हिफ़ाज़त का रंग न मज़हब देखता है, न जात – ऑपरेशन सिंदूर की गवाही

कुछ लम्हे अल्फ़ाज़ नहीं मांगते, वो ख़ुद तहरीर बन जाते हैं। ऑपरेशन सिंदूर भी ऐसा ही एक लम्हा था- जब सियासी नारों और मज़हबी बंटवारे की आवाज़ों को चीरते हुए, मुल्क ने अपनी सबसे ख़ूबसूरत तस्वीर दुनिया के सामने रखी। वो तस्वीर जिसमें सरहद की हिफ़ाज़त करती दो बेटियां थीं- एक का नाम सोफ़िया कुरैशी, दूसरी व्योमिका सिंह। नाम अलग, मज़हब अलग- मगर दिल में सिर्फ़ एक ही मिशन: “हिंदुस्तान की हिफ़ाज़त”

जब पाकिस्तान और पीओके में आतंकवाद के ठिकानों पर भारत की सर्जिकल स्ट्राइक हुई, तो धमाके सिर्फ़ बॉर्डर के पार नहीं गूंजे- उनका असर हर उस सोच पर पड़ा, जो आज भी देशभक्ति को नाम और नस्ल से तौलती है। कर्नल सोफ़िया और विंग कमांडर व्योमिका, जब मीडिया के सामने आईं, तो वो सिर्फ़ सैन्य प्रवक्ता नहीं थीं- वो वक़्त की ज़बान से निकला वो सच थीं, जिसने कहा:

“हम वो हैं जो मज़हब नहीं पूछते, सिर्फ़ झंडा उठाते हैं।”

सोफ़िया उस हर सोच का जवाब थीं जो मुसलमानों से वफ़ादारी का सुबूत मांगती है। व्योमिका उन धारणाओं की शिकस्त थीं जो सोचती हैं कि देश पर सिर्फ़ एक ही पहचान का हक़ है। इन दोनों की मौजूदगी ने देश को आईना दिखाया- वो आईना जिसमें तिरंगा, किसी रंग से नहीं- तीनों रंगों से मुकम्मल होता है।

आज जब सियासत मज़हब के नाम पर वोट काट रही है, जब मोहब्बत को शक की निगाह से देखा जा रहा है, तब यह दो वर्दियां इस बात की गवाही हैं कि:

जिस दिन देशभक्ति को धर्म की बैसाखी की ज़रूरत पड़ी, समझो मुल्क की रूह घायल हो चुकी है।

ऑपरेशन सिंदूर के पीछे की यह कहानी एक दस्तावेज़ है- जो किताबों में नहीं, ज़मीर में दर्ज होनी चाहिए। यह सिर्फ़ एक सैन्य सफलता नहीं, बल्कि एक अदबी अलामत है उस भारत की, जिसकी नींव बहुलता, समावेश और साझी तहज़ीब पर रखी गई थी।

कर्नल सोफ़िया का चुप खड़ा होना, उस हर तंज़ का करारा जवाब था जो टोपियों को शक की निगाह से देखता है। व्योमिका की आवाज़, उस हर नफ़रत को बेआवाज़ कर गई, जो औरतों की ताक़त को कमज़ोरी समझती है। इन दोनों ने एक शब्द कहे बिना बता दिया “हम मज़हब से नहीं, मिशन से बंधे हैं- और हमारा मिशन है हिंदुस्तान।”

तो आज अगर किसी को देशभक्ति की मिसाल चाहिए- तो किसी मस्जिद या मंदिर में मत ढूंढिए, सीधे उन आंखों में देखिए जिनमें ना हिंदू है, ना मुसलमान- सिर्फ़ वतन है।

क्योंकि जब वर्दी बोलती है, तब मज़हब नहीं- मुल्क गूंजता है। और जब बेटियां मोर्चा संभालती हैं, तब सरहदें नहीं, सोचें महफ़ूज़ होती हैं।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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