कांग्रेस पार्टी ने पंजाब में रमदसिया सिख समुदाय के दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है। इसका पंजाब और पूरे भारत के संदर्भ में राजनीतिक निहितार्थ क्या है? कभी-कभी बिल्कुल विपरीत सी दिखती, परिघटनाएं घटित हो रही होती हैं, जिनका संबंध इतिहास, वर्तमान और भविष्य तीनों से होता है। एक तरफ भारत आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व में हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता दिख रहा है, जिसका निहितार्थ तथाकथित अपरकास्ट हिंदू मर्दों के वर्चस्व का बढ़ना है, लेकिन दूसरी तरफ यह परिघटना भी दिख रही है कि ऐतिहासिक तौर पर तथाकथित अपरकास्ट वर्चस्व वाली पार्टियों भाजपा, कांग्रेस और अन्य को इस बात के लिए बाध्य होना पड़ रहा है कि वे ऐतिहासिक तौर पर शीर्ष स्तर पर राजनीतिक पदों से कमोवेश वंचित ओबीसी और दलित समुदायों को शीर्ष पदों के स्तर पर जगह दें। इस परिघटना की एक कड़ी चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस नेतृत्व द्वारा पंजाब का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाना भी है।
आजादी के बाद, विशेषकर संविधान लागू होने के बाद भारत में लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना हुई थी, जिसका मूल राजनीतिक तत्व था- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की घोषणा यानी एक व्यक्ति एक मत एवं एक मत का एक मूल्य। इसके साथ ही भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी भी राजनीतिक पद के लिए प्रत्याशी बनने और चुने जाने का अधिकार। न्यूनतम आयु और तय अहर्ताओं के साथ। संविधान लागू होने के साथ भले ही इसे संवैधानिक और कानूनी तौर लागू कर दिया गया, लेकिन वास्तविक राजनीतिक जीवन में अपरकास्ट जातियों का वर्चस्व शीर्ष पदों पर बना रहा। आजादी के बाद दो दशकों तक प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी कमोवेश तथाकथित ऊपरी जातियों के ही होते रहे, सत्तर के दशक में इसके थोड़ी चुनौती मिली, फिर भी अपरकास्ट जातियों का राजनीतिक वर्चस्व कायम रहा। वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वाली वामपंथी पार्टियों में भी यह स्थिति थी। लेकिन धीरे-धीरे बहुजन (दलित, ओबीसी और आदिवासी) मतदातों को अपने वोट के महत्व का अहसास होने लगा और उन्हें यह कचोटने लगा कि बहुसंख्यक वोट तो हमारा है, लेकिन राजनीतिक सत्ता पर अल्पसंख्यक अपरकास्ट का वर्चस्व है। इसकी अभिव्यक्ति “वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा” और इसके समाधान के रूप में यह नारा कि “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।”
भले ही ये नारे सूत्रबद्ध होकर नब्बे के दशक में आए और मान्यवर कांशीराम से इन्हें सहज-सरल और सबके लिए ग्राह्य रूप में सूत्रबद्ध कर प्रस्तुत किया, लेकिन बहुजनों के बीच अपने वोट के महत्व और उनका कौन राजनीतिक प्रतिनिधित्व कर रहा है, इसकी चेतना काफी पहले से आनी शुरू हो गई थी। इसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति तमिलनाडु में आजादी के पहले ही हो गई थी, जब 1921 में ही मद्रास प्रेसीडेंसी में पिछड़ों के नेतृत्व वाली जस्टिस पार्टी की सरकार बनी और आजादी के बाद तमिलनाडु में ज्यादात्तर पिछड़ों के नेतृत्व वाली ही सरकारें बनती रहीं। लेकिन उत्तर भारत में आजादी के बाद काफी लंबे समय तक संसद, विधानसभाओं और प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री पद पर अपरकास्ट के लोगों का वर्चस्व बना रहा। सबसे पहले सत्तर के दशक में बिहार में इसे चुनौती मिली और कर्पूरी ठाकुर जैसे व्यक्तित्व मुख्यमंत्री बने और बाद में लालू यादव ने इस परिघटना को एक अंजाम तक पहुंचाया। उत्तर प्रदेश में बसपा के माध्यम से कांशीराम और सपा के माध्यम से मुलायम सिंह यादव ने इसे चुनौती दिया और पहली बार भारत में कोई दलित महिला मुख्यमंत्री बनी।
इस सबके बावजूद भी देश की सबसे ताकतवर पार्टी कांग्रेस पर अपरकास्ट का पूरा वर्चस्व बना रहा, भले ही उसे क्षेत्रीय स्तर पर बहुजनों के नेतृत्व वाले दलों से चुनौती मिलती रही। केंद्र में कांग्रेस को चुनौती देने वाली गठबंधन की जो सरकारें बनीं, उसमें भी शीर्ष पद ( प्रधानमंत्री) अक्सर अपरकास्ट के हाथ ही गया, भले उसमें पिछड़ों और दलितों की भी रेखांकित करने लायक उपस्थिति रही हो। नब्बे के दशक में कांग्रेस को मुख्य चुनौती देने वाली पार्टी भाजपा बन गई। उसका भी शीर्ष नेतृत्व में अपरकास्ट ही रहा और केंद्र की उसकी पहली सरकार के प्रधानमंत्री और उपप्रधानमंत्री (अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी) अपरकास्ट के ही बने।
इसके बावजूद भी भाजपा वह पहली पार्टी थी,जिसने यह समझा कि अब पिछड़े वर्गों और दलितों को शीर्ष नेतृत्व से किनारे लगाकर वोट नहीं पाया जा सकता है और न ही उनको अपने साथ किया जा सकता है, क्योंकि पिछड़े,दलित और आदिवासी वर्गों के मतदाता अपने वोट और उसकी कीमत के प्रति जागरूक हो चुके हैं और अपने समुदाय के लोगों को अपने प्रतिनिधि के रूप में देखना चाहते हैं। भाजपा ने इसकी शुरूआत उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाकर किया और बाद में उमा भारती को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। आरएसएस को इस तथ्य का गहराई से अहसास हो गया कि बहुसंख्यक पिछड़े वर्ग और दलितों को ज्यादा दिनों तक शीर्ष राजनीतिक पदों पर प्रतिनिधित्व से किनारे लगाकर सत्ता हासिल नहीं किया जा सकता है। इसकी सबसे निर्णायक परिणति नरेंद्र मोदी को पिछड़े समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना था। बाद दलित समुदाय के रामकोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया। हाल में केंद्रीय कैबिनेट में करीब 33 प्रतिशत ओबीसी और 20 प्रतिशत दलित समुदाय के लोगों को जगह दी गई।
भारत में बहुजन समुदाय के बीच आजादी के बाद जो भावना-चेतना सबसे ज्यादा अपनी जगह बनाई है, वह यह है कि हमारे समुदाय के व्यक्ति को ही हमारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व करना चाहिए। इसकी अभव्यक्ति के रूप में बहुजनों की विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां सामने आईं। इस भावना-चेतना को सबसे पहले आरएसएस और उसके राजनीतिक आनुषांगिक संगठन भाजपा ने पकड़ा। कांग्रेस लंबे समय तक दुविधा में रही, उसकी विरासत, सांगठनिक चरित्र और शीर्ष स्तर नेताओं का सामाजिक आधार इस दुविधा का सबसे बड़ा कारण रहा है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाकर, जाति जनगणना और नीट में आरक्षण आदि का समर्थन करके कांग्रेस ने यह संकेत दिया देना शुरू कि कि वह अन्य पिछड़े वर्गों ( ओबीसी) की आकांक्षाओं को पूरा करना चाहती है और उन्हें अपने साथ करना चाहती है। दलित आजादी के बाद से ही कांग्रेस बड़े पैमाने पर वोटर रहे, लेकिन उन्हें शीर्ष स्तर पर वाजिब राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया, भले ही सांगठिनक स्तर भी दलित नेताओं को कभी-कभी शीर्ष स्थान प्रदान किया गया। जैसे जगजीवन राम को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना या मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी का नेता बनाना आदि।
शायद कांग्रेस, विशेषकर हाईकमान को इसका अहसास हो गया है कि बहुजनों ( ओबीसी,दलित और आदिवासी) को शीर्ष राजनीतिक पदों से किनारे रखकर कांग्रेस का कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है, पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाना इसका एक प्रमाण है।
परंपरागत तौर पर अपरकास्ट पार्टी कही जाने वाली भाजपा और कांग्रेस द्वारा बहुजनों को शीर्ष राजनीतिक पदों पर जगह दिए जाने का स्वागत लोकतांत्रिक दिमाग का हर व्यक्ति करेगा और करना भी चाहिए। लेकिन साथ ही बहुजन समाज को दो महत्वपूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखना जरूरी है, पहला यह कि जितना ही अधिक बहुजन आंदोलन मजबूत होगा, उतना ही अधिक उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व मिलेगा, यदि बहुजन आंदोलन कमजोर पड़ेगा, तो प्रतिनिधित्व का मामला भी कमजोर पड़ेगा,क्योंकि जो प्रतिनिधित्व फिलहाल मिला है, वह बहुजन आंदोलन की देन है,जिसने बहुजन मतदाताओं में बहुजन प्रतिनिधित्व की भावना-चेतना भरी। दूसरी बात यह कि कहीं यह प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक बनकर न रह जाए। शीर्ष राजनीतिक पदों पर बहुजन समुदाय के लोग तो हों, लेकिन वह बहुजन हितों को पूरा करने की जगह अपरकास्ट के हितों की रक्षा कर रहे हों।
(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)