जब सुबहें मातम में लिपटी हों और शामें ख़ून की आहट लिए लौटें, जब फ़िज़ाओं में शहनाइयां नहीं, सायरनों की चीख़ गूंजे, और जब फ़ौजी बूटों की धमक बच्चों की लोरियों पर भारी पड़ जाए- तब समझ लीजिए कि सरहद पर नहीं, तहज़ीब की रूह पर हमला हुआ है। और जब रूह ज़ख़्मी हो जाए, तो तलवारें नहीं, तहरीरें ज़रूरी हो जाती हैं।
22 अप्रैल की दोपहर जब पहलगाम की वादियों में गोलियां चलीं, तो सिर्फ़ 26 ज़िंदगियां नहीं गईं- एक उम्मीद का कत्ल हुआ। वो उम्मीद, जो भारत और पाकिस्तान के दरम्यान कभी ग़ालिब की ग़ज़ल, अमृता की तहरीर, फैज़ की नज़्म और जॉन की मोहब्बत में जिया करती थी। एक बार फिर सरहद पर धुआं उठा, और ज़मीर के माथे पर राख जमी।
भारत ने जवाब दिया- और इस बार जवाब लफ़्ज़ों में नहीं, फ़ैसलों में था। 1960 की सिंधु जल संधि, जिसे दुनिया सबसे सहिष्णु जल-साझेदारी का मिसाल मानती रही, निलंबित कर दी गई। वाघा-अटारी बॉर्डर की वो चौकी, जहां लोग तिरंगे और हरे झंडे एक ही उत्साह से लहराया करते थे, बंद कर दी गई। वीज़ा प्रक्रियाएं ठप, हवाई सीमाएं सील, उच्चायुक्त वापस, और जवाब में पाकिस्तान का भी वही रास्ता- 1972 का शिमला समझौता, इतिहास का वो दस्तावेज़ जो दो जंगों के बाद अमन का दरवाज़ा बना था, उसे भी रद्द कर दिया गया।
ये घटनाएं महज़ कूटनीतिक मोर्चेबंदी नहीं हैं- ये उस रिश्ते की दरकती नींव की दास्तान हैं, जिसे कभी लाहौर के मीनारों से लेकर दिल्ली के लाल क़िले तक की हवाओं ने साझा किया था।
लेकिन सवाल यह है- क्या हर बार जब बारूद की बू फैले, हमें अमन का चूल्हा बुझा देना चाहिए?
क्या हर बार हम उस पुल को तोड़ दें, जिसे नदियों ने नहीं, सदियों की तहज़ीब ने जोड़ा था?
क्या जंग अब भी कोई हल है, जब दोनों मुल्क परमाणु ताक़तों के शिकंजे में बंधे खड़े हैं?
इस बार फर्क ये है कि दुनिया का मंजर भी बदल चुका है।
ग़ज़ा की चीखें, यूक्रेन की जली हुई ज़मीन, चीन की चुप्पी और अमेरिका की चालें, इन सबके बीच भारत और पाकिस्तान का टकराव अब एक “क्षेत्रीय संघर्ष” नहीं, बल्कि “वैश्विक चिंता” बन चुका है।
भारत में ग़म है, ग़ुस्सा है, और वो जायज़ है।
पाकिस्तान में सफाई है, इन्कार है, और वह अपनी जगह सवालों के घेरे में है। लेकिन इन दोनों के बीच एक तीसरा किरदार भी है- आम इंसान।
वो कलाकार जो मुहब्बत की जुबान में बात करता है,
वो कारोबारी जो बॉर्डर के आर-पार रिश्ते जोड़ता है,
वो अम्मा जो आज भी लाहौर की गलियों को दिल्ली के पिछवाड़ों से जोड़ती है।
हर बार जब बातचीत टूटती है, सिर्फ़ सियासत हारती है – नहीं साहब, इंसानियत हारती है।
हमने 1947 देखा, 1965 और 1971 के ज़ख़्म अब भी हमारे नक़्शों में रिसते हैं। कारगिल की चोटें अब भी जवानों के कब्रिस्तानों में दर्ज हैं। पुलवामा और बालाकोट, उरी और पठानकोट, हर बार दोनों मुल्कों ने खून के आंसुओं से दीवारें रंगी हैं- लेकिन क्या उन दीवारों ने कभी पनाह दी है?
जवाब में एयरस्ट्राइक, आर्थिक प्रतिबंध, जल-नीति का हथियार- ये सब सुर्खियों में तो आते हैं, लेकिन क्या ये राहत लाते हैं?
क्या विंग कमांडर अभिनंदन की वापसी एक मुनासिब मोड़ नहीं था, जब दोनों देश फिर से बात की मेज़ पर आ सकते थे?
लेकिन नहीं- नफरत के कारोबार में संवाद घाटे का सौदा है।
आज हमें पूछना होगा- क्या हमारी हुकूमतें हमें युद्ध के डर में पाल रही हैं?
क्या हर हमला, हर जवाब, एक और चुनावी कार्ड बनता जा रहा है? क्या हमारी मीडिया महज़ TRP की होड़ में बारूद के काफिले बेच रही है?
जो भी हो, एक सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता-
जंग आख़िरी नहीं होती, लेकिन इंसान आख़िरी हो जाता है।
भारत-पाक के बीच की खामोशी अब ख़तरनाक होती जा रही है। संघर्ष से ज़्यादा संघर्ष की अनदेखी डरावनी है। हर बंद दरवाज़ा, हर टूटा समझौता, हर निलंबित संवाद- यह सब मिलकर उस पुल को कमजोर करते हैं, जिस पर आने वाली नस्लें चलने वाली थीं।
इसलिए, ये वक़्त तलवारें चमकाने का नहीं, ज़ुबानें तराशने का है। ये वक़्त जवाब में पत्थर फेंकने का नहीं, आईने दिखाने का है। और ये आईना सबसे पहले हमें ख़ुद को दिखाना होगा- क्योंकि अमन महज़ एक शब्द नहीं, एक फ़र्ज़ है, एक लड़ाई है, जो हर बार बंदूक से नहीं, कलम से लड़ी जाती है।
(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)