Friday, April 26, 2024
प्रदीप सिंह
प्रदीप सिंहhttps://www.janchowk.com
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

मनरेगा को धीमी मौत मार रही है मोदी सरकार

नई दिल्ली। ग्रामीण भारत की तस्वीर और मजदूरों के जीवन में एक हद तक खुशहाली लाने वाली राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) मोदी सरकार की हठधर्मिता और सूझ-बूझ की कमी के कारण धीमी मौत मर रहा है। मोदी सरकार हर बजट में मनरेगा का बजट कम करके योजना को अप्रासंगिक बनाने में लगी है। जबकि सच्चाई यह है कि इस योजना के कारण मजदूरों का दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की तरफ पलायन रूक गया था। योजना से गांवों में रोजगार सृजन के साथ विकास कार्य भी हो रहे थे। लेकिन वर्तमान सरकार की निगाह में मनरेगा पैसे की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं है।

पिछले 15 वर्षों में, भारत का राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम के रूप में उभरा है। कोविड महामारी के दौरान यह योजना ग्रामीण भारत की जीवन रेखा साबित हुई थी जब मनरेगा ने हर तीन ग्रामीण परिवारों में से एक को रोजगार दिया था। मनरेगा के जन्म के बाद से, 35 प्रतिशत से अधिक श्रमिक दलित और आदिवासी घरों से हैं। आधे से ज्यादा नरेगा मजदूर भी महिलाएं हैं। केरल में यह आंकड़ा करीब 90 फीसदी है।

लेकिन मौजूदा सरकार ने इस राइट टू वर्क पहल को कमजोर करने के लिए हर हथकंडा अपनाया है। पहला झटका उपस्थिति की निगरानी के लिए नए राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली डिजिटल ऐप को लागू करना था। दूसरा, सरकार ने जोर देकर कहा है कि सभी मनरेगा मजदूरी भुगतान आधार आधारित भुगतान प्रणाली के माध्यम से किए जाने चाहिए। जबकि सच्चाई यह है कि आधे से भी कम श्रमिकों के ही बैंक खाते आधार से जुड़े हैं। अंत में, वित्त मंत्री ने कार्यक्रम के बजटीय आवंटन को जीडीपी के 0.2 प्रतिशत तक घटा दिया है, जो मनरेगा के इतिहास में सबसे कम है।

दरअसल, पीएम नरेंद्र मोदी सत्ता में आने के तुरंत बाद ही मनरेगा के प्रति अपने भाव को स्पष्ट कर दिया था। 2015 में प्रधानमंत्री ने नरेगा के प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करत हुए इसे पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की “विफलता का एक जीवित स्मारक” के रूप में वर्णित किया था।

मनरेगा को बार-बार कमजोर किया गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि जब से भारतीय जनता पार्टी (2014-2022) सत्ता में आई है, यूपीए शासन के पिछले छह वर्षों (2008-2014) की तुलना में कवरेज में काफी कमी आई है। भाजपा के शासन के दौरान, हर साल औसतन कम व्यक्ति-दिवस रोजगार सृजित हुए हैं और कम परिवारों को 100 दिनों की गारंटी वाला काम मिला है। वित्तीय आवंटन में भी गिरावट आई है। यूपीए के दौरान औसतन जीडीपी का 0.47 प्रतिशत बजट आवंटित होता था, जोकि मोदी शासनकाल में 0.35 प्रतिशत हो गया है।

केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद जहां राष्ट्रीय स्तर पर मनरेगा का बजट कम करके इसे कमजोर किया जा रहा है वहीं भाजपा शासित राज्यों में भी इसकी राह में रोड़े अटकाए जा रहे हैं। जिसके कारण विभिन्न राज्यों में भी इसके अलग-अलग रुझान दिखाई दे रहे थे। ‘डबल-इंजन’ वाली यानि भाजपा शासित राज्यों में विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों की तुलना में नरेगा के तहत रोजगार सृजन के कम दिन देने की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। 2019-20 में, कांग्रेस शासित राजस्थान ने राज्य के प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए सबसे अधिक 31 दिनों का मनरेगा रोजगार दिया, इसके बाद कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ और केरल में कम्युनिस्ट-नीत गठबंधन ने 29 दिनों का औसत रोजगार दिया।

21 वीं सदी में कुछ विकासशील देशों ने भी मनरेगा की तरह कार्यक्रमों को लागू किया है। अर्जेंटीना में Jefes de Hogar ने डे-केयर सेंटरों, बेघर आश्रयों, सूप किचन और रीसाइक्लिंग में श्रमिकों को नियोजित किया ताकि सभी क्षेत्रों में मजदूरों के लिए रोजगार के कुछ अवसर उपलब्ध हो सके। लेकिन यह योजना कुछ ही वर्षों में अव्यवहार्य हो गई क्योंकि जेफ की मजदूरी न्यूनतम मजदूरी और मुद्रास्फीति के साथ तालमेल नहीं बिठा सकी। इथियोपिया का उत्पादक सुरक्षा जाल कार्यक्रम सूखे के छठे वर्ष में भी अमूल्य बना हुआ है। इस कार्यक्रम में एक लचीला दोहरा भुगतान विकल्प भी है। 2008 में इस योजना के श्रमिकों ने मुद्रास्फीति का मुकाबला करने के लिए नकदी के बजाय भोजन के रूप में भुगतान करने का विकल्प चुना। नरसंहार के बाद रवांडन विजन 2020 उमुरेंगे प्रोग्राम ने भी हजारों महिलाओं के नेतृत्व वाले परिवारों का भरण-पोषण कर रहा है। बांग्लादेश की 100-दिवसीय रोजगार सृजन योजना- क्लोजर होम और नेपाल के काम के बदले अनाज योजना भी मनरेगा से प्रेरित थे।

लेकिन मनरेगा अब एक साथ हजार चोटों के कारण मौत का सामना कर रहा है। 20 में से 18 राज्यों में मनरेगा मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से कम है। अपर्याप्त बजटीय आवंटन के कारण भुगतान में देरी ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। पश्चिम बंगाल में श्रमिकों को एक वर्ष से अधिक समय से वेतन नहीं मिला है। झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और अन्य राज्यों के मनरेगा मजदूरों ने दिल्ली में 60 दिनों तक विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन उनकी गुहार सरकार के बहरे कानों को नहीं सुनाई दी।

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