Saturday, April 20, 2024

स्मृतियों के आईने में अरुण पांडेय : एक समीक्षा

हाल ही में परिकल्पना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “स्मृतियों के आईने में अरुण कुमार पांडेय”, हम सब से हमेशा के लिए विदा हो चुके वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय को श्रद्धांजलि है। इसका पहला भाग देश में चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन पर उनकी अधूरी किताब है, जो वे उस समय लिख रहे थे जब कोविड ने अचानक उन्हें हमसे छीन लिया और दूसरे भाग में उनके सहयोद्धाओं, सहकर्मियों, उनके चाहने वालों, दोस्तों ने उन्हें याद किया है। पुस्तक शहीद किसानों की स्मृति को समर्पित है।

पुस्तक का संपादन महिला नेत्री, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ की चर्चित नेता रहीं (पूर्व उपाध्यक्ष) कुमुदिनी पति ने किया है जो छात्र-राजनीति के दौर में अरुण पांडेय की नेता और संघर्षों की साथी थीं। पुस्तक के सहसम्पादक राजनीतिक विचारक, एक्टिविस्ट लेखक अवधेश सिंह हैं। प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने लिखा है।

पुस्तक में उनकी जीवन-संगिनी सुनीता पांडेय (पुतुल जी) एवम उनकी बड़ी बहन गुड्डू जी तथा वरिष्ठ पत्रकारों विभांशु दिव्याल, प्रियदर्शन, अजीत अंजुम, उर्मिलेश, अमिताभ, दिलीप चौबे, मनोज मिश्र, राजेश शुक्ल, रामकृपाल सिंह, राजेश जोशी, साथ ही इलाहाबाद के दिनों के उनके प्रियजनों केके राय, दयाशंकर राय, पंकज श्रीवास्तव, रवि पटवाल, राम शिरोमणि शुक्ल, तारिक नासिर, लाल बहादुर सिंह, कुमुदिनी पति, विमल वर्मा, महेंद्र मिश्र की अरुण को लेकर स्नेहिल स्मृतियां पुस्तक में दर्ज हैं।

किसान आंदोलन पर अरुण की अधूरी पुस्तक गवाह है कि वह पूरी होती तो किसान आंदोलन की बेहद महत्वपूर्ण, authentic और जीवंत दस्तावेज बन जाती। इसमें आंदोलन शुरू होने के पहले दिन से लेकर फरवरी-मार्च के उस दौर तक की कहानी दर्ज है जब किसान नेताओं ने खुलकर भाजपा हराओ के नारे के साथ बंगाल चुनाव में रैलियों को सम्बोधित करना शुरू किया था। सम्भवतः वहीं बंगाल में अपने मित्र, वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम के साथ चुनाव कवर करते हुए अरुण कोविड की चपेट में आये थे और फिर दिल्ली वापस आने के बाद इलाज के दौरान उनका निधन हो गया था।

किताब की रोचकता आपको वैसे ही बांध लेती है जैसे अरुण मिलने पर परिचित/अपरिचित, वरिष्ठ/कनिष्ठ सबको अपने व्यक्तित्व के आकर्षण से बांध लेते थे। किताब पढ़ना शुरू करने के बाद आप उसे छोड़ नहीं सकते ठीक वैसे ही जैसे अरुण के साथ बात करते आप कभी ऊब नहीं सकते थे।

आपको उनके वर्णन में बेशक आंदोलन के प्रति स्पष्ट पक्षधरता के साथ एक एक्टिविस्ट का भावावेग (passion) दिखेगा, पर उसकी खातिर आलोचनात्मक दृष्टि और वस्तुगतता से कोई समझौता नहीं। वे आंदोलन के अन्तर्विरोधों, उसकी अंदरूनी उठा-पटक, उसके नेताओं की कमजोरियों का कोई बचाव नहीं करते और खुलकर उन्हें व्यक्त करते हैं। उस दौर में उठे हर प्रमुख सवाल/बहस का पीछा करते उसकी तह तक जाकर अरुण ने उसके minutest details को उद्घाटित किया है।

आंदोलन में सिख किसानों की बहादुराना नेतृत्वकारी भूमिका की जड़ें तलाशते हुए वे शहीदे-आज़म भगत सिंह के चाचा अजित सिंह के नेतृत्व में 20वीं सदी के प्रारम्भ में चले “पगड़ी संभाल जट्टा” आंदोलन तक पहुंचते हैं और आंदोलन को टिकाने में सिख समाज की लंगर जैसी महान परम्पराओं के बारे में रोचक जानकारियां देते हैं।

आंदोलन को लेकर उनके अंदर जबरदस्त उत्साह था और उनका एक्टिविस्ट जैसे वापस लौट आया था। ‘किसान आंदोलन की महागाथा’ की शुरुआत वे जिस तरह 26 नवम्बर, 1949 को संविधान निर्माण से करते हैं, उससे यह साफ हो जाता है कि रैडिकल एक्टिविज्म से अपने जीवन का आरंभ करने वाले अरुण के लिए किसान आंदोलन भारत में गणतंत्र के भविष्य के लिए बड़ी संभावना और उम्मीद बनकर आया था।

अरुण लिखते हैं, “हर साल की तरह इस साल भी 26 नवम्बर 2020 को देश संविधान दिवस मना रहा था। अखबारों से पता चला था कि इस दिन मजदूर विरोधी श्रम कानूनों के खिलाफ देश की 10 प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल का ऐलान कर रखा है। ये भी जानकारी मिली थी कि पंजाब और हरियाणा के किसान अपने ट्रैक्टर ट्रालियों के साथ दिल्ली की तरफ कूच कर गए हैं।

लेकिन ये किसी को अंदाज़ा नहीं था कि किसानों की संख्या इतनी ज्यादा है। दोपहर बाद टीवी न्यूज चैनलों पर दिल्ली बॉर्डर पर किसानों की तस्वीरें नज़र आने लगी। धीरे धीरे किसानों और पुलिस के बीच झड़प की… खबरों की सोशल मीडिया और न्यूज चैनलों पर बाढ़ सी आ गयी।”

अरुण ने सबसे ज्यादा involvement के साथ 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के आसपास के उन तूफानी दिनों की कहानी दर्ज की है। इसी संदर्भ में मुझे याद आता है एक दिन अचानक सिंघू बॉर्डर से उनका फोन आया। वे किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल से मिलकर निकल रहे थे। यह 22 से 25 जनवरी के बीच की बात है। बताने लगे कि 26 जनवरी को कुछ भारी गड़बड़ होने वाली है, इसी संदर्भ में वे नौजवानों के नाम एक अपील लिख रहे थे।

उस समय 26 जनवरी को क्या होने वाला है, दुनिया को कोई आभास भी नहीं था, अरुण ने इस खबर को सूंघ लिया था। जाहिर है इससे वे उत्तेजित और चिंतित थे और उसे share करने के लिए कॉल किये थे।

26 जनवरी के लालकिला प्रकरण के बाद जब लगा कि सरकार आंदोलन को कुचलने में कामयाब हो गयी, तभी 28 जनवरी को राकेश टिकैत के आंसुओं ने जिस तरह नाटकीय ढंग से बाजी पलट दी, उसका अरुण ने विस्तार से बेहद रोमांचक वर्णन किया है और उसके बहाने सरकार की खतरनाक साजिश, उसके खिलाफ किसानों के प्रत्याक्रमण, महेंद्र सिंह टिकैत के दौर से अबतक पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के गतिविज्ञान, हिन्दू-मुस्लिम एकता के सवाल आदि का लेखा जोखा लिया है।

राकेश टिकैत की उस दिन की इतिहास में दर्ज हो चुकी भूमिका और बाजी पलट देने वाले अचानक पैदा विवेक पर वे एक एक्टिविस्ट- जननेता की गहरी अंतर्दृष्टि के साथ टिप्पणी करते हैं, “कई बार एक मुकाम पर पहुंचने के बाद आंदोलनकारी नेतृत्व को भविष्य का रास्ता दिखाई नहीं देता। लेकिन अचानक कोई एक घटना रास्ता बता देती है। उस दिन भी शायद ऐसा ही हुआ।

ये तो किसी को ठीक ठीक नहीं पता कि उस दिन पुलिस अधिकारियों के साथ आधे घण्टे वाली मीटिंग में क्या हुआ था, लेकिन ऐसा लगता है कि टिकैत को उस मीटिंग से अचानक किसी साजिश का पता चला। कह सकते हैं इसने राकेश टिकैत को आक्रोश से भर दिया और अचानक उन्हें बाजी पलटने का विवेक दे दिया। छोटे टिकैत का विवेक और जमीर दोनों जग गए। राकेश टिकैत के आंसू निकल आये। “
और सचमुच जैसा कहा जाता है Rest is history!

26 से 28 जनवरी के बीच के उथल पुथल भरे घटनाक्रम के बाद 8 फरवरी को राज्यसभा में और फिर 2 दिन बाद लोकसभा में मोदी जी ने किसान-आंदोलन पर जो हमला बोला, अरुण ने उसकी विस्तार से चर्चा किया है और फिर उनकी खूब खबर ली है।

वे लिखते हैं, “8 फरवरी को पहली बार संसद में मोदी बोले। बातें वही पुरानी थीं लेकिन इस बार कुछ नए शब्द थे और कहने का अंदाज़ भी मजाकिया था। शादी में फूफी, आन्दोलनजीवी, परजीवी, एफडीआई, छोटे किसान बनाम बड़े किसान, जैसे जुमलों से मोदी ने देश को हंसाया, विपक्ष को मजे लेकर रुलाया और वामपंथियों-सर्वोदयी समाजवादियों से लेकर कुछ पुराने संघी भाइयों तक को गुस्सा दिलाया।”

अरुण लिखते हैं, “द टेलीग्राफ ने मोदी द्वारा प्रयोग किये गए ‘फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी’ की पैरोडी बनाते हुए लिखा ‘फूहरर डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट’। यहूदियों के लिये हिटलर हमेशा ‘परजीवी’ शब्द का प्रयोग करता था। कभी कभी कुछ शब्द इतिहास में ऐसे दर्ज हो जाते हैं कि उनके निशान सदियों तक बने रहते हैं।

सौ साल पहले जर्मनी में फ़्यूहरर ने परजीवी शब्द को हर जुबान पर चढ़ने वाला जुमला बना दिया था। नाज़ी पार्टी के कार्यक्रम में तो इसको जड़ से मिटाने के लिये तमाम काम बताए गए हैं। टेलीग्राफ के हवाले से उस दिन कई लोगों ने अंदेशा जताया कि भारत में भी इन तथाकथित ‘परजीवियों’ के साथ कहीं वैसा ही सलूक तो नहीं किया जाएगा जैसा हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के साथ किया था।”

26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद किसान आंदोलन को बर्बरतापूर्वक कुचल देने की सरकारी साजिश के खिलाफ जिस तरह दूसरे देशों की तमाम लोकतान्त्रिक हस्तियां और संस्थाएं भी उठ खड़ी हुई थीं, उससे बुरी तरह बौखलाई सरकार के counter-offensive का नेतृत्व स्वयं मोदी ने किया।

उसकी पृष्ठभूमि का विस्तार से जिक्र करते हुए अरुण लिखते हैं, “प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में जिस फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी का जिक्र किया था, उसके पीछे की राम कहानी यही थी और यहीं से शुरू हुआ लाल किला हिंसा में विदेशी साजिश और खालिस्तान कनेक्शन का मायाजाल।”

कथित टूलकिट प्रकरण में साजिश और देशद्रोह के आरोप में दिशा रवि की गिरफ्तारी का खुलासा करते हुए वे लिखते हैं, “इस टूल किट को ऐसे पेश किया गया जैसे इसे बनाने वालों ने ही लालकिला हिंसा की जमीन तैयार की थी और इसकी साजिश दुनिया के दूसरे देशों में रची गयी थी।

इस टूलकिट में एक ‘डिजिटल स्ट्राइक शब्द का इस्तेमाल किया गया था जिसका मतलब किसानों के समर्थन में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का खूब इस्तेमाल करना था, लेकिन पुलिस और मीडिया ने इसे इस तरह पेश किया मानो ये डिजिटल स्ट्राइक नहीं सर्जिकल या एयर स्ट्राइक हो और किसी ने टूलकिट के जरिये देश पर हमला कर दिया हो या हमलावरों के साथ मिलकर गहरी साजिश रची हो।

दरअसल इस टूलकिट में वही सारी बातें लिखी हुई थीं जो आंदोलन करने वाला कोई भी बड़ा समूह अपने आंदोलन के विस्तार के लिए कुछ योजनाएं बनाता है। इस तरह के काम हर राजनीतिक दल और संगठन करते हैं।”

दिशा रवि को जमानत देते हुए पटियाला हाउस कोर्ट के जज धर्मेन्द्र राणा के फैसले से किताब में लंबा उद्धरण लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए अरुण की अपनी गहरी प्रतिबद्धता का भी सुबूत है, जिसमें उन्होंने कहा था, “मेरे विचार से किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र में नागरिक सरकार की अंतरात्मा के रखवाले होते हैं। लोगों को सिर्फ इसलिए जेल में नहीं डाला जा सकता कि वे सरकार की नीतियों से असहमत हैं।

सरकारों के घमंड को अगर चोट पहुंचती है तो महज इसी आधार पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। जागरूक और मुखर जनता निर्विवाद रूप से स्वस्थ और जीवंत लोकतन्त्र की निशानी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने भी अलग अलग विचारों को सम्मान देते हुए बोलने की आज़ादी को मौलिक अधिकारों में शामिल किया था।

मतभेद रखने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रतिष्ठापित किया गया है। मेरे विचार में इस बोलने की आज़ादी में समूचा विश्व शामिल है। एक दूसरे से कम्युनिकेट करने की कोई भौगोलिक सीमा निर्धारित नहीं है। समूची दुनिया से सूचनाओं का आदान प्रदान हर नागरिक का मौलिक अधिकार है।”

अरुण लिखते हैं, “जज धर्मेंद्र राणा की ये टिप्पणियां और जमानत देने के 18 पृष्ठों वाले आदेश की एक एक पंक्ति लंबे समय तक याद रखी जायेगी।”

किताब का अधूरा अंत पढ़ते हुए मन उदास हो उठता है। काश, अरुण किसानों के जीवन-मरण संग्राम का विजयी समापन देख पाए होते, जिन्होंने सबसे अहंकारी शासकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया! काश, उनकी “किसान-आंदोलन की महागाथा” पूर्ण हो पाई होती!

यह देखना सुखद है कि किसान एक बार फिर रणभूमि में उतरने को तैयार हो रहे हैं। उनके संघर्ष ही अरुण पांडेय जैसे उनके शुभचिंतक-समर्थक-बुद्धिजीवियों के अधूरे सपनों को मंजिल तक पहुंचाएंगे।

योद्धा पत्रकार को नमन !

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं)

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