आम तौर पर जब हम घरेलू हिंसा की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में एक 20-35 वर्ष की महिला की तस्वीर होती है, जिसे उसके ससुराल में प्रताड़ित किया जाता है। पर हाल में हेल्प एज इंडिया की एक सर्वे रिपोर्ट “विमेन ऐण्ड एजिंग-इनविज़िब्ल ऑर एम्पावर्ड” यानि “महिलाएं व बुढ़ापा-अदृष्य या सशक्त” द्वारा लाए गए तथ्यों ने हमें चौंका दिया है। यह रिपोर्ट यूएन द्वारा घोषित “वर्ल्ड एल्डर ऐब्यूज अवेयरनेस डे” से एक दिन पूर्व जारी की गई थी।
सर्वे के सैम्पल के बतौर 20 राज्यों, 2 केंद्र शासित प्रदेशों और 5 मेट्रो शहरों को लिया गया था और ग्रामीण व शहरी पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं से बातचीत की गई थी। रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 60-90 वर्ष आयु वर्ग की 7911 महिलाओं से 1 मई से 1 जून के बीच बात की गई।
समाज में बुजुर्ग महिलाओं की दशा
जैसा कि रिपोर्ट का शीर्षक बताता है, इस रिपोर्ट का उद्देश्य है यह जांचना कि 60 साल की उम्र पार करने के बाद महिलाओं को परिवार में पूरी तरह से नगण्य बना दिया जाता है या वे उम्र के लिहाज से सशक्त हो जाती हैं और उनका स्टेटस बेहतर हो जाता है। व्यवहारिक जानकारी से हम समझते हैं कि समाज व परिवार का ढांचा पितृसत्तात्मक होता है, इसलिए एक कामकाजी महिला की स्थिति घरेलू महिला की तुलना में कुछ बेहतर होती है, और घरेलू महिला को तब तक तवज्जो दी जाती है जब तक वह घर और बच्चों को सम्भालती है।
60 साल पार करने के बाद कामकाजी महिला रिटायर कर चुकी होती है, फिर यदि वह पेंशनधारी हाती है तो उसकी अवस्था बेहतर होती है। वह किसी पर निर्भर नहीं होती। यदि पति की सरकारी नौकरी होती है, तो उनके मरने के बाद विधवा को पारिवारिक पेंशन का लाभ मिलता है। पर यदि ऐसा न हो, तो उसे हाशिये पर धकेल दिया जाता है और वह अपने बेटों पर निर्भर हो जाती है, यानि उनके रहम-ओ-करम पर जीती है। या अधिकतर बूढ़ी विधवा महिलाओं को धर्म में शरण मिलती है। उन्हें वहीं लगता है कि उनकी एक पहचान है। वृन्दावन और बनारस में ऐसी हज़ारों औरतें दिखाई पड़ती हैं।
सर्वे के कुछ चौंकाने वाले तथ्य
सर्वे से पता चलता है कि बुज़ुर्ग महिलाओं में 16 प्रतिशत को किसी-न-किसी प्रकार का उत्पीड़न झेलना पड़ता है। उनमें से 50 प्रतिशत ने बताया कि उन्होंने शारीरिक हमले सहे और 46 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें बुज़ुर्ग होने के बावजूद घर में सम्मान नहीं मिलता। सर्वे सैम्पल में 40 प्रतिशत औरतें ऐसी थीं जिन्हें भावनात्मक और मानसिक यातना के कारण अधिक परेशानी हुई थी, बजाए शारीरिक यातना के।
बहू से अधिक बेटों द्वारा प्रताड़ना
यह जानकर सबसे अधिक ताज्जुब होता है कि जिन बेटों को इन महिलाओं ने अपनी आखों का तारा समझकर उन्हें सबसे अधिक सेवा और प्यार दिया; यहां तक कि अपना तन काटकर उनकी परवरिश की, उनकी संख्या उत्पीड़कों में सबसे अधिक पायी गई। सैम्पल में 40 प्रतिशत केस ऐसे थे जिन्हें उनके बेटों ने सताया था। 31 प्रतिशत ने प्रताड़ित करने वालों में अपने किसी रिश्तेदार का नाम लिया और 27 प्रतिशत ने बहू को जिम्मेदार बताया। बाकी 2 प्रतिशत सभी से परेशान थीं।
तो यह धारणा भी टूट गई कि सास की सबसे अधिक लड़ाई बहू से ही होती है। अलग-अलग मामलों का अध्ययन करें तो देखेंगे कि अधिकतर मामलों में बहू अपने दम पर नहीं बल्कि बेटे की शह पर सास का उत्पीड़न करती है।
आंकड़े झूठ नहीं बोलते
जिन लोगों को हेल्प एज इंडिया के ये आंकड़े अविश्वसनीय लगते हैं, वे कुछ सुर्खियां देखें, जो दिल दहलाने वाली हैं। 30 सितम्बर 2016 के द हिंदू अखबार में मुम्बई की एक खबर है कि एक बेटा-बहू और उनकी 19 वर्षीय बेटी कैसे अपनी 75 वर्षीय मां को प्रताड़ित करने के जुर्म में गिरफ्तार किये गए। शिकायत एक एनजीओ की सदस्या ने वीडियो साक्ष्य सहित की, जिसमें ये लोग बूढ़ी मां के चेहरे पर साड़ी लपेटकर उसकी सांस रोक रहे थे या फिर उसे साड़ी की मदद से पंखे से बांध रहे थे।
2017 में एक केस सामने आया जिसमें एक महिला सुपर्णा भट्टाचार्या द लाॅयर्स क्लब इंडिया से अपने चचेरे भाई के बारे में शिकायत करती हैं कि वह बैंक में काम करता है और अपने माता-पिता को गालियां देता है, मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है और आर्थिक सयोग से वंचित रखता है, जबकि वह उस पर पूरी तरह निर्भर हैं। बूढ़े मा-बाप इतने परेशान थे कि आत्महत्या तक करने की सोच रहे थे। सुपर्णा अपने चाचा-चाची को बचाने के लिए कानूनी मदद मांग रही थी।
जून 2018 में इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी कि एक 78 वर्षीय बुजुर्ग और उनकी 74 वर्षीय पत्नी ने अपने बेटे-बहू के विरुद्ध स्थानीय न्यायालय में केस जीत लिया। कोर्ट ने इन्हें अपने पिता के घर को खाली करने का आदेश दिया। बेटा-बहू अपने माता-पिता को सम्पत्ति के लिए 2004 से ही मारते-पीटते थे और यहां तक जान से मारने का भी प्रयास करते थे। वे गुण्डे लगवाकर उन्हें घर से निकालने की कोशिश कर रहे थे।
2020 का एक केस, जो कर्नाटक के दक्षिण कन्नडा जिले का था, यह तब सामने आया जब 70 साल की एक बूढ़ी महिला के पोते ने पुलिस को वीडियो बनाकर दिया जिसमें उसके चाचा और उनका बेटा शराब के नशे में बूढ़ी मां को थप्पड़ मारकर जमीन पर गिरा रहे थे। वीडियो वायरल हो गया तो मोहल्ले के लोगों ने बताया कि यह एक दिन नहीं, रोज़ की घटना बन गई थी।
7 दिसम्बर 2020 के एक अन्य केस के बारे में पढ़कर लोगों की रूह कांप गई। भोपाल जिले में एक 99 साल की महिला ने कोर्ट में याचिका दायर की कि उसके 4 बेटों ने मिलकर उसके खेत और मकान पर कब्ज़ा कर उसे सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया था, पर उसके दिव्यांग बेटे ने उसे अपने पास रखा और केस दर्ज करवाया।
इसी तरह गुड़गांव में नवम्बर 2022 के एक मामले में 2 बेटों और उनकी पत्नियों ने 72 वर्षीय मां को कई दिन भूखा रखा, कमरे में बंद किया और यहां तक कि गला घोंटकर मारने की कोशिश की जब उसने अपनी सम्पत्ति उनके नाम कर देने से इन्कार कर दिया। किरायदारों ने जब ताला खोलकर उसे आज़ाद किया, उसने पुलिस के पास जाकर केस दर्ज करवाया।
इन मामलों की चर्चा हम इसलिए कर रहे हैं कि आज के पूंजीवादी मूल्यों ने किस तरह धन और सम्पत्ति को मानवता से ऊपर कर दिया है, इस संदर्भ में समझदारी जरूरी है। वर्तमान समय में बेटों का माता-पिता के प्रति क्या नैतिक दायित्व बनता है, इसका पाठ उन्हें पढ़ाने का कोई मतलब नहीं। बल्कि बुज़ुर्ग मां-बाप को उनके कानूनी अधिकारों के बल पर उत्पीड़क बच्चों और रिश्तेदारों से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें जागरूक बनाया जाए। उनके लिए बेहतर वृ़द्धाश्रम हों जहां वे कुछ उत्पादक कार्य कर सकें, जो उनके लायक हों।
क्यों कानून का रास्ता नहीं तलाशा जाता?
रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई कि बूढ़ी महिलाएं डर के मारे शिकायत लिखाने पुलिस के पास नहीं जातीं। सैम्पल में 18 प्रतिशत औरतों ने बताया कि उन्हें इस बात का डर था कि यदि वह शिकायत करती हैं, तो उन पर प्रताड़ना बढ़ेगी और उनसे बदला लिया जाएगा। तब जीना और मुश्किल हो जाएगा। 16 प्रतिशत औरतों को यह जानकारी नहीं थी कि उनके लिए कोई सपोर्ट स्ट्रक्चर मौजूद है। 13 प्रतिशत का कहना था कि उन्हें लगता था कि बूढ़ी औरतों की सुनवाई ही नहीं होगी तो बताने से क्या फायदा।
करीब 3956 औरतों को न ही शिकायत करने के फोरम और न ही कानूनी प्रावधान की कोई जानकारी थी। इसलिए हम देखते हैं कि स्वयं उत्पीड़िता की ओर से शिकायत कम ही दर्ज की जाती है। ज्यादातर परिवार का कोई अन्य सदस्य, पड़ोसी या किरायदार शिकायत करते हैं। अब मोबाइल कैमरे की मदद से अत्याचार का वीडियो बनाना भी आसान हो गया है ताकि ठोस सबूत भी उपलब्ध हों। पता चला कि केवल 15 प्रतिशत महिलाओं को वरिष्ठ नागरिक माता-पिता भरण पोषण अधिनियम 2007 की स्पष्ट जानकारी थी। आखिर ऐसा क्यों है कि डेढ़ दशक से अधिक होने के बाद भी इसके विषय में अज्ञानता बनी हुई है?
इससे भी अधिक चौकाने वाली बात है कि 78 प्रतिशत महिलाओं को जानकारी नहीं थी कि वृद्धों के लिए, खासकर वृद्ध व विधवा महिलाओं के लिए कई सरकारी योजनाएं हैं, जो उनके लिए सामाजिक-अर्थिक सुरक्षा, भोजन व छत की गारण्टी करते हैं। क्या आपने कभी टीवी या रेडियो पर सुना है अथवा किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई होर्डिंग में लिखा देखा है कि 1 अप्रैल 2021 से वृद्धों के लिए एक अम्ब्रेला स्कीम चालू हुई है जिसका नाम अव्यय (AVYAY) है?
योजना के अंतरगत आने वाले कम्पोनेंट-
1) वरिष्ठ नागरिकों के लिए एकीकृत कार्यक्रम (आईपीएसआरसी): वरिष्ठ नागरिक गृहों, निरंतर देखभाल गृहों आदि के रखरखाव के लिए कार्यान्वयन एजेंसियों को अनुदान सहायता प्रदान की जाती है। आश्रय, पोषण, चिकित्सा और मनोरंजन जैसी सुविधाएं गरीब वरिष्ठ नागरिकों को निःशुल्क प्रदान की जाती हैं जो वरिष्ठ नागरिक गृहों में रह रहे हैं।
2) राष्ट्रीय वयोश्री योजना (आरवीवाई): बीपीएल वरिष्ठ नागरिक जो उम्र से संबंधित विकलांगता / दुर्बलता से पीड़ित हैं, उन्हें निःशुल्क सहायक उपकरण प्रदान किए जाते हैं। 1 अप्रैल 2020 से चलने की छड़ी, कोहनी बैसाखी, श्रवण यंत्र आदि जैसी सामान्य वस्तुओं के अलावा कमोड के साथ व्हीलचेयर, सिलिकॉन फोम कुशन आदि जैसी विशेष वस्तुएं भी इस योजना के तहत प्रदान की जाती हैं।
3) सिल्वर इकोनॉमी को बढ़ावा देना: सीनियर केयर एजिंग ग्रोथ इंजन (एसएजीई) नाम के पोर्टल पर एक खुला निमंत्रण दिया गया है, जिसके माध्यम से उद्यमियों को बुजुर्गों की समस्याओं के बारे में सोचने और नए समाधानों के साथ सामने आने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस योजना के तहत अधिकतम 49 प्रतिशत इक्विटी भागीदारी के साथ वित्तीय सहायता के रूप में 1 करोड़ रुपये प्रदान किया जाता है।
4) एल्डरलाइन: वरिष्ठ नागरिकों की शिकायत निवारण और माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के रखरखाव और कल्याण (एमडब्लूपीएससी) अधिनियम, 2007 और सरकारी नीतियों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए टोल फ्री नंबर 14567 पर वरिष्ठ नागरिकों के लिए हेल्प लाइन शुरू की गई है। एल्डरलाइन सप्ताह के सभी 7 दिन सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक काम करती है।
इसके अलावा राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (एनएसएपी) की इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत, ग्रामीण विकास मंत्रालय गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) से संबंधित 60 से 79 वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों को 200 (जो अपर्याप्त है और बढ़ाकर 1000 रुपये की जानी चाहिये) रुपये की मासिक पेंशन प्रदान करता है। पेंशन की राशि बढ़ाकर इन लाभार्थियों के 80 वर्ष और उससे अधिक आयु तक पहुंचने पर 500/रु प्रति माह कर दी गई है (जिसे बढ़ाकर 3000 रुपये किया जाना चाहिये)।
इनके साथ-साथ घरेलू हिंसा कानून 2005 के बारे में भी कम जानकारी है। उदाहरण के लिए किसी भी प्रताड़ित बुज़ुर्ग महिला ने हेल्पलाइन नम्बर 1090 या राष्ट्रीय महिला आयोग की डेडिकेटेड हेल्पलाइन नम्बर 7827170170 पर या फिर 181 पर काॅल करके शिकायत दर्ज नहीं कराई। इसके पीछे एक बड़ा कारण सामाजिक है- कोई मां अपने ही बेटे के खिलाफ पुलिस के पास जाए तो उसे समाज में किस नज़र से देखा जाएगा? फिर मां के भीतर भी कहीं-न-कहीं वही पुरानी सोच रहती है कि बेटा मुखाग्नि नहीं देगा तो स्वर्ग नहीं मिलेगा।
एक और प्रश्न है कि आम तौर पर महिलाओं को सरकारी तंत्र पर विश्वास नहीं रह गया है। और यह लाजमी भी है।
कानपुर की एक 70 वर्षीय महिला सुशीला वर्मा का मंझला बेटा उनके घर पर कब्ज़ा करके उन्हें जान से मारने की योजना बना रहा था। उन्होंने अपने पति के मरने के बाद अपने छोटे बेटे को साथ रखा है क्योंकि वह उनकी सेवा करता है। पर वह सीधा है इसलिए दामाद से कहकर सुशीला उच्च न्यायालय तक गईं। दुष्ट बेटे को घर खाली करने का आदेश मिला पर वह हटा नहीं। पुलिस भी उसका साथ देती रही क्योंकि उसकी पत्नी के घरवाले दबंग और पैसे वाले हैं। ऐसे में कानून को लागू कौन करे?
सामाजिक रूप से अदृश्य
सर्वे के दौरान 64 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि वे विधवा होने के कारण सामाजिक रूप से परित्यक्ता हैं। जबकि 18 प्रतिशत ने बताया कि महिला होना ही उन्हें अभिशप्त बना दिया है। इस विषय पर विकास खन्ना की फिल्म ‘द लास्ट कलर’ ने बहुत संजीदगी से फोकस किया है, जहां एक विधवा, एक किन्नर और एक सड़क पर रह रही अनाथ बच्ची की दशा में समानता ढूंढी गई है और बनारस के एक विधवा आश्रम की दशा भी चित्रित की गई है।
जहां तक आर्थिक सुरक्षा की बात है तो 53 प्रतिशत बुज़ुर्ग औरतों का लगता था कि वे पूरी तरह असुरक्षित हैं। रिपोर्ट ने बताया कि बाकी 47 प्रतिशत हिस्से में से 79 प्रतिशत अपने बच्चों पर ही निर्भर थीं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘बूढ़ी काकी’ ने भी एक ऐसी विधवा महिला की स्थिति का बखूबी बयान किया है।
भारत में दो तिहाई बुजुर्ग महिलाएं संपत्तिहीन
हेल्प एज इंडिया की रिपोर्ट ने एक और बड़ा खुलासा किया है कि भारत में 75 प्रतिशत बूढ़ी औरतों के पास कोई बचत नहीं है और 66 प्रतिशत के पास कोई संपत्ति नहीं है। 60 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि उन्होंने किसी भी डिजिटल उपकरण का प्रयोग नहीं किया और 59 प्रतिशत के पास स्मार्टफोन नहीं था। इसलिए, जब उनसे पूछा गया कि क्या उनमें ऑनलाइन कौशल विकास कार्यक्रमों से जुड़ने की इच्छा थी, तो केवल 13 प्रतिशत ने हामी भरी।
सर्वे के अनुसार 67 प्रतिशत महिलाएं परिवार में बच्चों और नाती-पोतों की देखभाल करती थीं, बाकी की खुद की हालत अच्छी नहीं थी। यह भी पता चला कि 48 प्रतिशत महिलाएं किसी-न-किसी क्राॅनिक बीमारी से ग्रस्त थीं पर सैम्पल में दो तिहाई से अधिक के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं था।
साझी दुनिया संगठन की तज़ीन फ़ातिमा से बात करने पर उन्होंने कहा कि “उनके पास बुज़ुर्ग महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकायत लेकर कभी नहीं आईं। लेकिन उन्होंने देखा है कि समाज में यदि ऐसी महिलाओं के पास सम्पत्ति और ताकत है तो सभी उनकी सेवा में लगे रहते हैं। परंतु यदि वह कमज़ोर हैं तो उन्हें सम्पत्ति के लिए सताया जाता है। पेंशनधारी स्वतंत्र महिलाएं भी बेहतर स्थिति में होती हैं।”
फ़ातिमा आगे कहती हैं कि “पारिवारिक रिश्ते बड़े जटिल होते हैं। कई बुज़ुर्ग बहुत हठी और परेशान करने वाले बन जाते हैं और दिमाग में बैठा लेते हैं कि बहुओं व बेटियों को अपने जीवन के सुख छोड़कर रात दिन उनकी सेवा करनी चाहिये। कई बार वे गुस्सैल और ‘अटेन्शन सीकिंग’ भी बन जाते हैं। इसके अलावा जो सीधा-सरल बेटा होता है माता-पिता उसके माथे मढ़ दिये जाते हैं। या कई बार माता-पिता को अलग-अलग कर दिया जाता है। हां, बागबान फिल्म की कहानी असल ज़िन्दगी का हिस्सा ही है।”
हेल्प एज इंडिया के सीईओ रोहित प्रसाद जोर देते हैं कि “सरकारी योजनाओं और कानूनों का बेहतर प्रचार होना चाहिये और उन्हें लागू होना चाहिये। साथ ही पेंशन, स्वास्थ्य सेवा, अर्थिक स्वावलम्बन के लिए कार्यक्रम और प्रताड़ना के खिलाफ शिकायत तंत्र पर सरकार को ज़ोर देना चाहिये।”
यह सब ज़रूरी है, पर समाज में महिलाओं, खासकर बूढ़ी विधवा या एकल महिलाओं के प्रति नज़रिया जब तक नहीं बदलेगा और जब तक सामाजिक रूढ़िया और प्रतिगामी संस्कारों को ढोया जाएगा, यह प्रताड़ता चलती रहेगी। हमारा मकसद होना चाहिये एक सहिष्णु समाज का निर्माण, जहां हर एक व्यक्ति को अधिकार व सम्मान मिले।
(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)