अलविदा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी! दास्तानगोई को जिंदा कर खुद बन गए दास्तां

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1995 के आस-पास का वक्त रहा होगा। किसी बातचीत में उनकी लाइब्रेरी का ज़िक्र सुना था। इलाहाबाद के घर में उनकी लाइब्रेरी के क़िस्से की छाप दिमाग़ में रह गई। हम अपनी निजी चर्चाओं में उन्हें लाइब्रेरी वाले फ़ारूक़ी साहब के तौर पर ही जानते थे। तब मैं उन्हें नहीं जानता था। कम पढ़ा-लिखा होने का फायदा यही है कि आप बहुत सी चीजें बहुतों के बाद जानकर उत्साहित हो रहे होते हैं। इसलिए मेरे भीतर के उत्साह बहुत बाद के उत्साह की तरह हैं। बारात के चले जाने के बाद शामियाने में गिरे बूंदी के दानों को देखकर रात के खाने का अंदाज़ा और अफ़सोस करने की बेक़रारी का अपना स्वाद होता है।

जब कई साल बाद उनकी रचना ‘कई चांद थे आसमां’ (पेंग्विन प्रकाशन) पढ़ी तो उन्हें जानने लगा। वो भी इसलिए कि पहले ही पचास पन्नों ने जादू कर दिया था। बहुत कम लोगों से मिलने की तमन्ना रही, जिनमें से शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी भी थे। दिमाग़ में उनकी ऐसी छवि बन गई कि दो दो बार इलाहाबाद गया, याद भी रहा, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। वो होता है न कि ख़ानदान या दुनिया की किसी बड़ी शख़्सियत की आप इतनी इज़्ज़त करने लगते हैं कि उनके सामने से न गुज़रना भी इज़्ज़त करने में शुमार हो जाता है, जबकि महमूद और अनुषा के कारण मेरा मिलना कितना आसान था। सोचता ही रह गया कि जब उनके घर आएंगे तो आराम से लंबी बातचीत करूंगा। ख़ैर।

मिलने से ज़्यादा उनकी लाइब्रेरी देखने की तमन्ना थी। देखा कब जिस दिन शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी इस दुनिया और अपनी लाइब्रेरी को हमेशा के लिए छोड़ गए। 25 दिसंबर की शाम महमूद फ़ारूक़ी ने वीडियो बना कर भेजा। अब कभी सामने से देखना होगा तो उनकी ग़ैरहाज़िरी में ही होगा। इस लाइब्रेरी को आप भी देखिए। देख कर भी बहुत कुछ पढ़ने लायक़ मिलेगा।

लेखक का कमरा हमेशा देखना चाहिए। एक कारख़ाना होता है, जहां वह एक कारीगर की तरह अपने ख़्यालों के कच्चे माल को तराश रहा होता है। फ़ारूक़ी साहब जैसे एक लेखक के बनने में कई लेखकों का साथ होता है। कई साल और कई हज़ार घंटे की तपस्या होती है। ये महज़ किताबें नहीं हैं, शम्स साहब के पुरखे हैं। दोस्त हैं। हमसफ़र हैं। कितनी तरतीब से रखी गईं हैं। शम्स साहब एक क़ाबिल मुहाफिज़ ए क़ुतुब ख़ाना रहे होंगे।

एक अच्छे आलोचक को बनने के लिए कितनी किताबों का जीवन जीना पड़ता होगा। आप इस वीडियो को देखते हुए जानेंगे कि लेखक होने या आलोचक होने की प्रक्रिया क्या होती है। शम्स साहब विद्वान माने गए तो यह ख़िताब खेल-खेल में हासिल नहीं हुआ, बल्कि कमरे में कुर्सी पर जमकर लिखने पढ़ने से हुआ। आप जानेंगे कि एक लेखक की जीवन यात्रा कई किताबों की होती है।

शम्स साहब ने दास्तानगोई की दोबारा खोज की। दास्तानगो महमूद फ़ारूक़ी और बहुत से लोग दास्ताने अमीर हमज़ा से परिचित हुए तो उनकी वजह से। अब हम रोज़ नए-नए दास्तानगो पैदा होते देखते हैं। क़िस्सा कहने की खो चुकी रवायत को ज़िंदा कर दिया और आबाद भी। कभी आप महमूद फ़ारूक़ी और मोहम्मद काज़िम की किताब दास्तानगोई (राजकमल प्रकाशन) में दास्तान पर शम्स साहब का लिखा पढ़िएगा।

चंद पन्नों में दास्तानगोई का जो ख़ाका पेश किया है वो कई किताबों से निकला सार है। इसी किताब में महमूद ने लिखा है, “दास्ताने अमीर हमज़ा 46 जिल्दों या 45 हज़ार सफ़हात पर फैली एक अनोखी दास्तानों रिवायत, उसके किरदार, उसका असलूब, उसकी ज़बान, उसका तख़य्युल, आदमी किस किस चीज़ पर दम भरे।” आह!

बहरहाल आप शम्स साहब की लाइब्रेरी ज़रूर देखें। किताबों को प्यार करें। पढ़ें। पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब। पढ़ने वाला नवाब होता है। यह मुहावरा भी हमारी मिट्टी का है।

अलविदा फ़ारूक़ी साहब।

(लेखक चर्चित टीवी पत्रकार हैं।)

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