राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कल 26 सितंबर, 2023 को लखनऊ में एक कार्यक्रम में कहा “मुस्लिम भी हमारे ही हैं, संघ का कोई पराया नहीं, बस उनकी पूजा पद्धति बदल गई है। यह देश उनका भी है वे भी यहीं रहेंगे। आलोचना करने वाले हिंदू धर्म को नहीं जानते।”
उन्होंने कहा कि जातिप्रथा, भेदभाव जैसी सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिए समाज को एकजुट करना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि सनातन कोई धर्म नहीं बल्कि संस्कृति है।
मोहन भागवत के उपरोक्त वक्तव्य के आलोक में कुछ पीछे की ओर देखने से पता चलता है कि उनके ये शब्द संघ के वैचारिक प्रमुख और संघ संस्थापक केशव राव बलिराम हेडगेवार के उत्तराधिकारी माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की उस विचारधारा के एकदम विपरीत हैं जो मुसलमानों को भारत का शत्रु मानते रहे। उनके उक्त विचारों के कारण ही संघ दशकों से मुसलमानों के विरुद्ध विष-वमन करता रहा है, उन्हें अपनी घृणा व हिंसा का शिकार बनाने के बहाने पैदा करता रहा है।
यह कितना हास्यास्पद है कि मोहन भागवत ‘सनातन धर्म’ की पीढ़ियों से प्रचलित एक सर्वमान्य परिभाषा के इतर इसकी मनगढ़ंत व्याख्या कर रहे हैं। जबकि यथार्थत: ‘हिंदू’ कोई ‘धर्म’ है ही नहीं। इस विषय में लंबी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि यह एक जीवन-पद्धति है, न कि धर्म।
मतलब मोहन भागवत को स्वयं यह नहीं मालूम कि ‘धर्म’ और संस्कृति क्या है। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि धर्म मनुष्य की अंतश्चेतना को वैश्विक विराट परमचैन्य से सम्पृक्त करने के लिए अंत:करण और बाह्य कर्मों के द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ है, जबकि संस्कृति का गठन रहन-सहन, रीति-रिवाज, परंपरा, त्यौहार, बोली-भाषा, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार आदि पर निर्भर करता है। सारत: जीवन जीने की कला ही संस्कृति है।
इजरायली यहूदियों से हिंदू बने चितपावनों के वंशज गोलवलकर-सावरकर की जोड़ी ने पहले तो सनातन धर्म की सहस्राब्दियों पुरानी मानवीय सद्गुणों की पोषक अवधारणा को अपने ‘हिंदुत्व’ की वैचारिकी से भ्रष्ट कर लोगों का मतिहरण करने का प्रयास किया जिसका मूल गैर-सनातनियों के प्रति घृणा व हिंसा है। यह सर्वविदित है कि उनका यह विचार हिटलर के नाजीवादी तथाकथित शुद्ध रक्त और जर्मन राष्ट्रवाद तथा मुसोलिनी के फासिज्म के अलावा मानवताविरोधी मनुस्मृति से प्रेरित है।
संघ के सभी लोग मुसलमानों को सारे नागरिक अधिकारों से वंचित और किसी भी तरह की मांग या इच्छा न रखने की शर्त पर गुलामों की तरह ही भारत में रहने देने की बातें कहने वाले माधवराव सदाशिवराव को एक आध्यात्मिक ज्ञानी और ‘परमपूज्य गुरुजी’ कहते हैं। तो यहां प्रश्न उठता है कि क्या कोई आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति दूसरों के प्रति ऐसा घृणित भाव रख सकता है? हिंदुओं का ऐसा कौन-सा धर्मग्रंथ है जिससे ऐसी निकृष्ट सोच विकसित होती है, मनुस्मृति की बात छोड़िये क्योंकि वह अधर्म का पृष्ठपोषण करती है न कि धर्म का।
यही कारण है कि मनुस्मृति और उसमें प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था को आदर्श सामाजिक संरचना मानने वाले संघ में पिछले अठानबे वर्षों में एक भी दलित, महिला और आदिवासी को न तो सरसंघचालक बनाया गया और न ही इन्हें संगठन में किसी उच्च पद पर आसीन किया गया। तिस पर भी उत्तर प्रदेश के एक क्षत्रिय राजेन्द्र सिंह उर्फ ‘रज्जू भैय्या’ के अतिरिक्त सारे संघ-प्रमुख ब्राह्मण ही बनाये गये। ऐसा भेदभाव क्यों?
दलितों, आदिवासियों, महिलाओं के प्रति पीढ़ियों से पोषित घृणा और तज्जनित उपेक्षात्मक भाव अब संघ के डीएनए स्तर तक पैठ गया है। इसी कारण देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नये संसद भवन के शिलान्यास, उद्घाटन और उसमें बुलाये गये पहले संसद-सत्र में उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। जबकि अनेक फिल्मी तारिकाओं को आमंत्रण दिया गया था।
यही नहीं समाज के पिछड़े वर्गों का जीवन-स्तर उठाने और निर्णय लेने में उनकी भी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के बजाय संसद की उक्त बैठक में लाये गये महिला आरक्षण बिल में इस वर्ग की महिलाओं को जानबूझकर छोड़ दिया गया।
क्या मोहन भागवत बतायेंगे कि उन्होंने कल जिस तरह लखनऊ में “मुस्लिम भी हमारे ही हैं, संघ का कोई पराया नहीं” कहा है, उसके अनुसार संघ का हृदय-परिवर्तन हो गया है? क्या वे अपने ‘परमपूज्य गुरुजी’ माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर और वैचारिकी के शिखर पुरुष विनायक दामोदर सावरकर की मुस्लिमविहीन हिंदू राष्ट्र की संकल्पना को पीछे छोड़कर इस देश में सबके लिए खुले दिल से जगह बनाने को तैयार हैं? क्या संघ इसकी शुरुआत अपने संगठन में सरसंघचालक समेत सभी उच्च पदों पर हिंदू समाज के अभिन्न अंग वैश्यों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं को बैठाकर करेगा? क्या आने वाले समय में हम संघ को खुले मन से सर्वसमावेशी स्वरूप में देख पायेंगे?
इन प्रश्नों के उत्तर मोहन भागवत को देने होंगे। अन्यथा तो संघ मनुस्मृति पर आधारित समताविहीन अमानवीय समाज की वकालत करने वाला मानवताविरोधी संगठन ही बना रह जायेगा, जो इस देश की मूल आत्मा के विरुद्ध और गिरगिट की तरह परिस्थितियों के अनुसार अपना रंग बदलने के अलावा कुछ नहीं है।
(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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