अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका अरुंधति राय के खिलाफ 14 साल पुराने एक मामले में दिल्ली के राज्यपाल वीके सक्सेना ने यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दी है। चुनाव नतीजों के ठीक बाद सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले से लोग बेहद अचरज में हैं। और इसके पीछे की वजहों की तलाश में जुट गए हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि यह फैसला किसी एलजी का नहीं बल्कि केंद्रीय गृहमंत्रालय और पीएमओ के स्तर पर लिया गया है। लेकिन चुनाव के तुरंत बाद जबकि जनादेश पिछली सरकार के खिलाफ रहा हो और केंद्र में सरकार के गठन के लिए भी बैसाखी की जरूरत पड़ रही हो।
ऐेसे में इस तरह के किसी तानाशाहीपूर्ण फैसले के पीछे असली वजह क्या हो सकती है? इसको लेकर कयासों का बाजार गर्म है। कई वजहों में से एक वजह नीट का आया नतीजा बताया जा रहा है। जिसमें सरकार चौतरफा घिर चुकी है। नीट परीक्षा में हुई धांधली अब खुल कर बाहर आ चुकी है। और यह धांधली किसी एक स्तर पर नहीं बल्कि ग्रेस मार्क से लेकर सामूहिक नकल के जरिये प्रतियोगियों को पास कराने तक गया है।
मोदी सरकार के राजनीतिक मॉडल की प्रयोग स्थली गुजरात नकल के क्षेत्र में भी मॉडल साबित हुआ है। गोधरा को बाकायदा दूसरे सूबों मसलन उड़ीसा, झारखंड और यूपी के छात्रों ने अपना परीक्षा केंद्र बनाया था। इससे समझा जा सकता है नकल का यह रैकेट कितना संगठित और फुल प्रूफ था। क्या यह परीक्षा संचालित कराने वाली एजेंसी में ऊपर के स्तर की सहमति के बगैर संभव था? और अब तो बिहार में गिरफ्तार प्रतियोगी छात्रों के कुबूलनामे ने सब कुछ साफ कर दिया है। नकल किस तरह से हुई और परीक्षा कैसे करायी गयी। और फिर उनको कैसे उत्तीर्ण कराया गया सब कुछ साफ हो गया है। और इस मसले पर केंद्र सरकार का रवैया रेगिस्तान के शुतुर्मुर्ग सरीखा रहा। शिक्षा मंत्री ने तो पहले संज्ञान ही नहीं लिया फिर पूरी नकल की बात को ही खारिज कर दिया।
अब जबकि नये तथ्य सामने आ गए हैं और सब कुछ दूध और पानी की तरह साफ हो चुका है। तब उनको न बोलते बन रहा है और न ही चुप रहते। इस पूरी घटना ने पहले से ही रसातल में जा चुकी केंद्र सरकार की साख को और रसातल में पहुंचा दिया है। लिहाजा तत्काल इस मसले से कैसे लोगों का ध्यान भटकाया जाए उसके लिए सरकार ने एक ऐसी शख्सियत को चुना है जिसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम है। उसको लगता है कि उसका मामला सामने आने के बाद ही लोग उस बहस में मुब्तिला हो जाएंगे। यह अपने लिहाज से एक डायवर्जनरी टैक्टिस है जिसके लिए यह पूरा कुनबा जाना जाता है। इसके साथ ही कुछ लोग इसे हाल में कश्मीर में हुई तमाम आतंकी कार्रवाइयों से भी जोड़कर देख रहे हैं। जिसमें सरकार के लिए अंरुधति के मामले को फिर से प्रासंगिक करने का मौका मिल गया है।
राजनैतिक तौर पर अभी उस तरह का माहौल नहीं है जिसमें सरकार इस तरह की किसी कार्रवाई का बोझ उठा सके। केंद्र में एक ऐसी सरकार बनी है जो दूसरों के कंधों के सहारे चल रही है। और वे सहारे भी ऐसे हैं जो इनकी सांप्रदायिक, दक्षिणपंथी और फासीवादी राजनीति से परहेज करते हैं। और एक जमाने से देश में एक सेकुलर तथा लोकतांत्रिक राजनीति के पैरोकार रहे हैं। वैसे तो सरकार ने भले ही मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी है लेकिन गिरफ्तारी कर पाना उसके लिए अभी इतना आसान नहीं होगा। लेकिन फिर भी अगर अरुंधति को गिरफ्तार किया जाता है तो जनता किसी अमित शाह और मोदी से उसका जवाब नहीं मांगेगी जो अपनी तानाशाही और क्रूरता के लिए जाने जाते हैं। बल्कि सबके सवालों का तीर जेडीयू और टीडीपी की तरफ होगा। जिन्होंने इस सरकार को बहुमत के आक्सीजन से जिंदा कर रखा है।
टीडीपी मुखिया चंद्रबाबू नायडू से ज़रूर ये पूछा जाएगा कि किसी 14 साल पुराने मामले में देश की एक प्रख्यात लेखिका को कैसे गिरफ्तार किया जा सकता है? वह लेखिका जिसने भारत का नाम दुनिया में रौशन किया है। देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए उन्होंने जिस साहस का परिचय दिया है। देश में शायद ही कोई दूसरा लेखक या पत्रकार वैसा कर पाया हो। तो क्या संविधान बचाने और लोकतंत्र को फिर से जिंदा करने की उन्हें सजा दी जाएगी? नायडू से ज़रूर यह पूछा जाएगा कि फिर तो आपकी गिरफ्तारी को भी सही माना जाना चाहिए? या फिर आप उसी तरह के माहौल को बनाए रखना चाहते हैं।
जिन परिस्थितियों में आपको गिरफ्तार किया गया था? जबकि सच्चाई यह है कि सत्ता में आने से पहले आप इस तरह की कार्रवाइयों के खिलाफ थे। और हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अरुंधति केरल से आती हैं। और नायडू का राजनीतिक क्षेत्र भी दक्षिण में आंध्रा है जो केरल के पास है। लिहाजा दक्षिण का भावनात्मक जुड़ाव अरुंधति के साथ किसी भी दूसरे इलाके से ज्यादा होगा। ऐसे में अरुंधति के खिलाफ किसी पक्षपातपूर्ण कार्रवाई में दक्षिण के लोगों के उमड़ने वाले भावनात्मक गुबार की तीव्रता को आसानी से समझा जा सकता है। और फिर इसका सीधा खामियाजा नायडू को भुगतना पड़ेगा।
उत्तर भारत में बिहार की अगुआई करने वाले सीएम नीतीश से भी ज़रूर यह पूछा जाएगा कि क्या लोहिया, जेपी और कर्पूरी ठाकुर लेखकों की निजी स्वतंत्रता को लेकर यही रुख रखते थे? इंदिरा तानाशाही के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा देने वाली बिहार की धरती इसी तरह से सोचती है। और इन सारी चीजों का शायद ही नीतीश के पास कोई जवाब हो। और फिर आखिर में इन लोगों को केंद्र सरकार से यह पूछने के लिए मजबूर हो जाना पड़ेगा कि आखिर यह सरकार संवैधानिक और लोकतांत्रिक तरीके से चलायी जाएगी या फिर पक्षपातपूर्ण और बदले की भावना से?
मामला केवल घर तक ही सीमित नहीं रहेगा। जिस जी-7 के फोरम पर पीएम मोदी ने देश के लोकतंत्र का गाना गाया है। और भारत में चुनाव को दुनिया के लोकतंत्र की जीत बताया है। अरुंधति के साथ की गयी अपनी इस एक कारस्तानी से उसको कलंकित कर दिया है। और खुद अपने हाथों से अपने मुंह पर कालिख पोत लिया है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि वह पश्चिमी यूरोप के जिन कुछ हेड आफ स्टेट्स से मिल रहे हैं उनमें से कई अरुंधति के व्यक्तिगत मित्र हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रॉन तो भारत की अपनी किसी यात्रा में बगैर अरुंधति से मिले वापस नहीं जाते हैं। ऐसे में जब आप उनके सामने होंगे तो आपके प्रति उनका क्या नजरिया होगा इसको आसानी से समझा जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि मोदी जी आपको वो लोग नहीं जानते हैं। पिछले दस सालों में आपकी न केवल घरेलू जमीन पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत में भी कलई खुल चुकी है। लेकिन चूंकि अभी आप जोड़-तोड़ और गुणा गणित से देश की सत्ता में हैं लिहाजा आपके साथ डील करना उनकी मजबूरी है। और वैसे भी टाइम जैसी मैगजीन ने बहुत पहले ही ‘डिवाइडर इन चीफ’ कह कर दुनिया को आपकी असलियत बता दी थी।
और इससे भी ज्यादा इस कार्रवाई के खिलाफ दुनिया के पैमाने पर लेखकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पर्यावरणविदों के विरोध का स्वर फूट पड़ेगा। और फिर यह एक देश से दूसरे देश में फैलता जाएगा। जिसका नतीजा यह होगा कि लोकतंत्र के प्रति आपकी कथित आस्था की कलई खुलने लगेगी। ऐसे दौर में जबकि खुद आपके अपने आका अपनी इज्जत बचाने के लिए दिखावे के लिए ही सही आप से पिंड छुड़ाने का ऐलान कर रहे हैं। तब यह सब कुछ आप और आप की सत्ता के लिए बहुत भारी पड़ जाएगा।
वैसे दौर में देश से शुरू होने वाली प्रतिरोध की प्रतिक्रिया कब दावानल बनकर दुनिया भर में फैल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। इसलिए मोदी जी जब आपकी सत्ता की नाव भंवर में फंसी हो तो किसी शार्क से पंगा नहीं लेना चाहिए। वह न केवल आपको डुबो देगी बल्कि उस गहराई में ले जाकर दफन कर देगी जहां से फिर आपके लिए निकलना मुश्किल हो जाएगा।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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