Sunday, April 28, 2024

अयोध्या और नीतीश कार्ड से पूरे नहीं हो पाएंगे भाजपा के मंसूबे, जनांदोलन बनेगा आम चुनाव

22 जनवरी के अयोध्या कार्यक्रम के बाद कैबिनेट की ओर से मोदी की प्रशस्ति में राजनाथ सिंह द्वारा पढ़े गए प्रस्ताव में कहा गया ” 15 अगस्त 1947 को भारत के शरीर को आज़ादी मिली, लेकिन इसकी प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 को हुई। भारत की आत्मा को आज़ादी 22 जनवरी 2024 को मिली। इससे सबको आध्यात्मिक सन्तुष्टि मिली है।”

इस कैबिनेट बैठक को ऐतिहासिक-Cabinet of the Millennium- बताते हुए, प्रस्ताव में आगे कहा गया, “मोदी जी ने वह सदियों पुराना स्वप्न पूरा किया, जिसका भारतीय सभ्यता ने 500 साल से सपना देख रखा था। जनता से जो प्यार आपको मिला, उसने आपको जननायक के रूप में स्थापित किया है। अब नए युग का सूत्रपात करने के बाद आप नए युग के अग्रदूत pioneer बन गए हैं।”

जाहिर सी बात है यह सब एक काल्पनिक धर्म-आधारित द्वंद्व का नैरेटिव गढ़कर, जिसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है, और उसे राष्ट्रीय गुलामी बताकर, भारतीय जनगण के साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को दोयम दर्जे का साबित करने और अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को सच्चा राष्ट्रवाद साबित कर वैधता हासिल करने का कुत्सित खेल है।

यह अनायास नहीं कि संघ के कार्यकर्ताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चली आज़ादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया। जिस लड़ाई से आत्मा को आज़ादी मिलनी नहीं थी, उसमें क्या भाग लेना? भगत सिंह और क्रांतिकारियों के साथ जाने से रोकने के लिए हेडगेवार ने कैसे उनके जैसे स्वयंसेवकों की लंबी क्लास लिया था, इसे  बाद में सरसंघचालक बने देवरस ने स्वयं स्वीकार किया है।

1947 में दंगों की विभीषिका के बीच देश के विभाजन और धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनने के बावजूद भारत हिन्दूराष्ट्र नहीं बना, बल्कि आज़ादी की लम्बी लड़ाई के सिद्धांतों और मूल्यों के अनुरूप भारतीय गणतंत्र का लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान अस्तित्व में आया और देश आधुनिक विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा।

यह इन ताकतों का सबसे बड़ा दर्द था और इसे वे किसी भी हाल में स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। हिन्दू राष्ट्र की पैरोकार ताकतों ने अपने रास्ते में बाधक सबसे बड़े नेता को रास्ते से हटा दिया। लेकिन उनके इस desperate act से देश का व्यापक जनमानस उनके खिलाफ हो गया।

महात्मा गांधी की हत्या से उपजी राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया और प्रतिबन्ध से भले ही वे सामयिक तौर पर डिफेंसिव हो गए थे और अंततः शर्तों को मानते हुए झुक कर उन्हें सरकार द्वारा लगाए प्रतिबन्ध से मुक्ति मिली। लेकिन मन से उन्होंने देश के संविधान को कभी स्वीकार नहीं किया। वे खुलकर मनुस्मृति की वकालत करते रहे। लम्बे समय तक उनके कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया जाता था, उसे वे मिलावटी बताते था।

बाद के दौर में tactical retreat करते हुए उन्होंने नई परिस्थिति के अनुरूप अपनी नीतियों और तौर-तरीकों में बदलाव किया, लेकिन उनके मूल लक्ष्य और रणनीति में कोई बदलाव नहीं हुआ था।

बहरहाल यह आज़ादी की लड़ाई के नेताओं का करिश्मा था और स्वतंत्रता-आंदोलन के मूल्यों का दबाव था कि लम्बे समय तक वे अपने मंसूबे में सफल नहीं हो पाए। लेकिन बाद में राष्ट्रीय राजनीति में उन मूल्यों में ह्रास के साथ, उदार राजनीति के पुराधाओं के चरम अवसरवाद का फायदा उठाते हुए वे ताकतवर होते गए।

अंततः नवउदारवादी नीतियों के संकट काल में मोदी के  नेतृत्व में उनके फासीवादी अभियान को कारपोरेट का भारी समर्थन हासिल हो गया और वे केंद्रीय सत्ता में काबिज होने में सफल हो गए।

आरएसएस अब खुल कर अपने असली रंग में आ चुका है। संघ प्रमुख भागवत की उपस्थिति में 22 जनवरी को राम-मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा को “भारत राष्ट्र की प्राण-प्रतिष्ठा” और “राष्ट्र की आत्मा की आज़ादी” बताते हुए इस नए “युग-प्रवर्तन” के लिए मोदी की प्रशस्ति में कैबिनेट का प्रस्ताव एक तरह हिन्दूराष्ट्र की अनौपचारिक घोषणा ही है। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को दरकिनार कर धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं, complete merger है।

बहरहाल, अपनी कैबिनेट से मोदी जी चाहे जितने बड़े युगपुरुष का खिताब ले लें, ऐसा लगता है कि जनता अब झांसे में आने को तैयार नहीं है। अयोध्या से संघ-भाजपा ने जैसी उम्मीद लगाई थी, वैसा माहौल नहीं बन पा रहा। अयोध्या दर्शन के लिए गाज़ियाबाद से कौशाम्बी तक तमाम डिपो पर बसें और इसी काम के लिए नियुक्त बसें इंतज़ार कर रही हैं, लेकिन अधिकारी परेशान हैं कि पैसेंजर आ ही नहीं रहे।

सत्ता, संगठन और गोदी मीडिया की पूरी ताकत लगाकर 22 जनवरी को जो mega-event किया गया, वह पूरी तरह प्रायोजित था, जमीनी स्तर पर जनता के बीच किसी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा और उत्साह-उन्माद का परिणाम नहीं था। अब वह पूरी तरह से उतार पर है।

तरह तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अगर राम-मंदिर से नैया पार लगती नहीं दिखी तो इसके बाद भाजपा के पास प्लान B क्या होगा।

इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि उसके पक्ष में यह प्लान B विपक्ष के खेमे के अंदर रचा जा रहा था। भारतीय राजनीति मूल्यों और सिद्धांतों से कितनी दूर अवसरवाद के गहरे दलदल में धंस चुकी है इसकी ही बानगी है कि जो व्यक्ति विपक्षी एकता की पहल और जाति जनगणना जैसे वैकल्पिक एजंडा के माध्यम से अपने को भाजपा विरोध के सबसे बड़े champion के बतौर प्रोजेक्ट कर रहा था, वह समर्पण करके स्वयं ही भाजपा की गोद में चला गया।

जाहिर है देश में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का जो जीवन-मरण संग्राम चल रहा है, उसके बेहद नाजुक क्षण में नीतीश कुमार ने पीठ में छुरा भोंका है। उनका यह विश्वासघात किसी दल या गठबंधन के साथ नहीं, बल्कि मोदी राज में लुटी-पिटी उस जनता के साथ है जो अपनी मुक्ति और खुशहाली के लिए विपक्ष से उम्मीद बांधे है।

यह भी कम विडम्बनापूर्ण नहीं है कि सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के अडिग योद्धा कर्पूरी ठाकुर के प्रति सम्मान को नीतीश ने भाजपा के पक्ष में पलटी मारने के लिए माध्यम बनाया, जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि संघ-भाजपा की पूरी वैचारिकी और राजनीति कर्पूरी ठाकुर के इन दोनों जीवन-मूल्यों के निषेध पर खड़ी है।

सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री क्रिस्टोफे जैफ्रोले ने चुनावों के ठीक पहले समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर को मोदी सरकार द्वारा भारत रत्न देने पर टिप्पणी करते हुए याद दिलाया है कि भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ ने दो दो बार कर्पूरी ठाकुर की सरकार गिराई थी- पहले 1970 में संयुक्त विधायक दल की सरकार, फिर 1979 में जनता पार्टी की सरकार। क्योंकि पिछड़ों-अति पिछड़ों के उत्थान और उनकी आरक्षण नीति की वह धुर विरोधी थी।

दरअसल यही तो कर्पूरी ठाकुर की विशिष्ट ऐतिहासिक पहचान है। पिछड़ों के लिए आरक्षण और अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण कोटा देने वाले वे उत्तर भारत के पहले मुख्यमंत्री हैं, पिछड़ों के लिए 8% और अति पिछड़ों के लिए 12%। दरअसल बिहार अभी भी ऐसा करने वाला उत्तर भारत का इकलौता राज्य है।

जैफ्रोले कहते हैं कि कर्पूरी ठाकुर ने एक तरह से दस साल बाद वी पी सिंह द्वारा लागू किये गए मंडल आयोग की जमीन तैयार की थी और उस वीपी सिंह की सरकार को भी समर्थन वापस लेकर भाजपा ने गिरा दिया था। आरएसएस के मुखपत्र Organiser ने मंडल आयोग को शूद्रक्रांति कहा था!

जैफ्रोले पूछते हैं कि भाजपा कर्पूरी ठाकुर का सचमुच सम्मान करती है तो केन्द्र सरकार अतिपिछड़ों को अलग आरक्षण कोटा क्यों नहीं आबंटित करती?  इसके लिए जाति-जनगणना अनिवार्य है, फिर वह इसका विरोध क्यों कर रही है?

नीतीश कुमार भले भाजपा के साथ चले गए हों, उनका सामाजिक आधार शायद ही उनके साथ जाय, क्योंकि जाति-जनगणना, अतिपिछड़ों-पिछड़ों के बढ़े आरक्षण, लाखों सरकारी नौकरियों की बहाली के साथ बिहार में जो एजेंडा सेट हुआ है, भाजपा-नीतीश गठजोड़ उसका स्वाभाविक प्रतिनिधि नहीं है।

राहुल गांधी की यात्रा के दौरान 30 जनवरी को पूर्णिया-सीमांचल में- जहां 2019 में एक को छोड़कर सारी सीटें NDA के पास थीं- हुई INDIA गठबंधन की विराट उत्साहपूर्ण रैली गवाह है कि नीतीश को साथ लाकर भाजपा ने जो मंसूबे पाल रखे थे, अबकी बार वे पूरे होने वाले नहीं हैं।

अयोध्या और नीतीश कार्ड फेल होने के बाद अब सम्भव है विपक्ष के कई नेता जेल भेजे जाएं।

भाजपा चुनाव कैसे लड़ने वाली है, इसकी बानगी चंडीगढ के मेयर चुनाव में उसने दिन दहाड़े लोकतंत्र का अपहरण कर दिखा दिया।

बहरहाल, ऐसे दुस्साहस के खिलाफ पूरे देश में जनता की तीखी प्रतिक्रिया होना तय है। विपक्ष साहस के साथ खड़ा रहा तो 2024 का आम चुनाव लोकतंत्र की रक्षा के अभूतपूर्व जनांदोलन में तब्दील हो सकता है।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं।)

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