सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपनी सुनवाई फिर से शुरू की, जिसने पूर्ववर्ती राज्य जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा छीन लिया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की संविधान पीठ ने सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल की दलीलें सुनीं, जो राकांपा सांसद मोहम्मद अकबर लोन की ओर से पेश हुए थे।
सुनवाई के दौरान सिब्बल ने अपनी दलील दोहराई कि अनुच्छेद 370 को निरस्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा, जिसे इसे निरस्त करने या संशोधित करने की सिफारिश करने का काम सौंपा गया था, 1957 में ही भंग हो चुकी थी। जवाब में पीठ ने पूछा कि क्या संसद अनुच्छेद 368 के तहत अपनी संशोधन शक्तियों का उपयोग करके अनुच्छेद 370 को निरस्त नहीं कर सकती।
चीफ जस्टिस ने पूछा कि आप कह रहे हैं कि संविधान का एक प्रावधान है जो संविधान की संशोधन शक्तियों से भी परे है? आप कैसे कह सकते हैं कि संसद अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए अपनी पूर्ण संशोधन शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती थी?
जस्टिस एसके कौल ने इसी तरह की टिप्पणी करते हुए कहा कि संविधान एक “जीवित दस्तावेज” है और सीनियर एडवोकेट सिब्बल से पूछा कि क्या वह कह रहे हैं कि “इसे (अनुच्छेद 370) बदलने की कोई व्यवस्था नहीं है, भले ही हर कोई इसे बदलना चाहता हो?”
पीठ ने सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल से यह भी पूछा कि उनके विचार में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए उचित प्रक्रिया क्या होगी। जवाब में सिब्बल ने कोई निश्चित जवाब नहीं दिया और कहा कि सुनवाई का उद्देश्य जवाब देना नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा पहले से अपनाए गए तरीके की वैधता तय करने के संबंध में है।
अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की अनुमति के बारे में चर्चा तब शुरू हुई जब जस्टिस संजीव खन्ना ने सिब्बल से पूछा कि हम इस तर्क को क्यों स्वीकार नहीं कर सकते कि संविधान सभा में एक तरह से विधान सभा को शामिल करने की व्याख्या की जा सकती है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि संसद आर्टिकल 370 में भी बहुत अच्छी तरह से संशोधन कर सकती थी? यदि उद्देश्य आर्टिकल 370 लगाना नहीं था।
सिब्बल ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 370 केवल संविधान सभा के कहने पर लचीला था, संसद के कहने पर नहीं। इसके अलावा भारतीय संविधान निर्माताओं ने विचार किया था और अनुच्छेद 370(3) में विधान सभा के बजाय “संविधान सभा” शब्द को विशेष रूप से जोड़ा था। इस पर जस्टिस खन्ना ने टिप्पणी की, कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि जिस समय भारतीय संविधान बनाया जा रहा था, उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए कोई विधान सभा नहीं थी। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया और पूछा- “तो जब हम संविधान सभा शब्द की व्याख्या करते हैं, तो क्या हम इसकी व्याख्या विधान सभा को शामिल करने के लिए कर सकते हैं?”
सिब्बल ने नकारात्मक जवाब देते हुए कहा- “आप संविधान में उस शब्द की व्याख्या कैसे कर सकते हैं जो ‘संविधान सभा’ को विधान सभा कहता है? मुझे समझ नहीं आता। हम किस व्याख्या के तहत ऐसा कर सकते हैं? इसमें कोई निहित या व्यक्त शक्ति नहीं है। इस तरह हम किसी भी परिभाषा को बदल सकते हैं।”
सीजेआई ने पूछा कि ऐसी स्थिति में 1957 के बाद क्या होगा जब संविधान सभा भंग हुई। उन्होंने पूछा- “फिर आप संवैधानिक मशीनरी कैसे स्थापित करेंगे? ऐसा नहीं हो सकता है कि चूंकि कोई संविधान सभा नहीं है, आप अनुच्छेद 370 को निरस्त करने या संशोधित करने के प्रस्ताव पर बिल्कुल भी विचार-विमर्श नहीं कर सकते हैं। हम देखते हैं कि उन्होंने किस प्रक्रिया का पालन किया। आपके अनुसार क्या इसे करने की सही प्रक्रिया होगी?”
सिब्बल ने यह कहते हुए जवाब दिया कि ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं थी जो अनुच्छेद 370 को निरस्त कर सके क्योंकि अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के विघटन के बाद स्थायित्व ग्रहण कर लिया था। हालांकि पीठ इससे संतुष्ट नहीं दिखी।
जस्टिस कौल ने मौखिक रूप से टिप्पणी की कि आप कह रहे हैं कि संविधान के अन्य प्रावधान एक प्रक्रिया के माध्यम से संशोधन करने में सक्षम हो सकते हैं, बुनियादी ढांचे के खिलाफ प्रावधानों के अलावा, यह एक प्रावधान है जिसे कभी भी संशोधित नहीं किया जा सकता है? संविधान भी एक जीवंत दस्तावेज है। क्या आप कह सकते हैं कि इसे बदलने की कोई व्यवस्था नहीं है, भले ही हर कोई इसे बदलना चाहे? तो फिर आप कह रहे हैं कि इसे बदला नहीं जा सकता, भले ही पूरा कश्मीर इसे चाहे।”
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान के मुताबिक विधानमंडल के पास अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए सिफारिश करने की शक्ति नहीं थी। उन्होंने आगे कहा, ‘अगर आप सैद्धांतिक रूप से कहते हैं कि एक संसद खुद को संविधान सभा में बदल सकती है, तो हम कहां जाएं? मैं हमारे भविष्य को लेकर कहीं अधिक चिंतित हूं।
सिब्बल ने कहा कि जम्मू-कश्मीर की सीमाओं से संबंधित कोई भी विधेयक जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति के बिना पारित नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रपति को संविधान सभा से लेकर विधान सभा तक को निरस्त करने की सिफारिश करने के लिए अनुच्छेद 368 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसले में इसे स्पष्ट रूप से वर्जित किया गया है।
सिब्बल ने निरसन के लिए घटनाओं के अनुक्रम पर प्रकाश डाला और इस बात पर जोर दिया कि 19 जून, 2018 को, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जम्मू और कश्मीर की गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके एक दिन के भीतर, 20 जून 2018 को, राज्यपाल ने जम्मू और कश्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत उन्हें प्रदत्त शक्ति का प्रयोग किया और राज्य में ‘राज्यपाल शासन’ की घोषणा की और सरकार और विधानमंडल के कार्यों को ग्रहण किया।
सिब्बल ने कहा कि धारा 92(3) के अनुसार, राज्यपाल की ऐसी उद्घोषणा केवल 6 महीने की अवधि के लिए वैध रह सकती है। इस प्रकार, राज्य में राज्यपाल शासन 19 दिसंबर, 2018 को समाप्त होना था। हालांकि, राज्यपाल ने, जम्मू और कश्मीर के संविधान की धारा 53(2) के तहत, 21 नवंबर, 2018 को राज्य की विधान सभा को भंग कर दिया।
पीडीपी के अनुसार, उन्होंने श्रीनगर को एक फैक्स भेजा था, कि वे एनसीपी के समर्थन में हैं और वे सरकार बनाने के इच्छुक हैं। राज्यपाल का कहना है कि उन्हें फैक्स कभी नहीं मिला क्योंकि वह जम्मू में थे और फैक्स भेजा गया था श्रीनगर। इसलिए 21 नवंबर, 2018 को राज्यपाल ने इसे (राज्य विधानसभा) भंग कर दिया।”
राज्यपाल के कार्यों की आलोचना करते हुए सिब्बल ने कहा कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद के बिना विधान सभा को भंग नहीं कर सकते… उन्होंने पहले ही मंत्रिपरिषद को निलंबित कर दिया है। यह एक शुद्ध राजनीतिक कृत्य है। राज्यपाल और सरकार मिलकर काम कर रहे थे। वे 370 से छुटकारा पाना चाहते थे।” 19 जून को समर्थन वापसी के बाद 20 जून को राज्यपाल विधानसभा को निलंबित क्यों करेंगे और किसी राजनीतिक दल को गठन की अनुमति क्यों नहीं देंगे ताकि नई सरकार बन सके?’
जम्मू और कश्मीर राज्य में राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने वाले अनुच्छेद 356 के तहत उद्घोषणा जारी करने का जिक्र करते हुए, जो 19 दिसंबर, 2018 को जारी किया गया था, सिब्बल ने तब कहा कि वहां कोई मंत्रिपरिषद नहीं है, कोई सरकार नहीं है। लेकिन वह एक रिपोर्ट भेजता है कि राज्य का शासन नहीं चलाया जा सकता। कोई बातचीत नहीं है, कोई संचार नहीं है। यह करतूत का एक अद्भुत नमूना है। यह अवैधताओं की एक पच्चीकारी है ।
राष्ट्रपति शासन की वैधानिकता पर सवाल उठाते हुए सिब्बल ने यह भी कहा कि सवाल यह है कि अनुच्छेद 356 के तहत शक्ति क्या है? अनुच्छेद 356 का सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य लोकतंत्र को बहाल करना है। आप कार्यभार संभालते हैं क्योंकि एक सरकार नहीं चल सकती…अस्थायी अवधि के लिए, लोकतंत्र की बहाली के लिए। आप इसका उपयोग नहीं करते हैं इसके नाश के लिए अनुच्छेद 356।”
सिब्बल ने आगे कहा कि आप रात 11 बजे संसद में कोई बिल पेश नहीं कर सकते, किसी को इसके बारे में जाने बिना कोई प्रस्ताव पारित नहीं कर सकते… यह इस तर्क में फिट बैठता है कि यह एक राजनीतिक प्रक्रिया थी, जो संवैधानिक तरीकों से की गई थी। “
इस पर जस्टिस कौल ने जवाब दिया- “सब कुछ एक राजनीतिक प्रक्रिया है मिस्टर सिब्बल, सवाल यह है कि क्या यह संविधान में फिट बैठता है।”
(जे.पी.सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)