बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष: भारतीय आधुनिकता के महान प्रवर्तक गौतम बुद्ध

Estimated read time 1 min read

[किसी वस्तु या विचार को इसलिए सही न मानो‌ कि वे तुम्हारी परम्परा से मिले हैं या तुम्हारे गुरुजन ऐसा कहते हैं या फिर उन‌ पवित्र धर्मग्रंथों में लिखा है जिनका तुम बहुत आदर करते हो। किसी भी विचार को अपनी तर्क, बुद्धि और विवेक पर कसो। जो तुम्हें सही लगे और सब‌के हित हो, उसे ही मानो और जीवन में लागू करो- गौतम बुद्ध]

आमतौर पर आधुनिकता का सम्बन्ध यूरोप के पुनर्जागरण के साथ-साथ पूंजीवाद के आगमन से भी है। यूरोपीय पुनर्जागरण या रिनेसां का सम्बन्ध तर्क, विचार और विवेक से था, जिसका केन्द्र इटली में था। जिसमें ‌कला, साहित्य, शिल्प, स्थापत्य और विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। हर जगह पुरानी सामन्ती मूल्य-मान्यताओं को चुनौती दी गई तथा तर्क, बुद्धि और विवेक की बात की गई।

बाद में हम इसका प्रभाव यूरोप में ‘मार्टिन लूथर’ और ‘काल्विन’ के धर्म सुधार आन्दोलनों में देख सकते हैं तथा इसका चरमोत्कर्ष 1779 की फ्रांस की राज्य क्रांति थी, जिसमें सबसे पहले फ्रांस में सामन्ती सत्ता को उखाड़ फेंका गया और दुनिया में पहली बार स्वाधीनता और जनवाद की बात की गई।

यह क्रांति राजतंत्र के साथ-साथ चर्च की निरंकुशता के भी ख़िलाफ़ थी। इस क्रांति के विचारक ‘रूसो’, ‘वाल्टेयर’ और ‘दिदरो’ थे। ऐसा माना जाता है कि तर्क, बुद्धि और विवेक की अवधारणा दुनिया में यहीं से शुरू हुई, परन्तु जब हम गौतम बुद्ध के विचारों को देखते हैं, तो क्या ऐसा नहीं लगता है कि तर्क, बुद्धि और विवेक; जो मूलतः आधुनिकता के स्रोत हैं, उनके बारे में गौतम बुद्ध ने करीब ढाई हज़ार वर्ष पहले ही कहा था। बुद्ध के आधुनिकता के ये विचार क्या एक व्यापक समाज परिवर्तन के अंग बन‌ सकते हैं। इस प्रश्न का उत्तर हम आंबेडकर के बौद्ध धर्म सम्बन्धी विचारों से समझ सकते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष में अपनी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता के दौरान हस्तांतरण के प्रश्न पर ‌प्रमुख नेतृत्व का अंग्रेज़ों के साथ संवाद, भावी समाज‌ अथवा‌ देश निर्माण के स्वरूप का प्रश्न तथा उनके विकास की सवर्ण मानसिकता के अनुभव ने अंबेडकर को इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया था, कि मात्र राजनीतिक स्वाधीनता से इस देश की श्रमजीवी जनता को सामाजिक और वैचारिक स्वाधीनता नहीं दिलाई जा सकती है।

आंबेडकर की दृष्टि में भारतीय समाज जिन सामन्ती अन्तर्विरोधों से सीढ़ीनुमा स्तरभेद वाली सामाजिक संरचना की विसंगतियों और वर्णीय श्रेष्ठता वाली मानसिकता से ग्रस्त है, उसमें पशु से बदतर जीवन जीने को अभिशप्त दलितों को जातीय दमन, उत्पीड़न और अत्याचारों से पूर्ण मुक्ति नहीं दिलाई जा सकती।

कानून और संविधान से इतर यदि जीवन, विचार, समाज और व्यवस्था में भी स्वाधीनता लानी है, तो सामाजिक स्तर पर जहां जातिवादी जकड़न ख़त्म करना जरूरी है, वहीं वैचारिक स्तर‌ पर वर्णाश्रम व्यवस्था; जिस तत्त्वमीमांसीय बुनियाद को‍ अपने गर्भ में आत्मसात किए हुए है, उसके जनविरोधी चरित्र को उजागर कर ख़ारिज़ करना अपरिहार्य है। अपने विचार और कर्म में उन्होंने लगातार यह दिखाने और ‌बताने का प्रयास किया है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था को वैचारिक और भौतिक मज़बूती प्रदान करने वाली आदर्श आचार संहिता ‘मनुस्मृति’ वस्तुत: दलितों की दासता का दस्तावेज है।

आंबेडकर के हिन्दू धर्म के आदर्श और यथार्थ में पाई जाने वाली अमानवीय स्थितियों से आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति हिन्दू धर्म के नकार से हुई है। वे हिन्दू धर्म के विकल्प के रूप में एक ऐसे श्रेष्ठ धर्म की तलाश करते रहे, जो अश्पृश्यों को ‘मानव‌’ होने का वैचारिक आधार दे सके। सिक्ख, ईसाई और इस्लाम आदि धर्मों के प्रति सम्मोहन के बावजूद आंबेडकर को दलितों की पूर्ण मुक्ति बौद्ध धर्म में ही दिखाई दी।

उनकी दृष्टि में दलितों की सामाजिक उपेक्षा और अवमानना को ख़त्म करने हेतु जिस‌ सामाजिक और वैचारिक बदलाव की आवश्यकता है वह बौद्ध धर्म में ही सम्भव है। मनुवाद का विकल्प बौद्ध धर्म ही बन‌ सकता है। अपनी इस समझ को व्यवहारिक रूप देते हुए आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को सार्वजनिक रूप से ग्रहण कर लिया।

वास्तव में बुद्ध का दर्शन सामाजवादी जीवन मूल्यों का पक्षपोषक है। वे एक महान प्रजातांत्रिक समाज के मार्गदर्शक थे। एक व्यवहारवादी, मानवतावादी, अनुभववादी और प्राकृतिक दार्शनिक के रूप में उनके चिंतन के केंद्र में मनुष्य एवं उसकी ‌समस्याएं थीं। वे अपने चारों ओर छाई हुई मरणशीलता, रुग्णता और अपंगता को लेकर उद्वेलित थे। वे मानते थे कि मानव‌ जीवन‌ की मूल समस्याएं, उनके कारण और उनसे मुक्ति के उपाय इसी दुनिया में हैं।

सम्भवतः बुद्ध पहले प्रयोगधर्मी‌ दार्शनिक थे जिन्होंने मानव जीवन की कठोर वास्तविकताओं की इतनी गहनता और समग्रता के साथ व्याख्या की। यही कारण है कि आंबेडकर को बुद्ध में एक बेहतर समाज रचना की एक समग्र दृष्टि दिखाई देती है। ‘व्यक्ति की गरिमा और मानवीय मूल्यों में विश्वास बुद्ध को आम‌ व्यक्ति के वैचारिक स्वातंत्र्य और सामाजिक स्वाधीनता का हिस्सा बना देती है।’

‘राधाकृष्णन’ की दृष्टि में- “बुद्ध किसी ईश्वरीय प्रेरणा के संदर्भ के बिना यथार्थ अथवा अनुभव का अध्ययन करना चाहते थे। इस मामले में बुद्ध आधुनिक वैज्ञानिकों के समकक्ष थे, जो यह कहते हैं कि प्राकृतिक घटनाओं की व्याख्या के मामले में किसी अलौकिक हस्ताक्षेप के विचार को सामने लाना ही नहीं चाहिए।”

इस सम्बन्ध में एक बार उनके प्रिय शिष्य आनन्द ने पूछा कि,”जीवन‌ क्या है और मृत्यु के बाद क्या होता है?” उन्होंने जवाब दिया,”जिस प्रकार जंगल में दो लकड़ियों के रगड़ जाने से चिंगारी पैदा होती है, वह कहां से आती है और कहां चली जाती है? किसी को नहीं पता, उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्य इन‌ अनावश्यक विषयों पर चिंतन नहीं करते कि यह जीवन कहां से आया और कहां चला गया? बल्कि वे कर्म करते हैं।”

इस तरह के आधुनिक भौतिकवादी विचारों से सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन भरा पड़ा है।‌ हम देख सकते हैं कि बुद्ध के दर्शन में अनेकानेक ऐसी मानवतावादी एवं वैज्ञानिक दृष्टि और सिद्धांत थे, जो कुण्ठित जनता की सृजनात्मक क्षमता को प्रेरणा प्रदान कर रहे थे। उनकी प्रतिस्थापनाओं ने जनता में ‌एक नयी चेतना, आत्मविश्वास और क्रियाशीलता की स्फूर्ति पैदा की।

कोई भी क्रांतिकारी विचार जब धर्म में बदल जाता है, तब उसके मूल विचारों का क्षरण हो जाता है। सभी धर्मों की तरह ‌बौद्ध धर्म के साथ भी ‌यही हुआ। यह धर्म हीनयान, महायान और वज्रयान जैसे तीन शाखाओं में बंट गया। इसमें भी अनेक ‌देवी देवताओं का प्रवेश हुआ। लंका-वर्मा जैसे देशों में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग दूसरे धर्मों के लोगों पर अत्याचार तक करने लगे। इन‌ सबके बावज़ूद गौतम बुद्ध के क्रांतिकारी और ‌आधुनिक विचार आज‌ केवल भारत में ही नहीं बल्कि अशान्ति और हिंसा से भरी दुनिया में महत्वपूर्ण हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author