राफेल विमान सौदे में भ्रष्टाचार की पर्तें एक बार फिर से खुलने लगी हैं। राफेल सौदे में 20 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप है और पूरा सौदा अनियमिताओं से भरा है।राफेल सौदे में भ्रष्टाचार पर अपनी खोजी रिपोर्ट के दूसरे भाग में फ्रांसीसी न्यूज पोर्टल मीडियापार्ट ने कहा है कि इस सौदे में भ्रष्टाचार की जांच रुकवाने के लिए राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रां और पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने पद के प्रभाव का इस्तेमाल किया। दरअसल यही गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील है ।
इस सौदे में दलाली, बिचौलिया, क्रोनी कैपटलिज्म, सब कुछ है पर इस पर पर्दादारी के लिए फ्रांस और भारत की सरकारें खड़ी हैं।पूंजीवाद का यही राष्ट्रवादी मोड़ है।
फ्रांस की न्यूज़ वेबसाइट ने इस सौदे में हुए भ्रष्टाचार पर जो खोजी रिपोर्ट तैयार की है, उसके दूसरे हिस्से को भी रिलीज किया है। इस हिस्से में मीडियापार्ट का कहना है कि अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप को पहले से इस सौदे की जानकारी थी और उन्होंने इसमें अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद की पत्नी की फिल्म को फाइनेंस किया था।
इतना ही नहीं इस सौदे में हुए भ्रष्टाचार की भनक फ्रांस के वित्तीय अपराध शाखा को लग गई थी, लेकिन ऊपरी दबाव के चलते मामले को रफा-दफा कर दिया गया था।
अक्तूबर, 2018 में जब फ्रांस के प्रतिष्ठित भ्रष्टाचार निरोधी एनजीओ ने फ्रांस की तत्कालीन वित्तीय अपराध शाखा प्रमुख इलिएन हुलेत को एक कानूनी बयान दिया जिसमें आशंका जताई गई थी कि फ्रांसीसी सरकार और देश के औद्योगिक घराने दसॉल्ट एविएशन ने राफेल विमान सौदे में बड़ा भ्रष्टाचार किया है। शेरपा नाम के इस एनजीओ ने आशंका जताई कि फ्रांस और भारत के बीच हुए 36 राफेल लड़ाकू विमानों के 7.8 बिलियन यूरो के सौदे में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग, सरकारी रिश्तों का इस्तेमाल किया गया है।
शेरपा ने जो दस्तावेज सौंपे थे उसे सिग्नलमेंट कहा गया, जिसका फ्रांस में अर्थ होता है किसी आपराधिक गतिविधि की आशंका और इसे किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था द्वारा दाखिल किया जा सकता है जो इस भ्रष्टाचार से सीधे प्रभावित नहीं हो रहा है। चूंकि आरोप राजनीतिक तौर पर बेहद संवेदनशील था, सिर्फ इसलिए नहीं कि इसमें एक बड़े हथियार सौदे में दो देशों की सरकारें शामिल थीं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि इस भ्रष्टाचार के तार फ्रांस के मौजूदा राष्ट्रपति इमेनुएल मैक्रां के पूर्ववर्ती फ्रांस्वां ओलांद और उनके रक्षा मंत्री रहे जॉं येव्स ली ड्रायन से भी जुड़ते थे। ड्रायन को मैक्रां ने अपनी सरकार में विदेश मंत्री बनाया था, जो अभी भी इस पद पर हैं।
मीडियापार्ट की जांच में सामने आया कि जनवरी 2016 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद द्वारा राफेल सौदे पर हस्ताक्षर करने से ठीक पहले दसॉल्ट एविएशन के प्रमुख भारतीय साझीदार अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप ने ओलांद की पार्टनर और अभिनेत्री जूली गएत की फिल्म में करीब 1.6 मिलियन यूरो लगाए थे। मीडियापार्ट ने 2018 में इस विषय में जब फ्रांस्वां ओलांद से दरयाफ्त किया था तो उन्होंने साफ कहा था कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप ने जूली गएत की फिल्म प्रोड्यूस की है। उन्होंने यह भी कहा था कि अनिल अंबानी को दसॉल्ट एविएशन का प्रमुख भारतीय साझीदार बनाने के लिए भारत सरकार ने दबाव डाला था। हालांकि दसॉल्ट और तत्कालीन फ्रांसीसी रक्षा मंत्री जॉं येव्स ली ड्रायन ने इस बात से इंकार किया था।
इस दौरान अप्रैल 2019 में फ्रांसीसी अखबार ली मोंडे ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2014 से 2016 के बीच ओलांद के वित्त मंत्री रहे इमैनुएल मैक्रां ने रिलायंस समूह की फ्रांसीसी इकाई का बहुत मोटा टैक्स माफ किया था। बताया गया था कि रिलायंस पर 151 मिलियन यूरो का टैक्स बनता था जिसे मैक्रॉं ने घटाकर 7.6 मिलियन यूरो कर दिया था। लेकिन फ्रांसीसी राष्ट्रपति कार्यालय के अधिकारियों ने वित्त मंत्री के रूप में मैक्रां और अनिल अंबानी की किसी मुलाकात की जानकारी होने से इनकार कर दिया था।
इस सिलसिले में मीडियापार्ट को जो दस्तावेज और लोगों को बयान मिले हां उससे साफ होता है कि शेरपा ने फ्रांस की भ्रष्टाचार निरोध शाखा की प्रमुख इलिएन हुलेत को जो विस्फोटक दस्तावेज सौंपे थे उसके आधार पर जांच शुरु होनी चाहिए थी, लेकिन राफेल सौदे को लेकर किसी किस्म की जांच या भ्रष्टाचार के आरोपों का अन्वेषण करने की जरूरत नहीं समझी गई। हालांकि हुलेत ने दसॉल्ट के वकीलों के साथ एक औपचारिक बैठक जरूर की थी।
जून 2019 में आर्थिक अपराध शाखा के प्रमुख का पद छोड़ने से कुछ समय पहले ही इलिएन हुलेत ने शेरपा एनजीओ द्वारा दाखिल किए गए दस्तावेजों के आधार पर कोई मामला दर्ज किए बिना ही इसकी शुरुआती जांच को बंद कर दिया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि इस मामले में कोई अपराध नहीं हुआ है, हालांकि यह फैसला ऐसा जो इस केस की जांच कर रहे डिप्टी प्रॉसीक्यूटर की सलाह के विपरीत था और उन्होंने इस मामले में केस खत्म करने की रिपोर्ट दाखिल करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद हुलेत के फैसले पर पैरिस पब्लिक प्रॉसीक्यूशन के दो जजों ने मोहर लगा दी और हुलेत के बाद आर्थिक अपराध शाखा के प्रमुख बने जॉं फ्रांस्वां बोहनर्त ने भी इस केस को आगे नहीं बढ़ाया।
जुलाई 2020 में पैरिस मैच पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में इस विषय पर हुलेत ने कहा था कि, “कोई भी अपने कार्यकाल में हर चीज पर नजर नहीं रख सकता और उसकी जांच नहीं कर सकता।” उन्होंने कहा था, “किसी भी मामले में जांच शुरु करने से पहले फ्रांस के हितों और संस्थाओं की कार्यशैली का ध्यान रखना पड़ता है।” यानी फ्रांस की आर्थिक अपराध शाखा की पहली प्रमुख जो 2014 से 2019 तक इस पद पर रहीं एक संवेदनशील केस की इसलिए जांच नहीं कर पाई क्योंकि उनकी नजर में राष्ट्रीय हित सर्वोपरि था। मीडियापार्ट ने भी हुलेत से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने यह कहकर बात करने से इनकार कर दिया कि वे अब पद पर नहीं हैं और आप इस सिलसिले में जो भी बात करनी हो बोहनर्त से करें। उधर दसॉल्ट एविएशन ने भी मीडियापार्ट के किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया।
इस पूरे मामले की शुरुआत 2012 में हुई थी जब एक पब्लिक टेंडर के जरिए भारतीय वायुसेना के लिए 126 राफेल विमानों की आपूर्ति के लिए दसॉल्ट एविएशन का चुनाव हुआ था। शुरुआती समझ के तहत इन 126 में से 108 राफेल विमान भारत में बनने थे। इसे ऑफसेट एग्रीमेंट कहा गया और इससे भारत की अर्थव्यवस्था को आर्थिक लाभ होने वाला था। इस एग्रीमेंट में दसॉल्ट भारत की हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड यानी एचएएल के साथ मिलकर भारत में ही 108 राफेल बनाने वाली थी। भारत सरकार ने एचएएल को दसॉल्ट का भारत में प्रमुख औद्योगिक साझीदार बनाया था। पूरे सौदे की कीमत का करीब आधा यानी लगभग 4 मिलियन यूरो दसॉल्ट एविएशन को भारतीय कंपनियों में विमानों के लिए कल-पुर्जे आदि खरीदने में लगाना था।
इस सौदे को लेकर करीब तीन साल तक सौदेबाजी होती रही कि 2015 में अचानक हालात बदल गए। एक साल पहले ही सत्तासीन हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल 2015 में फ्रांस की यात्रा की और सौदे की सारी शर्तों को पलटते हुए उन्होंने फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने के समझौते का ऐलान कर दिया। इस समझौते में एचएएल को दरकिनार कर दिया गया और उसकी जगह अनिल अंबानी की कंपनी को दसॉल्ट एविएशन का प्रमुख भारतीय साझीदार बना दिया गया। मीडियापार्ट का कहना है कि अनिल अंबानी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नजदीकी रिश्ते हैं और उनकी कंपनी को एविएशन क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं है।
मीडियापार्ट का कहना है कि इतना ही नहीं अनिल अंबानी को इस सौदे की पहले से जानकारी थी और उन्हें पता था कि नए सौदे में उनकी कंपनी को दसॉल्ट एविएशन के प्रमुख भारतीय साझीदार के तौर पर शामिल किया जाएगा। मीडियापार्ट ने बताया कि पीएम मोदी और तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वां ओलांद द्वारा 36 लड़ाकू विमानों की खरीद के सौदे के ऐलान से कोई तीन सप्ताह पहले अनिल अंबानी पेरिस आए थे और उन्होंने तत्कालीन फ्रांसीसी रक्षा मंत्री जॉं येव्स ली ड्रायन के प्रमुख सलाहकारों के साथ मुलाकात की थी। इस मुलाकात के बाद और राफेल सौदे पर दस्तखत होने से एक सप्ताह पहले अनिल अंबानी ने 28 मार्च 2015 में रिलायंस डिफेंस नाम की कंपनी की स्थापना की। और जब अप्रैल में राफेल सौदे का ऐलान हुआ तो रिलायंस डिफेंस को दसॉल्ट एविएशन का प्रमुख भारतीय साझीदार बना दिया गया। यानी राफेल सौदे पर निर्णायक सहमति से कोई एक साल पहले अनिल अंबानी की कंपनी को दसॉल्ट का साझीदार बना दिया गया।
गौरतलब है कि मोदी सरकार पर शुरू से ही राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। यह भी आरोप हैं कि इस सौदे को अंतिम रूप देने से पहले तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को भी विश्वास में नहीं लिया गया था।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)