नौ साल न्यायपालिका से उलझती रही मोदी सरकार 

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भारत में संविधान की व्याख्या और शक्तियों के बंटवारे को निर्धारित करने का दायित्व संविधान ने न्यायपालिका को सौंपा है। ऐसे में सुप्रीमकोर्ट और सरकार के बीच वर्चस्व के लिए टकराव होते रहना स्वाभाविक है। पिछले नौ साल से सरकार और न्यायपालिका के बीच वर्चस्व की अघोषित लड़ाई जारी है। सार्वजनिक मंचों से कभी न्यायपालिका सरकार को निशाने पर लेती है तो सरकार भी न्यायपालिका को कार्यपालिका के कामों में दखल देने की सलाह देने से बाज़ नहीं आती। नतीजतन मोदी सरकार के नौ वर्ष पूरा होने के एक महीना पहले ही कानून मंत्री किरण रिजिजू को कानून मंत्रालय से हटा दिया गया, क्योंकि उन्होंने सुप्रीमकोर्ट की कॉलेजियम प्रणाली को लेकर लगातार निशाने पर ले रखा था।  इन नौ वर्षों में कई ऐसे मौके आए हैं, जब सरकार और न्यायपालिका का गतिरोध खुलकर सामने आया है।

न सिर्फ़ मोदी सरकार, बल्कि पिछली सरकारों के भी कई सदस्यों की यह शिकायत रही है कि न्यायपालिका आदतन कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दख़ल देती है। कार्यपालिका की कोशिश रही है कि वह न्यायपालिका को अपने वश में करे और अपनी लक्ष्मण रेखा के पार जाकर न्यायपालिका ने उसे इसका एक बहाना दिया है। न्यायपालिका को कमज़ोर करने की कोशिशें भारतीय लोकतंत्र के मूल चरित्र के लिए ख़तरा हैं। मगर अफ़सोस की बात है कि इसे बहुमत का समर्थन हासिल है।

मई 2014 और 2019 में लोकसभा में बहुमत पाने के बाद से मोदी सरकार केंद्र में सत्ता के नौ साल पूरे कर रही है। इस दौरान सरकार और न्यायपालिका में लगातार टकराव सामने आता रहा। मोदी सरकार न्यायपालिका से अपने संबंधों को लेकर हमेशा चर्चा में रही। ज्यादातर समय सरकार और न्यायपालिका में टकराव की सूरत देखने को मिली।

हालांकि, इस बार यह अनबन ज्यादा ही देखने को मिली। कानून के जानकार इसकी एक वजह यह मानते हैं कि इस बार केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी अपने दम पर बहुमत हासिल करने में सफल रहा और प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपने या अपनी सरकार के निर्णयों में न्यायपालिका की कोई दखलंदाजी पसंद नहीं कर रहे हैं। कई मौके आए जब सरकार और न्यायपालिका में असहमतियां देखने को मिलीं।

वित्त मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण जेटली ने 11 मई, 2016 को राज्य सभा में कहा था, ‘भारत की न्यायपालिका लगातार विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण कर रही है और अब केंद्र के पास केवल बजट बनाने और वित्तीय अधिकार रह गए हैं। कदम-दर-कदम विधायिका की ईंट से ईंट निकाली जा रही है। वित्त मंत्री का यह बयान भारतीय संघ के गणराज्यों और न्यायपालिका से टकराव की कहानी बयां कर देता है। वह जीएसटी पर केंद्र और राज्यों के बीच आई असहमति को दूर करने के लिए एक संस्था के गठन की मांग पर बोल रहे थे।

मोदी मंत्रिमंडल में अभी हाल ही में हुए फेरबदल में किरेन रिजिजू से कानून मंत्रालय छिन गया। उनके स्थान पर अर्जुन मेघवाल को कानून मंत्मिरी बना दिया गया। रिजिजू और न्यायपालिका के रिश्ते कभी अच्छे नहीं थे। रिजिजू का न्यायपालिका से खुला टकराव मोदी सरकार की मुसीबतें बढ़ाता गया। रिजिजू ने न्यायपालिका के प्रति खुले तौर पर टकराव वाला रवैया अपनाया था। उन्होंने बार-बार जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को “अपारदर्शी”, “संविधान से अलग” और “दुनिया में एकमात्र प्रणाली जहां जज अपने परिचित लोगों को नियुक्त करते हैं” कहा था।

हालांकि उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कोई टकराव नहीं है, लेकिन इस बात पर भी जोर दिया कि जजों को न्यायिक आदेशों के माध्यम से नियुक्त नहीं किया जा सकता है और यह सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। दरअसल, उन्होंने जोर देकर कहा था कि न्यायिक नियुक्ति न्यायपालिका का कार्य नहीं है और इसकी प्राथमिक भूमिका मामलों को तय करना है।

रिजिजू के बयानों को सरकार समर्थित मीडिया ने इसे हमेशा सरकार बनाम न्यायपालिका की लड़ाई बताकर पेश करती रही है। इस लड़ाई को तार्किक परिणति तब तक पहुंचाने में रिजिजू की बलि स्वाभाविक स्वाभाविक है। दरअसल कानून मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के टकराव में सुप्रीम कोर्ट ने दृढ़ता  के साथ संविधान और कानून के शासन को तरजीह दी नतीजतन एक के बाद एक ऐसे फैसले आए जिससे सरकार की परेशानी बढ़ी और सरकार की किरकिरी हुई।

सुप्रीम कोर्ट पर अकेले रिजिजू हमलावर नहीं थे, भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी कई बार न्यायपालिका पर हमला बोला। आमतौर पर उपराष्ट्रपति जैसे पद पर बैठा शख्स न्यायपालिका के संबंध में हद दर्जे की गिरी हुई बयानबाजी नहीं करता है। लेकिन धनखड़ के बयान न सिर्फ न्यायपालिका, बार में बल्कि आम लोगों में भी पसंद नहीं किए गए।

भारत में न्यायपालिका के शीर्षस्थ ढांचे को सरकार के दबाव से मुक्त माना जाता रहा है। यहां से प्रधानमंत्री तक के खिलाफ फैसले आए हैं। 1975 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश बनाम राज नारायण केस में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जीत को हार में बदल दिया था और उनके छह सालों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।

मोदी सरकार का न्यायपालिका से सबसे बड़ा टकराव जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमिशन यानी एनजेऐसी को लेकर हुआ। न्यायपालिका में नियुक्ति का कॉलेजियम का तरीका विवादों के घेरे में रहा है। मोदी सरकार ने इसे नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमिशन यानी एनजेऐसी से रिप्लेस करने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 2015 में इस प्रस्ताव को 4-1 से ठुकरा दिया। विशेषज्ञों के मुताबिक एनजेएसी के जरिए सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में नियुक्ति की कमान न्यायपालिका से लेकर अपने पास रखना चाहती थी, जिसे न्यायपालिका ने स्वीकार नहीं किया। इसके बाद सरकार और न्यायपालिका में जजों की भर्ती को लेकर अनबन देखने को मिली।

6 अप्रैल, 2015 को मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में पीएम नरेंद्र मोदी के वक्तव्य से न्यायपालिका और सरकार में टकराव की गंभीरता साफ देखने को मिली। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने देश के मुख्य न्यायाधीश के नजरिए से मंच से ही असहमति जताई। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने लगभग रोते हुए लंबित केसों और न्यायपालिका में जजों की कमी का जिक्र किया था। इसके बाद मंच पर आए पीएम ने कहा कि लंबित केसों की वजह यह है कि अदालतें कमजोर कानूनों की व्याख्या करने में ही सालों का समय लगा देती हैं।

मोदी ने न्यायपालिका पर आरोप लगाने के अंदाज में कहा, ‘अदालतों को फाइव स्टार एक्टिविस्टों की बनाई गई अवधारणाओं से प्रभावित होकर फैसले सुनाने से बचना चाहिए।’ इसके बाद भी चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने 2 जजों के ट्रांसफर पर नाराज होकर कहा था कि वह संबंधित जजों से न्यायिक काम वापस ले लेंगे। इसके अलावा उन्होंने जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक आदेश देने और पीएमओ और कानून मंत्रालय के अधिकारियों के खिलाफ अवमानना का केस चलाने की धमकी तक दे डाली थी।

कॉलेजियम ने वरिष्ट वकील यूयू ललित और गोपाल सुब्रमण्यम का नाम सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में नियुक्ति को भेजी लेकिन मोदी सरकार ने ललित कि सिफारिश मान ली और गोपाल सुब्रमण्यम की सिफारिश वापस भेज दी थी। इससे नाराज सुब्रमण्यम ने अपना आवेदन ही वापिस ले लिया था। तब सुप्रीम कोर्ट गर्मियों की छुट्टियों में बंद था। इससे क्षुब्ध तत्कालीन सीजेआई आरएम लोढ़ा ने कहा था कि सुब्रमण्यम को सुप्रीम कोर्ट के खुलने का इंतजार करना चाहिए था। क्योंकि अगर कॉलेजियम फिर सुब्रमण्यम का नाम सरकार के पास भेज देता तो सरकार को यह मंजूर करना पड़ता। दरअसल सुब्रमण्यम सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस में न्याय मित्र थे और उन्होंने नए सबूतों के साथ तत्कालीन नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामले में सीबीआई जांच के आदेश दिए थे।

केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट से एक और झटका उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने के मामले में मिला. दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें थीं, जहां सरकार को अल्पमत में लाकर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। तीन महीने के अंदर दो ऐसे मामले सामने आने पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल पर टिप्पणी की कि उन्हें याद रखना चाहिए कि वह जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं। इसलिए वह मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों की काउंसिल से सलाह के बिना सत्ता अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं। साथ ही कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर सरकार अल्पमत में है तो राज्यपाल को फ्लोर टेस्ट करवाकर रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजनी चाहिए। किसी भी सूरत में राज्यपाल को मुख्यमंत्री की सलाह लेनी ही होगी। कोर्ट ने ये टिप्पणियां जुलाई 2016 में अरुणाचल प्रदेश के मामले में की थीं।

बीसीसीआई के संचालन में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप को भी सरकार और न्यायपालिका के टकराव में शुमार किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सीजेआई जस्टिस लोढ़ा की अध्यक्षता में बनी कमेटी की सिफारिशों को बीसीसीआई में लागू करने को लेकर भारत की इस शीर्ष क्रिकेट प्रशासक संस्था को कड़ी फटकार लगाई और कहा था, ‘सुधर जाओ, वर्ना हम आपको सुधारेंगे।’ कोर्ट ने बीजेपी के नेता अनुराग ठाकुर पर न्यायिक सुधार में रोड़े अटकाने पर उन्हें जेल भेजने की चेतावनी दी, तब जाकर ठाकुर ने बीसीसीआई अध्यक्ष का पद छोड़ा। इसके अलावा सीबीआई डायरेक्टर राकेश अस्थाना की नियुक्ति को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।

सरकार के न्यायपालिका से टकराव से संबंधित मामले में ही 2018 में देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के ही चार अन्य वरिष्ठम जजों का खुलकर सामने आना रहा। जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसफ ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सीजेआई दीपक मिश्रा की प्रशासनात्मक गतिविधियों पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में जो गलत हो रहा है, उसे बताना उनकी जिम्मेदारी है। इन जजों ने कहा कि वे सीजेआई के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीश पर केंद्र सरकार को फायदा पहुंचाने वाले कदम उठाने का आरोप लगाया।

सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस जज बीएच लोया की अप्राकृतिक और रहस्यमयी मौत की सुनवाई से ठीक पहले हुई थी। इस केस की सुनवाई वरिष्ठ जजों को नजरअंदाज कर जूनियर जज को दी गई थी। इसे भी जजों की नाराजगी की वजह बताया गया। चार जजों ने अपनी चिट्ठी में भी लिखा कि कई मौकों पर सीजेआई ने रोस्टर बनाने के दौरान बेंच का निर्धारण अपनी पसंद और अतार्किक ढंग से किया।

साल 2018 में मोदी सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी के कई मामले देखने को मिले। उत्तराखंड हाई कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस केएम जोसेफ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए  कॉलेजियम की ओर से केंद्र सरकार को जस्टिस जोसेफ का नाम भेजा गया था, लेकिन केंद्र ने वरिष्ठता के उल्लंघन का हवाला देते हुए नाम पुनर्विचार के लिए लौटा दिया। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले में केंद्र सरकार को जस्टिस जोसेफ की बेंच के फैसले से झटका लगा था। केंद्र के इस फैसले की एक वजह इसे भी माना जाता है।

कर्नाटक में मई 2018 में हुए 222 विधानसभा सीटों के लिए चुनावों में राज्यपाल वजुभाई वाला ने सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी (104 सीट) के पास बहुमत से कम आंकड़े होने पर उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए शपथ दिला दी और बहुमत परीक्षण के लिए 15 दिन का समय दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ 15 दिन की अवधि को घटाकर 24 घंटे किया, बल्कि यह याचिका भी स्वीकार कर ली कि बहुमत के आंकड़े से पीछे रही सबसे बड़ी पार्टी या पोस्ट पोल अलांयस (कर्नाटक मामले में कांग्रेस-78 सीट और जेडीएएस- 37 सीट) किसे पहले सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिए। यानी इस मामले में भी राज्यपाल की भूमिका की सुप्रीम कोर्ट समीक्षा कर सकता है। केंद्र में बीजेपी की सरकार होने की वजह से यह मामला भी न्यापालिका बनाम केंद्र सरकार के टकराव का उदाहरण है।

हाल के वर्षों मे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रिश्ते बहुत मधुर नहीं रहे हैं। न्यायपालिका पर अपनी सीमा का अतिक्रमण करने का आरोप रह-रह कर लगता रहा है। कई मौक़ों पर न्यायपालिका के शीर्षस्थ सदस्यों ने न्यायिक पीठों को नुकसान पहुंचाने वाले मुद्दों को सुलझाने में कार्यपालिका की नाकामी को लेकर अपनी निराशा भी जताई है।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मोदी सरकार, इंदिरा सरकार के स्वघोषित वामपंथी मोहन कुमार मंगलम द्वारा सामने रखे गए उद्देश्यों को आगे बढ़ा रही है, जो वैचारिक स्तर पर इसके विरोध में पड़ते हैं। 1973 में न्यायपालिका, संविधान में मनमर्जी से संशोधन करने की उस वक़्त की प्रधानमंत्री की इच्छाओं के आगे दीवार की तरह खड़ी हो गई थी। इससे चिढ़ कर तत्कालीन स्टील मंत्री कुमार मंगलम ने अपने मंत्रालय के कामों के दायरे से बाहर निकल कर एक ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ का विचार सामने रखा। इस दौर में ख्यातिनाम जजों के साथ की गयी कठोरता का दुखद प्रकरण इसी सोच का नतीजा था।

तबसे लेकर अब तक न्यायपालिका को अपना आज्ञाकारी बनाने की कोशिश होती रही है। साथ ही यह कोशिश भी की जाती रही है कि जज अपना पहला काम विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन स्थापित करना स्वीकार करें। कुछ राजनेता, ख़ासतौर पर जब वे सत्ता में होते हैं, खुले तौर पर ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ का समर्थन करते रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि आज़ादी के बाद हालात हमेशा ऐसे ही थे। जवाहरलाल नेहरू को न्यायपालिका द्वारा संविधान की व्याख्या से दिक्कत थी। यहां तक कि इसके कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार को लेकर पहला संशोधन भी हुआ, लेकिन फिर भी नेहरू ने न्यायपालिका के प्रति ज़बरदस्त सम्मान का परिचय दिया।

लेकिन ठीक आधी सदी पहले, 1967 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गोलकनाथ मामले में अपना फ़ैसला सुनाने के साथ पटकथा बदलने लगी ।गोलकनाथ के फ़ैसले से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच उपजी तनातनी 6 वर्षों से ज़्यादा समय तक चलती रही, जब तक कि 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले में अपना फ़ैसला नहीं सुना दिया। इस फ़ैसले ने तब से लेकर अब तक संविधान के मूलभूत चरित्र (बेसिक कैरेक्टर) को बचाने का काम किया है।

मोदी सरकार और सुप्रीमकोर्ट के बीच टकराव का ताजा मामला दिल्ली विधान सभा और दिल्ली कि निर्वाचित सरकार के अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला है, जिसे मोदी सरकार ने अध्यादेश लाकर उलट दिया है। दरअसल मोदी सरकार किसी भी कीमत पर दिल्ली की कमान छोड़ना नहीं चाहती और केजरीवाल सरकार को केवल गाजी सरकार बनाकर रखना चाहती है। मोदी सरकार ट्रांसफर पोस्टिंग में दिल्ली के एलजी का वर्चस्व बनाए रखने के लिए अध्यादेश लेकर आई है और सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले को उलट दिया है। इससे भविष्य में सुप्रीम कोर्ट से केंद्र सरकार का एक नया टकराव होना संभावित है।

कुछ दिन पहले ही अधिकारों की लड़ाई में दिल्ली सरकार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में बड़ी जीत मिली थी। लेकिन अब उसी फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने एक नया अध्यादेश जारी कर दिया है। ये अध्यादेश केजरीवाल सरकार के लिए ही जारी किया गया है। इस अध्यादेश में साफ लिखा है कि अधिकारियों की पोस्टिंग-ट्रांसफर पर असली बॉस एलजी ही रहने वाले हैं।

कुछ दिन पहले संविधान पीठ ने कहा था कि चुनी हुई सरकार के पास अफसरों की पोस्टिंग-ट्रांसफर की ताकत रहनी चाहिए, इससे चुनी हुई सरकार जवाबदेह बनती है और अधिकारियों की भी जवाबदेही तय हो पाती है। लेकिन अब केंद्र सरकार ने जो अध्यादेश जारी किया है, उसके मुताबिक दिल्ली सरकार अधिकारियों की पोस्टिंग पर फैसला जरूर ले सकती है, लेकिन अंतिम मुहर एलजी को ही लगानी होगो.

केंद्र सरकार जो अध्यादेश लेकर आई है, उसके जरिए राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन होगा। ये प्राधिकरण ही बहुमत से फैसला करेगा कि कब किस अधिकारी का ट्रांसफर करना है। इस प्राधिकरण में तीन सदस्यों को रखा जाएगा, इसमें सीएम, मुख्य सचिव और प्रधान सचिव गृह होंगे। लेकिन जो भी फैसला होना होगा, वो बहुमत के आधार पर ही लिया जाएगा। यानी कि केजरीवाल सरकार के फैसले को दो नौकरशाह नकार सकते हैं। इस प्रकार चुनी हुई सरकार निरर्थक साबित हो सकती और यह संसदीय लोकतंत्र का पूरी तरह उपहास होगा।

मुख्यमंत्री केजरीवाल केंद्र सरकार के इस फैसले का पहले ही अंदेशा जता चुके थे। उन्होंने कहा था कि ऐसा सुनने में आ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए केंद्र सरकार कोई अध्यादेश ला सकती है।

इस बीच अरविंद केजरीवाल शुक्रवार को सर्विस सेक्रेटरी के ट्रांसफर को लेकर एलजी विनय सक्सेना से मिलने पहुंचे। जिसके बाद एलजी ने सर्विस सेक्रेटरी की ट्रांसफर की फाइल पर सहमति दे दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली सरकार ने सर्विस सेक्रेटरी आशीष मोरे का ट्रांसफर कर दिया था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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