फैला है। सुंदरबन के इलाके में गरीबों और जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए काम करने वाले एक ट्रस्ट से वह जुड़ी है। उपन्यास की सभी कथाएं-उपकथाएं उन जलधाराओं की तरह हैं, जो अंततः जलवायु-परिवर्तन, विस्थापन-प्रवासन और संक्रमण के उफनते समंदर में जाकर विलीन होती हैं।
मानव सभ्यता की ऐसी चुनौतियों पर उपन्यास लिखना आसान काम नहीं! अमिताभ ने उसे संभव कर दिखाया है। उनके अब तक के उपन्यासों पर नजर डालें तो वह अपने ढंग के बिल्कुल अलग रचनाकार हैं। उनकी हर रचना का कथानक अपनी मौलिकता के लिए पाठकों को चमत्कृत करता है। उनके पास ढेरों कहानियां होती हैं और बहुत सारे विचार! उनके उपन्यासों से होकर गुजरते हुए पाठक को साफ-साफ दिखता है कि लेखक अपनी हर रचना के लिए बहुत मेहनत करता है। अमिताभ अपने उपन्यासों को कथात्मक विस्तार और शिल्प की अनुकूल संरचना देने में ढालने से पहले विषय पर काफी शोध-अध्ययन करते हैं। वह सिर्फ किसी रीडिंग रूम या लाइब्रेरी में बैठकर इसे संभव नहीं बनाते, इसके लिए लंबी और खर्चीली यात्राएं करते हैं। किसी पत्रकार की तरह लोगों से मिलते-जुलते हैं, बात करते हैं और विषय से सम्बन्धित बारीक से बारीक चीजों को समझने की कोशिश करते हैं।
इस मामले में उनकी तुलना एक अन्य मशहूर भारतीय अंग्रेजी-लेखिका अरुंधति राय से की जा सकती है। ‘बंदूक द्वीप’ के संदर्भ में देखें तो वह पर्यावरण-जलवायु परिवर्तन, प्रवासन-पलायन, और संक्रमण-आपदा से लेकर समूची मानव-सभ्यता के संकट पर ढेर सारी जानकारी परोसते हैं। यह शोध-अध्ययन के बगैर संभव नहीं। अपने पात्रों के जरिये वह जो सूचनाएं, ज्ञान और विमर्श सामने लाते हैं, वो किताबी नहीं होता। उसमें अद्यतन शोधों, मीडिया-रपटों और आलेखों आदि का भी सहारा लिया गया होता है। समुद्र की अंदरुनी दुनिया, उसके जीव-जंतु, वहां आने वाले समुद्री तूफान, जलवायु-परिवर्तन और तरह-तरह प्रदूषण के कारण प्रकृति और समाज में दिखने वाली तरह-तरह की प्रक्रियाओं और आपदाओं को लेकर उनके पास सिर्फ ज्ञान ही नहीं है, उसे प्रस्तुत करने का रोचक अंदाज भी है।
उपन्यास के कई पात्रों में दो विलक्षण महिला-चरित्र और एक पुरुष-चरित्र कथा को विस्तार और आकार देते हैं। हथियारों की धंधेबाजी, भ्रष्टाचार और मानव तस्करी जैसे अपराधों से घिरी दुनिया में बंगाल से अमेरिका पहुंचा दीनानाथ दत्ता उर्फ दीन पुरानी किताबों का व्यापार करता है। प्रिया शोध-अध्ययन और एक जनकल्याणकारी ट्रस्ट से जुड़ी है। चीनता इटली के वेनिस में रहने वाली अंतर्राष्ट्रीय ख्याति की एक नेक-दिल विदुषी है, जिसे निजी जीवन के दुखद प्रसंगों और रहस्यमय लगने वाली दुर्घटनाओं ने विचलित कर रखा है। इस विचलन में भी वह मनुष्यता की सुंदर और संजीदा आवाज है। पर वह अपने जीवन की बहुत सारी चीजों को रहस्य का आवरण भी देती है। न जाने क्यों, अमिताभ ने सुंदरबन से वेनिस तक के कुछ प्रसंगों और घटनाओं के वर्णन में रहस्य या किसी परा-शक्ति की जादुई छाया दिखाने की कोशिश की है। चीनता जैसी विदुषी तो अपने निजी जीवन के घटनाक्रमों में भी इसका उल्लेख करती रहती है।
उपन्यास के तीनों प्रमुख चरित्र-दीन, चीनता और पिया अलग-अलग धंधों और विचारों के होने के बावजूद एक-दूसरे से जुड़ते हैं और ‘बंदूक द्वीप’ की कथा आगे बढ़ाते हैं। कथा में टीपू, रफी, मोयना, होरेन, नीलिमा, बिलाल, लुबना, मुनीर, पलाश, जीजा या अल्सांद्रो जैसे तमाम चरित्र वास्तविक और बिल्कुल जाने-पहचाने से लगते हैं। इनके अलावा इसमें तरह-तरह के समुद्री जीव-जंतु, खासकर अलग-अलग रंग और आकार की मछलियां हैं। ये सुंदरबन से भूमध्य सागर तक अपनी अलग-अलग छवियों और अदाओं के साथ इतराती-इठलाती दिखती हैं। लेकिन प्रदूषण के गहरे असर वाले इलाकों में ये बेमौत मरी पड़ी भी। पिया सुंदरबन के कई इलाकों में डॉल्फिन और अन्य जीव-जंतुओं को खतरनाक रसायनों के प्रदूषण और अन्य खतरों से बचाने की हरसंभव कोशिश करती है।
यही नहीं, उपन्यास की कथा अलग-अलग क्षेत्रों से होकर गुजरती है या इन क्षेत्रों का कहानी में जिक्र आता है। कहीं संक्षेप तो कहीं विस्तार से ये तमाम इलाके अपनी स्थानिक विशिष्टता, आबोहवा, सुंदरता-कुरूपता और सामाजिकता के साथ जिस तरह सामने आते हैं, वह भी कम उल्लेखनीय नहीं। ऐसे क्षेत्रों में सुंदरबन, बिष्णुपुर(भारत) मदारीपुर(बांग्लादेश), ब्रुकलिन, ओरेगॉन(अमेरिका) और वेनिस(इटली) प्रमुख हैं। वेनिस और वाराणसी की साम्यता भी दिखती है। लेखक दोनों शहरों की ऐतिहासिकता के साथ उनके होने के अनोखे अहसास का जिक्र करता है: ‘दोनों ही शहर कालखंड में उकेरी हुई तस्वीर जैसे हैं, जो सहसा ही बीते हुए समय में ले जाते हैं और आपको अपनी नश्वरता का अहसास होता है।’
भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों के शिक्षित, समझदार और अंग्रेजी पढ़े युवाओं के सपनों में यूरोप के लोकतांत्रिक और अपेक्षाकृत समावेशी समाजों वाले देश किस तरह बसे हुए हैं, उपन्यास में पलाश के जरिये इसका बहुत प्रामाणिक चित्र उभरता है। वह ढाका का बंगाली युवक है। आज का यह बड़ा सच है कि ऐसे देशों में बढ़ती निरंकुशता और सांप्रदायिक कट्टरता से समाज का ताना-बाना बिखरता नजर आ रहा है। युवाओं का संवेदनशील हिस्सा अपने भविष्य को लेकर आज सशंकित है और यूरोप के छोटे-छोटे सुंदर देशों में जा बसने का सपना देखता है। पलाश एक मीडियाकर्मी है जो प्रवासन-विस्थापन पर काम कर रहा है। वह कहता है कि किस तरह वह अपने कुछ दोस्तों के साथ फिनलैंड जाकर बसने की बात सोचता रहता था। जो चीजें ढाका में नहीं थीं, वो हमें वहां हासिल होतीं-जैसे शांत, साफ, ठंड, बिना भीड़ वाला जीवन और समाज! फिर हम दोस्तों का पहला मोबाइल फोन भी नोकिया ही था, फिनलैंड में बना!
कोरोना के मौजूदा दौर में उपन्यास का एक प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, जहां चीनता वेनिस शहर के इतिहास और वर्तमान से दीन का परिचय कराते हुए इटली में अतीत की कुछ महामारियों और उनसे निबटने की कोशिशों का इतिहास बताती हैः ‘1629 में जर्मन सिपाही मिलान में महामारी ले आये। कुछ ही हफ्तों में लाखों मर गये। महामारी एक से दूसरे शहर में फैलती गई-मन्तोवा से पडोवा और फिर वेनिस, जहां लोगों का मानना है कि कोई राजनयिक महामारी लेकर आया था।—वेनिस के लिए यह महामारी नई नहीं थी—–महामारी को काबू करने के लिए काफी कुछ लिखा जा चुका था और स्वास्थ्य परिषद की स्थापना पंद्रहवीं शताब्दी में हो चुकी थी। तुम कह सकते हो कि संक्रामक रोग से जूझने के आधुनिक स्वास्थ्य-रक्षा सम्बन्धी प्रोटोकॉल का इजाद वेनिस में हुआ था।’ जलवायु परिवर्तन, विस्थापन और युद्ध-टकराव आदि मानव सभ्यता की कितनी बड़ी चुनौती हैं, उपन्यास इसे शिद्दत से रेखांकित करता है।
उपन्यास में एक जगह चीनता और दीन वेनिस से कुछ दूर अवस्थित फुंदामेंते नोवे की तरफ जाते हैं, जहां एक किमी लंबा बांध है। यह एक निर्जन द्वीप का सुरम्य इलाका है, जिसे लेकर वेनिस में ढेर सारी दंत-कथाएं हैं। इसी इलाके में कभी चीनता के पिता अपने परिवार के साथ रहते थे। उसके दादा मछुआरे थे। इसी इलाके के लैगून (विशाल जल धारा या झील) की एक खास जगह चीनता गंभीर रूप से चोटिल हो जाती है। लकड़ी के लट्ठों और बल्लियों से बनी एक संरचना टूट जाती है और चीनता पानी में गिर पड़ती है। लकड़ियों में लगे कीड़ों ने उसे अंदर ही अंदर खोखला कर रखा था और वह संरचना चीनता और दीन का वजन नहीं झेल सकी। दीन तो बच गया लेकिन चीनता को काफी चोट आई और उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इस दुर्घटना के जरिये लेखक जलवायु परिवर्तन के वास्तविक खतरों को सामने लाता है।
लैगून के पानी के बढ़ते तापमान से पानी के अंदर नये-नये तरह के जीव-जंतु पैदा हो रहे हैं। चीनता के साथ जो दुर्घटना घटी, उसके पीछे ऐसे ही कुछ जल-जनित कीड़ों की खतरनाक कारगुजारिय़ों की भूमिका रही। दुर्घटना से ऐन पहले जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय खतरों का जिक्र करते हुए चीनता दीन को बताती हैः ‘ लैगून के पानी के बढ़ते तापमान के चलते यह (कीड़े) बड़ी संख्या में वेनिस पर धावा बोल रहे हैं। ये भारी मात्रा में लकड़ी को अंदर से खा जाते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या बन गई है क्योंकि वेनिस तो लकड़ी के लट्ठों पर ही बना है! ये तो शहर की नींव खा रहे हैं।’ ऐसे में पानी के तापमान बढ़ने से पैदा होने वाले खतरों को समझना मुश्किल नहीं! चीनता इन शिपवर्म को ही ‘दैत्य’ कहती है। अगर जलवायु परिवर्तन और पानी के तापमान को बढ़ने से रोकने की कोशिश नहीं की गई तो ‘ये दैत्य’ किसी भी दिन वेनिस की खूबसूरत दुनिया को तबाह कर सकते हैं।
उपन्यास के अंत में लुकानिया नामक नौका पर सवार होकर दीन, पिया, चीनता, जीजा, रफी और पलाश सहित सभी अन्य लोगों के समुद्र-अभियान का अद्भुत चित्रण है। इस अभियान का मकसद प्रवासियों से भरी एक नीली नाव पर सवार टीपू जैसे शरणार्थियों को बचाना है। रफी के जरिये सारी कहानी सामने आती है, जो टीपू के साथ अवैध तरीके से अच्छे जीवन और बेहतर रोजगार की तलाश में परदेस के लिए निकला था। लेकिन बीच में ही सबकुछ साफ हो गया कि वे सब मानव-तस्करों और देस-परदेस तक फैले माफिया-गिरोहों के ष़डयंत्र में फंस गये हैं। रफी तो किसी तरह इटली पहुंच आया लेकिन टीपू उतना सौभाग्यशाली नहीं था। वह किसी गिरोह के षड्यंत्र में फंसकर मिस्र की तरफ जा पहुंचा। अब वहां से नीली नौका पर बैठे लोगों को एक झुंड इटली के वेनिस की तरफ आ रहा है। इसे लेकर वहां की सरकार और दक्षिणपंथी संगठनों का कड़ा रुख है।
वे किसी कीमत पर अवैध ढंग से आ रहे शरणार्थियों को वेनिस के अंदर दाखिल नहीं होने देना चाहते। दूसरी तरफ पिया-दत्ता-चीनता सहित अनेक मानवाधिकारवादी समूह इन लोगों को शरण देने के पक्ष में स्वयं भी नौका लेकर समुद्र में निकल पड़े हैं। इटली की नौसेना के एक संजीदा और संवेदनशील एडमिरल अल्सांद्गो के आदेश पर उन सभी शरणार्थियों को बचाकर सुरक्षित स्थान पर ले जाया जाता है। उपन्यास निजी दुखांत और सामाजिक सुखांत के साथ खत्म होता है। पहले से अस्वस्थ चीनता की समुद्री नौका की कैबिन में ही अचानक मौत हो जाती है। मरने से पहले दत्ता से वह कई साल पहले एक कार-दुर्घटना में मर चुकी अपनी बेटी लूचीआ के साथ जश्न मनाने और फिर उसके साथ चले जाने की बात कहती है।
दत्ता डाक्टर बुलाने ऊपर भागता है। लौटता है, तब तक चीनता के जीवन का अंत हो चुका होता है। दूसरी तरफ चीनता की बौद्धिक अगुवाई में आयोजित शरणार्थियों की रक्षा का अभियान एक संवेदनशील एडमिरल के आकस्मिक हस्तक्षेप से कामयाब हो चुका होता है। चीनता जैसी जीवंत पात्र के जीवन और विचारों के इर्दगिर्द रहस्य का अबूझ घेरा डालने का लेखकीय उपक्रम मुझे बेमतलब लगता है। उपन्यास अपनी मूल कथा में स्वयं ताकतवर है। उसे किसी रहस्य की जरूरत नहीं दिखती। असमानता, लूट और मानव तस्करी सहित तरह-तरह के अपराधों से पिचकती दुनिया में मनुष्यता और सदाशयता की तलाश है-बंदूक द्वीप।
संयोग देखिये, मूल अंग्रेजी में यह उपन्यास सन् 2019 में प्रकाशित हुआ। उसके कुछ ही महीने बाद पूरी दुनिया बड़ी महामारी से घिर गई। चीन के वुहान में नवम्बर, 2019 में पहली बार कोविड-19 नामक वायरस से संक्रमण की शिनाख्त हुई थी। कुछ खास लक्षणों के साथ बीमार होने वाले लोगों की मौतें होने लगीं। कुछ ही समय बाद चीन से यह संक्रमण पूरी दुनिया में फैल गया। चीन ने अपनी अद्यतन खोजों के आधार पर दावा किया कि कोविड-19 का वायरस उसके वुहान में पश्चिम के देशों से आया था। बहरहाल, कोविड-19 ने जल्दी ही महामारी का रूप ले लिया और पूरी दुनिया में आज उससे संक्रमित लोगों की संख्या 9 करोड़ 70 लाख से ज्यादा है और कुल मौतें 20 लाख का आंकड़ा छूने वाली हैं। 2021 में भी इस वायरस से दुनिया को छुटकारा मिलने की संभावना नहीं नजर आ रही है।
विस्मयकारी है कि अमिताभ घोष ‘बंदूक द्वीप’ में ऐसी महामारी से आक्रांत समाज का हवाला देते हैं, जिसमें लोगों को ‘क्वॉरंटीन’ पर भेजा जाता था। मुंह पर चोंचनुमा मास्क लगाने का भी जिक्र आया है। उपन्यास में लॉस एंजेलिस में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार की भी चर्चा है। उसमें एक इतिहासकार-वक्ता के संबोधन के हवाले अमिताभ ने सत्रहवीं सदी में महामारी का चित्र पेश किया है। उपन्यास का वह हिस्सा किसी ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह लगता है लेकिन उपन्यास की मूल-कथा में इस प्रकार गुंफित है कि पाठक को तनिक भी अनावश्यक नहीं लगताः ‘सत्रहवीं शताब्दी में दुनिया के कई हिस्सों में भुखमरी, अकाल और महामारी फैली थी। उस दौरान आसमान में धूमकेतुओं का तांता लगा था और धरती भूकम्पीय गतिविधियों से हिल गई थी; भूकंप ने शहरों को तोड़ दिया था और ज्वालामुखियों ने वातावरण को पता नहीं कितनी मिट्टी और राख से पाट दिया था। लाखों लोग मर गये थे।
दुनिया के कुछ हिस्सों में तो जनसंख्या एक-तिहाई कम हो गयी थी। इन दशकों में जितने युद्ध हुए, पहले कभी नहीं हुए थे। यूरोप के कई हिस्से जंग की चपेट में थे; इंग्लैंड अपने इतिहास की सबसे बड़ी अंदरूनी उथल-पुथल-गृहयुद्ध देख रहा था और मध्य यूरोप तीस वर्षीय युद्ध से बर्बाद हो गया था; तुर्की में भयंकर सूखे के चलते इस्तांबुल में तबाही मचाने वाली आग लगी, जिसने उस्मान साम्राज्य को हिलाकर रख दिया।———लेकिन इस युग का सबसे बड़ा विरोधाभास ये था कि जबरदस्त उथल-पुथल के साथ-साथ एक असाधारण बौद्धिक और रचनात्मक उफान भी दिखाई पड़ा। इसी समय प्रबोध युग की शुरुआत हुई थी।’ संयोग या दुर्योग, जो भी कहें, आज भारत सहित दुनिया भयावह वायरस से आक्रांत है। महामारी से निपटने के नाम पर बड़ी कंपनिय़ां और बड़े निजी अस्पताल लोगों को लूट रहे हैं। अनेक देशों-राज्यों की सरकारें पहले से भी ज्यादा निरंकुश आचरण कर रही हैं। असमानता बढ़ रही है और वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र पिचक रहा है। ऐसे में यह सवाल चारों तरफ से उठ रहा है-असमानता, अन्याय और निरंकुशता के इस अंधेरे में क्या असाधारण बौद्धिक और रचनात्मक ऊर्जा का कोई नया प्रबोध-युग शुरू होगा?
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ कई किताबों के लेखक हैं। आप राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी संपादक हैं।)