सामूहिक मौत के साये में विजय दुंदुभि!

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आरएसएस ने विश्व हिन्दू परिषद के नाम से 1989 में रामजन्मभूमि अभियान की आक्रामक शुरुआत की थी। हम आठवीं से आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से शहर (मुज़फ़्फ़रनगर) पहुंच चुके थे। इस तरह हम होश संभालते ही हिन्दुस्तान की आम अवाम को मिले जैसे-तैसे लोकतंत्र की तबाही की मुहिम के गवाह बन रहे थे। ये बेहद उत्तेजक और हलचल भरे दिन थे। संघ परिवार एक के बाद एक कार्यक्रम जारी करता फिर जिन्हें हिन्दी अख़बारों की खुली मदद से गली-मोहल्लों में सांस्कृतिक आयोजनों की तरह आयोजित करता।

हमारे शहर में हिन्दू समाज में इसकी काट के लिए जागरूक करने वाला कोई संज़ीदा और प्रभावी अभियान नहीं था। हम बच्चे इसे ख़ुद ब ख़ुद समझते हुए, कभी रोमांचित होते हुए और कभी विचलित होते हुए बड़े हो रहे थे। रौशनी की एक हल्की लकीर अगर हम तक आती थी तो घर पर पिताजी की किताबों से और साम्प्रदायिक लेखों से रंगे हिन्दी अख़बारों में ही मिल रहे सद्भाव पर ज़ोर देने वाले लेखों से मिलती थी। हालांकि यह थरथराती लौ सा एक क्षीण प्रतिरोध था पर हमारे मन में द्वंद्व पैदा करता था।

अभी घंटे भर से यह सब याद आते चले जाने की वजह आप ख़ुद समझ जाएंगे। उस शाम-रात का धुंधलका मुझे याद है जब राम जन्मभूमि अभियान के समर्थन में मंदिरों, गली-चौराहों, बाज़ारों में घंटे-घड़िय़ाल और घरों से थालियां बजाने का कार्यक्रम दिया गया था। मुझे हालांकि इस से कोई लेना-देना नहीं था और हिन्दुओं के बीच एक बड़े पैसिव समर्थन के बावजूद एसे कार्यक्रमों में सीधे शत-प्रतिशत भागीदारी का माहौल भी नहीं था तो भी उस शोर ने अचानक एक तफ़रीह और उन्माद पैदा किया। मुझे याद है कि मैंने एक टूटी खाट की बाही उठाकर अपने ठिकाने की बगल की छत से बिजली की दुकान के बोर्ड को ज़ोर-जोर से पीटना शुरू कर दिया था। यह उन्माद में आनंद पाने की मनहूस फ़ितरत थी। 

कुछ देर पहले हल्द्वानी के मशहूर घुमंतू रचनाकार अशोक पांडे की फेसबुक पोस्ट ने वह सब ताज़ा कर दिया है। अशोक पांडे ने लिखा- “आठ घंटे की ख़ामोशी के बाद शुरू हो गई गंद मचनी। थाली-घंटी, कनस्तर, प्लेट, दीवाली के पटाखे, टीन के डिब्बे, जिसेक पास जो है, वह निकाल लाया है। बधाई आर्यावर्तियों! इस क्षण को मरने के दिन तक याद रखना।“ 

अशोक भाई, क्या यह लातिन अमेरिका का जादुई यथार्थवाद इतिहास में घूमते हुए आया है कि सामूहिक मौतों का साया सिर पर नाच रहा है और जो सबसे ज़्यादा वलनरेबल हैं, वे सबसे ज़्यादा रोमांचित-उत्तेजित हैं? यूं तो पढ़े-लिखे कथित इलीट भी अपने अपराधों में मुँह छुपाते यही कर रहे थे। हाँ, 1989 के जिस अभिय़ान ने 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी थी, यह कई अगले चरणों से गुज़रकर यहाँ तक पहुंच चुके उस फ़ासिज़्म का नया उत्सव था जो अब टीवी चैनलों के ज़रिये ज़ारी रहेगा। माफ़ कीजिए, अगर कोई कहता है कि यह किसी का आभार था तो इसमें आभार वाली शालीनता नहीं थी। अगर यह जागरुकरता थी तो अफ़सोस कि बड़े-बड़े नाम बड़े पैमाने पर प्रधानमंत्री को धन्यवाद करते हुए यह झूठ प्रचारित कर रहे थे कि साउंड वाइब्रेशन कोई महान प्राचीन भारतीय विधि है जिससे जीवाणु-विषाणु मर जाने है। 

ओह, ऐसे नाज़ुक वक़्त में जब यह कहना ज़रूरी है कि कोरोना वायरस किसी टोटके या किसी शोर से नहीं, कड़वे सच का समझदारी से और हमारे पैसे पर खड़ी सरकार के लोगों के लिए युद्धस्तर पर मेडिकल और खाने-पीने की सुविधाएं खोल देने से ही संभव है। झूठ और गफ़लत फैलाकर जो नतीज़े आते हैं, वे वही हैं जिनकी दो दिन से मैं भी आशंका जता रहा था। इंदौर और दूसरे शहरों के वीडियो वायरल हो रहे हैं जिनमें झंडे लिए युवकों की भीड़ घंटियां-थालियां बजाते हुए सड़कों पर निकल आई है।

यह आइसोलेशन, आत्म-संयम और संकल्प है जिसका आह्वान किया गया था? या यह इस संकट में एक शक्ति प्रदर्शन है? विजय दुंदुभि कि चीन में कोरोना संकट शुरू होने के बाद जनवरी से ट्रम्प की यात्रा के जश्न, दिल्ली प्रोग्रोम, बैंक घोटाले और कॉरपोरेट खेलों, मध्य प्रदेश में होर्स ट्रेडिंग, गौमूत्र प्रदर्शन तक हम क्या-क्या नहीं करते रहे, सिवाय कोरोना से निपटने की युद्धस्तरीय एहतियातों और संकट में निपटने के लिए चीन जैसे मेडिकल और जन संरक्षण के सामाजिक प्रबंधों के?

फ़िलहाल, कुछ मुख़्तसर बातें। केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के ही मुताबिक, देश में 84 हज़ार लोगों पर एक आइसोलेशन बैड उपलब्ध है और 36 हज़ार लोगों पर एक क्वारंटाइन बैड। 11 हज़ार 600 लोगों के लिए एक ड़ॉक्टर और 1826 लोगों के लिए सिर्फ़ एक बैड। आम लोगों तक खाने और पानी की उपलब्धता की स्थिति भी किसी से छिपी हुई नहीं है। अब लोगों की मर्ज़ी कि वे यही सब करते हुए मरते हैं या देर से ही सही सरकार से गंभीर आपात उपायों के लिए अभियान की मांग करते हुए ख़ुद को यथासंभव आइसोलेट कर पाते हैं।

( लेखक धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)

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