सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे का कहना है कि ऐसा लगता है जैसे प्रशांत भूषण को अलग-थलग करके प्रताड़ित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसलिए प्रशांत भूषण का जस्टिस अरुण मिश्र को उनके विरुद्ध अवमानना की दोनों मामलों की सुनवाई से अलग करने की मांग पूरी तरह से उचित है। दुष्यंत दवे ने इन मामलों को अन्य 5-6 शीर्ष न्यायाधीशों को सुनवायी के लिए न देकर जस्टिस अरुण मिश्रा को दिए जाने के औचित्य पर भी सवाल उठाया। इस बीच प्रशांत भूषण के पक्ष में 131 हस्ताक्षर कर्ताओं द्वारा जारी बयान पर आठ पूर्व न्यायाधीशों ने भी हस्ताक्षर कर दिया है और उच्चतम न्यायालय से अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है।
‘द वायर’ के अनुसार उच्चतम न्यायालय के ख्याति लब्ध वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा है कि यह काफी आश्चर्यजनक और निराशाजनक है कि उच्चतम न्यायालय इसके लिए इस पल को चुना है, जब कोविड-19 संकट की स्थिति काफी बिगड़ती नजर आ रही है और जब अदालत केवल वर्चुअल तरीके से काम कर रही है तब चुनिन्दा ढंग से लक्षित करके मानवाधिकार के वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले को उठाए और सुने। इन अवमानना मामलों में से एक, तहलका का मामला 11 साल पुराना है और पिछले आठ वर्षों से नहीं सुना गया है।
दुष्यंत दवे ने कहा कि 1 जुलाई तक उच्चतम न्यायालय के सामने 19,492 नियमित मामले हैं, जिनमें से 83 सुनवाई के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट करना कठिन है कि उच्चतम न्यायालय ने इस मामले को शेष 19,409 मामलों में से कैसे चुना है, जिसमें महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे जैसे कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और जम्मू-कश्मीर में हिरासत से उत्पन्न होने वाली याचिकाएं शामिल हैं, जो भारतीय नागरिकों के स्वतंत्रता और अधिकारों को प्रभावित करती हैं।
दवे ने प्रशांत भूषण को सभी प्रतिष्ठानों की आंखों में एक कांटा के रूप में वर्णित किया और कहा कि जिस तरह से वर्ष 2009 के तहलका अवमानना मामले, को प्राथमिकता दी गई है उससे पता चलता है कि प्रशांत भूषण के अधिकार गंभीर रूप से प्रभावित हो सकते हैं। दवे ने कहा कि ऐसा लग रहा है जैसे प्रशांत भूषण को चुनिन्दा ढंग से लक्षित करके प्रताड़ित करने का प्रयास किया जा रहा है।
दवे ने प्रशांत भूषण के दूसरे अवमानना मामले के बारे में कहा कि हार्ले डेविडसन पर बैठे चीफ जस्टिस बोबडे की तस्वीर पर टिप्पणी निश्चित रूप से यह अवमानना नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी जज को बदनाम करना किसी व्यक्ति को बदनाम करने से अलग है। उन्होंने कहा कि आज के न्यायाधीश कानून के प्रति पूरी तरह से बेखबर हैं। उन्होंने कहा कि बोलने की स्वतंत्रता एक पवित्र अधिकार है और इसे अवमानना कार्रवाई से छीना नहीं जा सकता है।
चीफ जस्टिस को 25 जुलाई को लिखे गये प्रशांत भूषण के पत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जस्टिस अरुण मिश्रा, जो पीठ की अध्यक्षता करते हुए दोनों अवमानना मामलों की सुनवाई कर रहे हैं उनका इतिहास रहा है कि वे प्रशांत भूषण के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहे हैं। दवे ने कहा कि उनके विचार से प्रशांत भूषण की यह धारणा उन्हें उचित लगती है कि उन्हें जस्टिस मिश्रा से निष्पक्ष और पक्षपात रहित सुनवाई नहीं मिलेगी।
दवे ने कहा कि वह यह नहीं समझ पाए हैं कि जस्टिस मिश्रा के सामने भूषण अवमानना के मामले क्यों रखे गए। मुख्य न्यायाधीश के एक मामले में पार्टी होने के कारण उनके समक्ष ये मामले नहीं रखे जा सकते थे लेकिन अन्य पांच या छह शीर्ष न्यायाधीशों के सामने ये मामले सूचीबद्ध किये जा सकते थे ।
दवे ने यह भी कहा कि अवमानना के मामलों की सुनवाई कोर्ट की सामान्य सुनवाई शुरू होने के बाद करने की मांग पूरी तरह न्यायोचित है। उन्होंने कहा कि इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।
दवे ने अवमानना कानून के बारे में बात की और कहा कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ‘बिल्कुल’ संघर्ष करता है और प्रभावित करता है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) एक पवित्र अधिकार है।
उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को संरक्षित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे समय आते हैं जब सिविल अवमानना आवश्यक होती है और ऐसे अवसर भी आते हैं जब न्यायपालिका पर भयावह हमले किए जाते हैं। तब आपराधिक अवमानना आवश्यक हो सकती है। हालांकि, उन्होंने कहा कि सत्य एक स्वीकार्य बचाव है जिसे न्यायाधीशों को “अवमानना कानून को सुदृढ़ करने” में समावेश करने की आवश्यकता है।
इस बीच प्रशांत भूषण के पक्ष में जारी बयान के समर्थन में आठ पूर्व न्यायाधीशों ने भी हस्ताक्षर कर दिया है। कुछ दिन पहले 131 हस्ताक्षर कर्ताओं के साथ बयान जारी किया गया था। बाद में उच्चतम न्यायालय के सात और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और हाईकोर्ट के एक अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश द्वारा समर्थन किया गया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा भूषण के खिलाफ शुरू की गई अवमानना कार्यवाही की निंदा करने वाले सबसे हालिया हस्ताक्षर करने वालों में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जस्टिस रूमा पाल, जस्टिस जीएस सिंघवी, जस्टिस अशोक के गांगुली, जस्टिस गोपाल गौड़ा, जस्टिस आफताब आलम, जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस विक्रम जीत सेन शामिल हैं।
पटना उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अंजना प्रकाश ने भी बयान पर हस्ताक्षर किए। ये सभी जज रिटायर हो चुके हैं। हस्ताक्षर कर्ताओं ने कहा है कि न्याय और निष्पक्षता के हित में और उच्चतम न्यायालय की गरिमा बनाए रखने के लिए उच्चतम न्यायालय को प्रशांत भूषण के खिलाफ मुकदमा चलाने की कार्रवाई शुरू करने के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)