Saturday, April 27, 2024

आखिरकार लालू प्रसाद और तेजस्वी ने भी समर्पण कर दिया!

बिहार में दो महीने पहले नीतीश कुमार के पलटी मार कर भाजपा के साथ चले जाने के बावजूद ऐसा लग रहा था कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की अगुवाई में कांग्रेस और वामपंथी दलों का गठबंधन भाजपा, जनता दल (यू) और अन्य छोटी पार्टियों के गठबंधन को कड़ी चुनौती देगा, लेकिन इस संभावना पर लालू प्रसाद और उनके बेटे तेजस्वी की राजनीति ने पानी फेर दिया। लालू प्रसाद ने अपने गठबंधन में शामिल पार्टियों से सीटों के बंटवारे पर सहमति बनाए बगैर जिस तरह ज्यादातर लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवारों की एकतरफा घोषणा की है, उससे बिहार में महागठबंधन लगभग खत्म हो गया है।

दो महीने पहले जब नीतीश कुमार अचानक महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ चले गए थे तो फौरी तौर पर यही माना गया था कि लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन का कोई भविष्य नहीं बचा। कम से कम मीडिया ने तो यही हवा बनाई थी। फिर भी उस घटनाक्रम के बाद तेजस्वी यादव ने जिस आक्रामक अंदाज में पूरे प्रदेश में जन विश्वास यात्रा निकाली थी और उसमें जिस तरह उन्हें लोगों का समर्थन मिला था, उससे लग रहा था कि अगर राजद, कांग्रेस और तीन वामपंथी पार्टियों के बीच अगर ठीक से सीटों का बंटवारा होता है तो उनका गठबंधन एनडीए को कड़ी टक्कर देगा और बिहार की लगभग आधी सीटों पर जीत हासिल कर लेगा। लेकिन लालू प्रसाद ने इस संभावना को खत्म कर दिया। उन्होंने लगभग उन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, जिन्हें कांग्रेस मांग रही थी या जहां कांग्रेस के पास मजबूत उम्मीदवार थे।

लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने बेगूसराय लोकसभा सीट कांग्रेस को नहीं दी। कांग्रेस चाहती थी कि कन्हैया कुमार उस सीट पर लड़े। लेकिन बिना कांग्रेस से बात किए लालू प्रसाद ने सीपीआई को वह सीट दे दी और वहां से अवधेश राय उम्मीदवार हो गए। गौरतलब है पिछले चुनाव मे सीपीआई की टिकट पर लड़ रहे कन्हैया कुमार को हराने के लिए लालू प्रसाद ने बेगूसराय सीट पर तनवीर हसन को उतारा था, जिन्हें दो लाख वोट मिले थे। इस बार चुनाव से पहले ही लालू ने कन्हैया का पत्ता काट दिया।

इसी तरह लालू प्रसाद ने पूर्णिया सीट पर जनता दल (यू) छोड़ कर राजद में शामिल हुईं विधायक बीमा भारती को टिकट दे दिया। पिछले दिनों इस इलाके के दिग्गज नेता और तीन बार सांसद रहे राजेश रंजन यानी पप्पू यादव ने अपनी जन अधिकार पार्टी का विलय कांग्रेस में किया था। कांग्रेस उन्हें पूर्णिया से उम्मीदवार बनाना चाहती थी। कांग्रेस में शामिल होने से एक दिन पहले पप्पू यादव ने पटना में लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव से मुलाकात की थी। उन्होंने लालू प्रसाद को पितातुल्य और तेजस्वी को छोटा भाई बताया था।

लेकिन उस मुलाकात में सब कुछ तय होने के बाद भी लालू प्रसाद मुकर गए। उन्होंने पप्पू यादव को पूर्णिया के बजाय सुपौल या मधेपुरा से लड़ने का प्रस्ताव दे दिया। दूसरी ओर पप्पू यादव ने साफ कर दिया कि वे पिछले पांच साल से पूर्णिया में काम कर रहे हैं और तीन बार वहां से सांसद रहे हैं, इसलिए पूर्णिया से ही लड़ेंगे।

इसी तरह लालू प्रसाद ने औरंगाबाद सीट पर भी जनता दल यू से लाए गए अभय कुशवाहा को उम्मीदवार बना दिया, जबकि कांग्रेस अपने पूर्व सांसद और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार को चुनाव लड़ाना चाहती हैं। निखिल कुमार ने घोषित कर दिया है कि वे औरंगाबाद से ही चुनाव लड़ेंगे। ऐसे ही मीरा कुमार सासाराम नहीं लड़ना चाहती थीं, वे अपने बेटे के लिए काराकाट सीट चाहती थीं, जो लालू प्रसाद ने सीपीआई (एमएल) को दे दी।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह पूर्वी चंपारण सीट से सांसद रहे हैं। वे पूर्वी चंपारण या उसके बदले नवादा की सीट मांग रहे थे लेकिन लालू प्रसाद ने दोनों सीटों पर अपने कुशवाहा उम्मीदवार उतार दिए। लालू प्रसाद तारिक अनवर के लिए कटिहार सीट भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। वे वहां से पूर्व राज्यसभा सदस्य अशफाक़ करीम को लड़ाना चाहते हैं। कांग्रेस अपने ब्राह्मण उम्मीदवार के लिए बक्सर सीट मांग रही थी लेकिन लालू ने वहां भी अपना उम्मीदवार उतार दिया। कुल मिला कर लालू प्रसाद कांग्रेस की पारंपरिक सीटों के बजाय नई और अपेक्षाकृत ज्यादा कमजोर सीट दे रहे हैं। जाहिर है कि लालू प्रसाद के इस रवैये से कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन लगभग टूट चुका है, जिसका सीधा फायदा भाजपा और जनता दल (यू) के गठबंधन को होना है।

लालू प्रसाद के बारे में अब तक यह माना जाता रहा है कि वे उन चंद विपक्षी नेताओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने और अपने परिवारजनों के खिलाफ तमाम मुकदमों और उत्पीड़न का सामना करते हुए भी भाजपा और उसकी सरकार के आगे समर्पण नहीं किया और उलटे उन्हें ललकारते रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि लालू प्रसाद ने इतने सालों के अपने सारे किए धरे पर पानी फेरने का काम क्यों किया? भाजपा और जनता दल (यू) के खिलाफ विपक्ष की साझा और निर्णायक लड़ाई को दोनों पिता-पुत्र ने कमजोर क्यों किया? क्या ये दोनों भी डर गए हैं और वैसे ही किसी परोक्ष दबाव में हैं, जैसे दबाव में बसपा सुप्रीमो मायावती हैं और पहले बहुत हद तक मुलायम सिंह यादव भी रहे हैं। गौरतलब है कि मायावती ने पिछला विधानसभा चुनाव पूरी तरह से निष्क्रिय होकर लड़ा था और उसका नतीजा यह रहा था कि 403 में उनकी पार्टी सिर्फ एक सीट जीती थी। लोकसभा का चुनाव भी वे उसी तरह लड़ रही हैं।

अब बिहार में लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव भी बिल्कुल इसी अंदाज में लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस की मांगी गई लगभग सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। उसमें भी उन्होंने अपनी पार्टी के मजबूत नेताओं को या अपने सामाजिक समीकरण के नेताओं को उम्मीदवार बनाने के बजाय ज्यादातर सीटों पर अपने समीकरण से बाहर के नेताओं और दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया है। इस तरह लालू प्रसाद ने बिहार में परोक्ष रूप से भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को वॉकओवर दे दिया है। वॉकओवर वाली बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि पिछले करीब एक महीने से ईडी, सीबीआई आदि केंद्रीय एजेंसियों ने लालू और उनके परिवार से मुंह फेर रखा है और किसी को भी कोई समन नहीं भेजा है या किसी से कोई पूछताछ नहीं की है।

अभी कांग्रेस और राजद का गठबंधन जिस स्थिति में दिख रहा है उसे देखते हुए लग रहा है कि अगर सब कुछ ऐसा ही रहा तो महागठबंधन को एक सीट भी शायद ही मिले। पिछली बार जीती किशनगंज सीट भी कांग्रेस गंवा सकती है। लालू प्रसाद ने ऐसी स्थिति बना दी है कि कांग्रेस अकेले लड़े। इसका फायदा भाजपा गठबंधन को होगा। चुनाव से पहले ही धारणा बदल जाएगी। हालांकि लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के नेता किसी दबाव की बात को खारिज कर रहे हैं और उसे साजिश थ्योरी करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि इसके पीछे राजनीतिक कारण है।

राजनीतिक कारण यह है कि लालू प्रसाद और तेजस्वी दोनों मान रहे हैं कि यह चुनाव उनका नहीं है। वे मान रहे हैं कि लोकसभा चुनाव भाजपा जीतती है तो जीत जाए, वे विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी कर रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि वे नीतीश कुमार और भाजपा के समीकरण में सेंध लगा रहे हैं ताकि विधानसभा चुनाव में मुस्लिम और यादव के अलावा दूसरा वोट भी जुड़े। वे अपने लोगों को टिकट देकर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर संगठन और कैडर मजबूत कर रहे हैं ताकि विधानसभा चुनाव मजबूती से लड़ सकें। लेकिन लगातार दूसरी बार लोकसभा में जीरो पर आउट होने के बाद लालू प्रसाद की पार्टी कितनी मज़बूती से विधानसभा का चुनाव लड़ पाएगी, यह समझा जा सकता है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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