कर्नाटक में अडानी का चैनल कांग्रेस की और अंबानी का चैनल भाजपा की सरकार बनवा रहा है!

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हर चुनाव से पहले तमाम टीवी चैनल और अखबार अपने स्तर पर या सर्वे एजेंसियों के जरिए सर्वे कराते हैं जिसे ओपिनियन पोल्स कहा जाता है। यही सर्वे एजेंसियां मतदान के एग्जिट पोल्स भी करती हैं और उसके आधार पर बताती हैं कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिल रही हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर कई सर्वे आए हैं, जो विभिन्न टीवी चैनलों ने दिखाए हैं। आठ मई को प्रचार बंद होने से पहले तक कुछ और सर्वे भी आएंगे। चुनाव पूर्व हो रहे इन सर्वेक्षणों यानी ओपिनियन पोल के अनुमान बहुत अलग-अलग हैं।

आमतौर पर सर्वेक्षणों में इतना फर्क नहीं होता है, जितना इस बार दिख रहा है। इस बार कुछ टीवी चैनल भाजपा की पूर्ण बहुमत से जीत का दावा कर रहे हैं तो कुछ सर्वेक्षणों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत से जीतते हुए बताया जा रहा है। कुछ चैनल त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान भी जता रहे हैं। दोनों प्रमुख पार्टियां अलग-अलग टीवी चैनलों और सर्वे करने वाली एजेंसियों के आंकड़ों का अपनी बढ़त दिखाने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।

सबसे दिलचस्प सर्वे देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा संचालित टीवी न्यूज चैनलों के हैं। अडानी समूह का चैनल ‘एनडीटीवी’, जहां भाजपा के हारने और कांग्रेस के पूर्ण बहुमत से जीतने का अनुमान बता रहा है तो दूसरी ओर अंबानी समूह का चैनल ‘नेटवर्क 18’ भाजपा को सबसे ज्यादा सीट के साथ बहुमत के करीब पहुंचता दिखा रहा है।

अडानी समूह के चैनल ‘एनडीटीवी’ पर सीएसडीएस का सर्वेक्षण आया, जिसमें यह तो नहीं बताया गया है कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, लेकिन उसके सर्वेक्षण का नतीजा यह है कि कर्नाटक के लोग कांग्रेस के सिद्धरमैया को मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं। भाजपा के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के मुकाबले सिद्धरमैया की करीब 15 फीसदी की बढ़त बताई गई।

इसी सर्वे में बताया गया है कि कर्नाटक के लोग कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को ज्यादा भ्रष्ट और वंशवाद को ज्यादा बढ़ावा देने वाली पार्टी मानते हैं। इस सर्वे का एक निष्कर्ष यह भी है कि कर्नाटक की जनता भाजपा के मुकाबले कांग्रेस को ज्यादा कार्यकुशल और सक्षम मानती है। अगर इस सर्वे के हिसाब से नतीजे आए तो 224 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस को करीब डेढ़ सौ सीटें मिलने का अनुमान है।

दूसरी ओर अंबानी समूह के चैनल ‘नेटवर्क 18’ के कन्नड़ चैनल ने अपने सर्वे में भाजपा को 105 और कांग्रेस को 87 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है। यानी त्रिशंकु विधानसभा होगी जिसमें भाजपा को बहुमत के लिए जरूरी 113 से आठ सीटें कम मिलेंगी और वह जोड़-तोड़ के जरिए सरकार बना लेगी।

हैरानी इस बात पर जताई जा रही है कि अडानी समूह के चैनल ने सर्वे के मामले में देश की सबसे विश्वसनीय माने जाने वाली संस्था सीएसडीएस से ही सर्वे क्यों कराया और उसके नतीजे अपने चैनल पर दिखाए? उसने भी क्यों नहीं अंबानी समूह के चैनल की तरह भाजपा की जीत की भविष्यवाणी की या सर्वे एजेंसी से ऐसा अनुमान जताने को कहा?

गौरतलब है कि कर्नाटक में भाजपा को कभी भी स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हो पाया है और हमेशा ही उसे सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ का सहारा लेना पड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी उसे 104 सीटें मिली थीं। बहरहाल, इस चैनल के अनुमान को केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता राजीव चंद्रशेखर ने ट्विट किया है। उन्होंने इसके अलावा तीन और टीवी चैनलों के सर्वे-अनुमान ट्विट किए हैं।

हिंदी चैनल ‘जी न्यूज’ के मुताबिक भाजपा को 103 से 115 और कांग्रेस को 79 से 91 तक सीटें मिल सकती हैं। कन्नड़ चैनल ‘टीवी 9’ के मुताबिक भाजपा को 105 से 110 और कांग्रेस को 90 से 97 तक सीटें मिलने का अनुमान है। एक दूसरे चैनल ‘एशियानेट सुवर्णा न्यूज’ के मुताबिक भाजपा को 100 से 114 और कांग्रेस को 86 से 98 तक सीटें मिल सकती हैं। इस तरह इन सर्वेक्षणों में भाजपा की जीत का अनुमान जताया गया है।

इसके अलावा आनंद बाजार पत्रिका समूह के चैनल एबीपी न्यूज और सी-वोटर ने अपने सर्वे में कांग्रेस की सरकार बनने का अनुमान जताया है। इस सर्वे के मुताबिक कांग्रेस को 110 से 122 सीटें मिल सकती हैं, जबकि को भाजपा 73 से 85 तक सीटें मिलने का अनुमान है।

हालांकि आमतौर पर चुनावों के वास्तविक नतीजे इस तरह के ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के अनुमानों से अलग ही रहते हैं। बहुत कम चुनाव ऐसे रहे हैं, जिनके नतीजे ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के अनुमानों के मुताबिक आए हैं। फिर भी सर्वे एजेंसियां सर्वे करती हैं और टीवी चैनल उन्हें दिखाते हैं और अखबार छापते हैं।

दरअसल हमारे देश में ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल हमेशा ही तुक्केबाजी और टीवी चैनलों के लिए एक कारोबारी इवेंट होता है। ये कभी भी विश्वसनीय साबित नहीं हुए हैं और इन पर संदेह करने की ठोस वजहें मौजूद हैं। जब से हमारे देश में ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल का चलन शुरू हुआ तब से लेकर अब तक ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के सबसे सटीक अनुमान सिर्फ 1984 के आम चुनाव में ही रहे। अन्यथा तो लगभग हमेशा ही वास्तविक नतीजे इस तरह के सर्वे के अनुमानों से हटकर ही रहे हैं।

इस सिलसिले में पिछले तीन दशक के दौरान हुए तमाम चुनावों के कई उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जब ओपिनियन पोल्स के अनुमान औंधे मुंह गिरे और वास्तविक नतीजे उनके उलट आए। ऐसा होने पर सर्वे करने वाली एजेंसियों और उन्हें दिखाने वाले टीवी चैनलों की बुरी तरह भद्द भी पिटी। लेकिन इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और ‘दिल है कि मानता नहीं’ की तर्ज पर वे हर चुनाव के समय ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल का इवेंट आयोजित करते है। यही नहीं, वे अपने एग्जिट पोल गलत साबित होने पर खेद व्यक्त करने या माफी मांगने की न्यूनतम नैतिकता भी नहीं दिखाते।

ऐसा नहीं है कि ओपिनियन या एग्जिट पोल्स के नतीजे सिर्फ भारत में ही मुंह की खाते हो, विदेशों में भी ऐसा होता है, जहां पर कि वैज्ञानिक तरीकों से एग्जिट पोल्स किए जाते हैं। हालांकि दावा तो हमारे देश में भी वैज्ञानिक तरीके से ही ओपिनियन या एग्जिट पोल्स करने का किया जाता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है।

वैसे हकीकत यह भी है कि भारत जैसे विविधता से भरे देश में जहां 60-70 किलोमीटर की दूरी पर लोगों का रहन-सहन और खान-पान की शैली, भाषा-बोली और उनकी आवश्यकताएं और समस्याएं बदल जाती हों, वहां किसी भी प्रदेश के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों के मुट्ठीभर लोगों से बातचीत के आधार पर किसी सटीक निष्कर्ष पर पहुंचा ही नहीं जा सकता। यह बात सर्वे करने वाली एजेसियां भी जानती है लेकिन यह और बात है कि वे इसे मानती नहीं हैं।

दरअसल हमारे यहां चुनाव को लेकर जिस बडे पैमाने पर सट्टा होता है और टेलीविजन मीडिया का जिस तरह का लालची चरित्र विकसित हो चुका है, उसके चलते ओपिनियन और एग्जिट पोल्स की पूरी कवायद चुनावी सट्टा बाजार के नियामकों और टीवी मीडिया इंडस्ट्री के लिए एक संयुक्त कारोबारी उपक्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। कभी-कभी सत्तारूढ दल भी इस उपक्रम में भागीदार बन जाता है।

इस उपक्रम से होने वाली कमाई का एक छोटा हिस्सा टीवी चैनलों पर ओपिनियन ओर एग्जिट पोल्स के अनुमानों का विश्लेषण और उन पर टिप्पणी देने वाले एक खास किस्म के राजनीतिक विश्लेषकों को भी मिल जाता है। इसलिए इस तरह के सर्वे दिखाने की कवायद को सिर्फ क्रिकेट के आईपीएल जैसे अश्लील और सस्ते मनोरंजक इवेंट के तौर पर ही लिया जा सकता है और ज्यादातर लोग इसे इसी तौर पर लेते भी हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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