पिछले सात सालों में एक किस्म का जीवंत सा कुटीर उद्योग उभर आया है, जिसके दो असमान से पक्ष नजर आते हैं। एक, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को मुफ्त में राजनैतिक सुझाव दे रहा है। दूसरा, दृढ़ता से उन्हें राजनैतिक बनवा में गुम हुआ मान रहा है। लेकिन यह उद्योग हमें यह नहीं समझा पाता है कि यह गांधी का वंशज बीजेपी के फैलते जा रहे साम्राज्य के लिए कैसे एक खतरा है। किसी हद तक यह टिप्पणीकारों के प्रधान मंत्री के नए भारत की छवि से काफी हद तक समझ न पाने की वजह से हो सकता है। इस सब की तस्वीर अब साफ हो चुकी है और इसके तीनों आयामों का आकलन जरूरी है।
नया भारत
सबसे पहले, मोदी जी का पसंदीदा राजनैतिक आदर्श चीन से प्रेरित है।चीन के साम्यवादी दल की तरह बीजेपी समूचे राजनैतिक फलक पर पूरा कब्जा करना चाहती है। इसलिए हमे यह सर्वव्यापी राजनीति के लिए व्यग्र नजर आती है, ताकि विपक्ष की या तो बोलती बंद हो जाए, या उसे गैर जरूरी बना दिया जाए। उद्देश्य के लिए समर्पित यह राजनैतिक चेष्टा, सेंट्रल विस्ता के पूरी तरह बन जाने तक चलेगी। संसद का नया भवन न केवल लुटविन की दिल्ली को भौतिक रूप से खतम कर देगा, बल्कि चुनाव क्षेत्रों के सीमाकरण की औपचारिकताओं के पूरा होने पर सांसदों की दुगुनी संख्या वाला भव्य सभा स्थल भी बन जायेगा।
चीन की नेशनल पीपुल्स पार्टी के बारे में ज्ञाताओं को पता ही होगा कि इस कांग्रेस के लगभग 2980 सदस्य हैं , जिनमें अधिकतर अंश कालिक हैं और मुफ्त में अपनी राय देते हैं। एनपीसी रबर की मोहर की तरह ही काम करती है, क्योंकि इतने संख्या वाले सदन में तर्क वितर्क और चर्चा करना मुश्किल है। इस कारण इसकी शक्तियां, इस समिति के एक भाग, केंद्रीय समिति, में ही केंद्रित हो गई हैं, बल्कि उस के भी आगे सात सदस्यों के एक गुट, स्थाई समिति में ही केंद्रित हो गई हैं। इस प्रकार वास्तविक शक्तियों का बहुत हद तक केंद्रीयकरण का दिया गया है। पूरी संभावना है कि सेंट्रल विस्टा में भी चीन के इस राजनैतिक गणित और ज्योमिति के भारतीय संस्करण की स्थाई पोलित ब्यूरो की छवि नजर आए। इस पोलित ब्यूरो में केवल श्री मोदी और गृह मंत्री श्री अमित शाह ही होंगे, जो एक दो भागों में मौजूद आंशिक रूप से स्वतंत्र प्रजा तंत्र जैसी होगी।
इसका दूसरा आयाम अर्थव्यस्था है जो सरकार का पूरी तरह समर्थन प्राप्त, एक परिवार द्वारा द्वारा नियंत्रित निगमों के गुट जैसा होगा। और यह मॉडल दक्षिण कोरिया की शैबल्स की निर्मिती पर आधारित है। पत्रकार हर्ष दामोदरन ने हाल ही में अपने एक लेख में यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसी गिनती के एक दो ऐसे गुट भारत की सारी अर्थव्यवस्था पर छा गए हैं।दरअसल, भारत के इस शेबल्स की झलक अहमदाबाद में बने विश्व के सबसे बड़े स्टेडियम में पहले ही नजर आ रही है।इस स्टेडियम के बोलिंग और बैटिंग, दोनो छोर बड़ी ढीठता से सरकार और इन दो पारिवारिक गुटों के बीच बने गठबंधन को दिखाते हैं।
लेकिन इसमें कुछ अंतर है। दक्षिणी कोरिया के शेबलस, वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किए गए थे। और उनकी सफलता का दारोमदार वैश्विक मंडियों और वितरण व्यवस्थाओं को हथियाने पर है।पर नई दिल्ली के इन दो शबल्स में ऐसा कुछ नजर नहीं आता।
विमुद्रीकरण, जीएसटी लागू करने और किसानों से संबद्ध कानून बनाने को अगर हम इस तरह देखें कि बहुतों(जैसे लघु और मध्यम उद्योग, व्यापारी, दुकानदार, मझौले किसान इत्यादि)की आम पूंजी को कुछ लोगों, खासकर नई दिल्ली के शाबल्स को निरंतर हस्तांतरित किया जा रहा है, तो इसमें कोई हैरानी की बात नजर नही आयेगी कि संक्रमण के साल में भारत के अरबपतियों की संपति में 35 प्रतिशत की वृद्धि हो गई , जबकि काम काज करने वालों की कमाई और बचत काफी हद तक नष्ट हो गई।लेकिन स्पष्ट बात यह है कि कॉविड 19 से पहले ही नियमित रूप से संपदा हस्तांतरण की इस चाल की गति लॉक डाउन में और तेज हो गई।
तीन आयामों के तीसरे और आखिरी दौर में, भारत के विषम , बहुमुखी और ऐतिहासिक रूप से बहुस्तरीय जीवन पद्धति में हिंदुत्व का जहर घोल दिया गया। नागरिकता (संशोधन) एक्ट और अनुच्छेद 370 की समापति की हद तक किए गए सोशल इंजीनियरिंग के प्रयास का मकसद भारत की सांस्कृतिक सहजता पर प्रहार करना था। कोई भी या तो हिंदू होगा या मुस्लिम, निरामिष या सामिष, भक्त या राष्ट्र विरोधी इत्यादि। भारत के गुंथे, विभिन्न रंगों के मेल जोल और स्पष्ट और रहस्यमयी इतिहास से अब कुंठित, इकहरे और बेनूर भारतीय नागरिक का ही जन्म होगा।
लोकलुभावनवाद अब पूरे विश्व में मौजूद है
संक्षेप में , नई दिल्ली की कार गुजारी दरअसल, चीन (राजनीति), दक्षिणी कोरिया (अर्थव्यवस्था) और भारत (हिंदुत्व वाला समाज) को एक राष्ट्रवादी ब्लॉक में ढालने का एशिया के बहुमुखी प्रयास का हिस्सा लगती है। क्या हमें ऐसा राजनैतिक परिदृश्य तैयार करने का सारा श्रेय श्री मोदी और श्री अमित शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी को दे देना चाहिए।
ऐसा जरूरी नहीं। 2011 से वैश्विक राजनीति ने तेजी से दक्षिण पंथी लोकलुभावनवाद की तरफ पलटी मारी है। यह सब हंगरी में विक्टर ओरबान के चुनाव से शुरू हुआ, और ब्रेक्सिट के ब्रिटेन, डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका, रोडरीग डूटेरत के फिलिपींस, रेसेप तय्यप एरडोगन के तुर्की और बोलसनारो के ब्राजील में फैल गया। जैसा कि हॉलैंड के स्कॉलर कास मुद्दे ने बताया है कि, लोकलुभावनवाद की लहर से पता चलता है कि कैसे शक्ति शाली पुरुष (सभी पुरुष, महिलाएं नहीं) उदार लोकतंत्र की गलतियों से खेलते हैं।और इस सबके मूल में थी उनकी सूचना प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया को अपने ढंग से इस्तेमाल करते हुवे संस्थाओं को ध्वस्त करने,असहमति का गला घोटने और लोकतांत्रिक समाज का विनाश करने का दंभ।मतलब श्री मोदी और श्री अमित शाह ने कोई नई बात नही की थी, बल्कि वे विश्व में कहीं अपनाए गए तरीके ही इस्तेमाल कर रहे थे।
इस बड़ी तस्वीर में ही श्री गांधी के व्यक्तित्व और नीतियों को अच्छी तरह समझ सकते हैं। भारतीय राजनीति में राहुल मध्यम मार्ग पर अपनी पकड़ रखना चाहते हैं। बीजेपी और आरएसएस और उनका सहयोगी निर्मम दक्षिण पंथ राजनीति के हर संभव बिंदु पर ,जबरदस्त कुशलता और हथियाने की पूरी चालाकियों से छा गए हैं। इसके विपरीत , हमेशा मध्य मार्गी रही ( संयम, सूझ बूझ, एडजस्टमेंट और पारस्परिकता पर चलती हुई) कांग्रेस का उद्देश्य शासन में अनिवार्य नरम सामाजिकता का रहा। जबकि मोदी और शाह ने तापमान के स्थायित्व के तंत्र को नकार दिया है और वे अथक रूप से समाज के मंथन और स्थाई बवाल बनाए रखने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं । मतलब सघन राजनैतिक चालाकियां और और लोगों को अपने पक्ष में जुटना।
मध्य मार्ग अभी भी संभव है
दक्षिण पंथ का इतना दबाव होने के कारण, राजनीति में मध्यम मार्ग अपनाने वाले राजनैतिक दल के लिए सबसे जरूरी राजनीति होगी अपनी पकड़ मजबूत रखना।और अपनी जानी अनजानी गलतियों के बावजूद श्री गांधी ने अपनी कारगुजारियां से सुनिश्चित किया है कि कांग्रेस वाम या दक्षिण, किसी भी तरफ जल्दबाजी में पलटी मारकर अपना खात्मा न कर सके। जैसा कि , द वायर में विश्लेषक सुशील उरांव ने लिखा है , मध्य मार्ग अपनाए रखने का दायित्व पूरी तरह श्री गांधी पर रहा है, जिन्होंने पिछले कई सालों से शालीनता की नीति को बरकरार रखा है और एक सामाजिक लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न भी। एक बेहद विरोधी राजनैतिक माहौल में, वे ऐसे ही आचरण और विचारों को व्याख्यायित करने और कायम रखने में वे कामयाब हुए हैं।दूसरे शब्दों में, संदेशवाहक से ज्यादा संदेश मुखर हुआ है।और इसी कारण श्री गांधी एक वंश के नही बल्कि विरासत के वाहक हैं।
जैसे जैसे श्री मोदी की स्थाई पोलित ब्यूरो, स्थाई बवाल के लिए, हिंदुत्व से प्रचलित गतिविधियों द्वारा आम लोगों की संपदा को भारत के शाबल्स को हस्तांतरित करेगी, शायद राह में लगा कोई झटका या मध्य मार्ग के लिए उभरी चाह भी सांस्थानिक प्रतिबंधों को फिर बहाल कर दे और जनमानस में शालीनता फिर लौट आए। अगर हमें ऐसे ही भविष्य की आकांक्षा है तो श्री गांधी की विरासत के संदेश की प्रासंगिकता रहेगी, भले ही इस की शीघ्र जरूरत न हो।
लेख- राजेश महापात्रा और रोहन डिसूजा
महावीर सरबर (अनुवादक अंग्रेजी से हिंदी)