Saturday, April 27, 2024

Special Report: काशी नागरी प्रचारिणी सभा को पचास बरस बाद हाईकोर्ट के जरिये मिली मुक्ति

हिंदी के उन्नयन के लिए स्थापित बनारस की जो प्राचीन संस्था, नागरी प्रचारिणी सभा चंद लोगों के हाथों की कठपुतली बन गई थी, वो अब मुक्त हो गई है। दशकों से आरोप लगता रहा है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे सुधाकर पांडेय और उनके भाई डा.रत्नाकर पांडेय के कुनबे ने इस संस्था को अपनी निजी जागीर बना लिया था। साल 2022 में नागरी प्रचारिणी सभा का चुनाव हुआ, लेकिन सालों से संस्था पर कब्जा जमाए लोगों ने उसे नहीं माना। लंबे इंतजार के बाद हाईकोर्ट के आदेश पर अब चुनी हुई कार्यकारिणी को काम करने का मौका मिला है। नागरी प्रचारिणी सभा के आर्य भाषा पुस्तकालय का ताला खुल गया है। साहित्य प्रेमियों के लिए सभा को पुनर्जीवित करने की जोरदार कोशिशें चल रही हैं।

देश की प्राचीनतम संस्था नागरी प्रचारिणी सभा का मुख्यालय बनारस में है। यहीं आर्यभाषा पुस्तकालय भी है, जिसे हिंदी भाषा और भारतीय साहित्य की अनमोल दुर्लभ पांडुलिपियों का सबसे बड़ा ख़ज़ाना माना जाता है। संस्था की नई दिल्ली और हरिद्वार में शाखाएं हैं। नई दिल्ली स्थित नागरी प्रचारिणी सभा की एक व्यावसायिक इमारत है, जिससे एक बड़ी धनराशि किराए के तौर पर संस्था को मिलती रही है। अभी तक उस पैसे का कोई हिसाब-किताब नहीं मिल सका है। केंद्र सरकार ने दिल्ली के भूखंड को इसी मकसद से दिया था ताकि इससे होने वाली आमदनी को वाराणसी में नागरी प्रचारिणी सभा के उद्देश्यों को पूरा करने पर ख़र्च किया जा सके।

नागरी प्रचारिणी सभा के आर्यभाषा पुस्तकालय में करीब 25 हजार पांडुलिपियां हैं जो जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। इस पुस्तकालय के डिजिटलाजेशन पर एक मर्तबा लाखों रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन उसका कोई ब्योरा न तो संस्था के पास है और न ही सरकार के पास। नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल पिछले एक पखवाड़े से संस्था की इमारत का कायाकल्प करने में जुटे हैं। बिक्री के लिए यहां जो भी पुस्तकें मौजूद थीं, उनमें ज्यादातर को दीमक चाट चुकी हैं। इन किताबों के बीच सांप-बिच्छू पल रहे थे, जिन्हें स्नैक कैचर्स को बुलाकर रेस्क्यू कराया गया। लंबे समय से बंद पड़े कमरों से बर्बाद हो चुकी हजारों की बिना जिल्द वाली पुस्तकों को बाहर निकाला गया है। ये पुस्तकें लोहे के जिस रैक रखी थीं, उनमें भी जंग लग चुका है। सभी रैकों की दोबारा पेंटिंग कराई जा रही है।

नागरी प्रचारिणी सभा में सिर्फ किताबें ही नहीं, टेबल-कुर्सियां तक सड़ चुकी हैं। इमारत के कमरों में लगे पंखें भी चलने लायक नहीं हैं। बिजली की वायरिंग, कमरों के दरवाजे तक जीर्ण-शीर्ष हालत में हैं। अब कमरों के अलावा, खिड़की-दरवाजों में पेंटिंग कराई जा रही है। संस्था के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल के साथ उनके उनके रंगकर्मी साथी स्वाति विश्वकर्मा, नंदिनी विश्वकर्मा, तापस शुक्ल, शाश्वत त्रिपाठी, साखी शुक्ल, जेपी शर्मा, राम अवध मिश्र, विनोद शंकर तिवारी आदि लोगों की टीम सुबह से शाम तक मजदूरों के साथ खट रही हैं। साहित्य प्रेमियों के लिए यहां वो सभी संसाधन जुटाए जा रहे हैं, जिसकी संस्था को सालों से दरकार थी। फिलहाल कार्यालय और पुस्तकों के विक्रय केंद्र आदि के सुंदरीकरण का काम जोरों से चल रहा है। हिंदी और साहित्य के प्रेमी अब नागरी प्रचारिणी सभा में पहुंचने लगे हैं। परिसर को नया कलेवर देने की तैयारी है। कुछ दिनों के अंदर ही 25 हजार पांडुलिपियों की मरम्मत और उन्हें डिजिटल करने का काम शुरू होने की उम्मीद है।

पांच दशक बाद लौटी रौनक

करीब पांच दशक बाद बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा में रौनक लौटी है। अब इसे सेंटर आफ एक्सीलेंस का दर्जा दिलवाने की तैयारी की जा रही है। यहां करीब 250 दर्शकों की क्षमता वाला एक ऑडिटोरियम बनवाया जाएगा। यहां साहित्य और कला के क्षेत्र में दूसरी गतिविधियां भी तेज की जाएंगी। नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल कहते हैं, “यह पूरा काम तीन चरणों पूरा कराया जाएगा। पहले चरण में इस जगह की मरम्मत कराई जा रही है। दूसरे चरण में पांडुलिपियों का डिजिटलाजेशन, तीसरे और अंतिम चरण में प्रदर्शनी और इसके केयर टेकिंग के प्रक्रिया शुरू होगी।”

नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल

“बनारस में कई ऑडिटोरियम हैं, लेकिन साहित्य प्रेमी वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, क्योंकि वो बहुत महंगे हैं। कला प्रेमियों के लिए बनारस में कोई दीर्धा नहीं है। हम ऐसा ऑडिटोरियम बनवाना चाहते हैं जहां कम पैसों में फनकार अपनी कला का मंचन और प्रदर्शन कर सकेंगे। यह काम एक साल के अंदर ही पूरा हो जाएगा। इसके लिए शासन ने करीब करोड़ रुपये का बजट अलाट किया है। आदिवासी कलाओं की पहचान और प्रतिष्ठा के लिए भी नागरी प्रचारिणी सभा जल्द ही मुहिम शुरू करेगी।”

व्योमेश यह भी कहते हैं, “तीन दशक बाद नागरी प्रचारिणी सभा के ताले खुले हैं। यहां आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, पंडित मदन मोहन मालवीय, राय कृष्ण दास, मुंशी प्रेमचंद, तुलसी, कबीर, सूरदास और रविदास जैसे साहित्य के पुरोधाओं के तमाम ग्रंथ और पुस्तकें मौजूद हैं। इनके अलावा दूसरे रचनाकारों, लेखकों उपन्यासकारों और साहित्यकारों की तमाम किताबें व लेख हैं। यहां कबीर और तुलसीदास की ग्रंथावलियां भी हैं। हिंदी प्रेमियों के लिए नागरी प्रचारिणी सभा पवित्र मंदिर जैसा है। हम साहित्य के मंदिर के तौर पर ही इसका विस्तार करना चाहते हैं।”

क्या थी विवाद की वजह

सालों पहले पूर्व राज्यसभा सदस्य सुधाकर पांडेय नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री बने और उसके बाद संस्था पर उनके कुनबे का कब्जा हो गया। इसी बीच वहां एक और संस्था खड़ी हो गई। सुधाकर के निधन के बाद उनके पुत्र डॉ. पद्माकर पांडेय ने खुद को प्रधानमंत्री बना लिया। डॉ. पद्माकर पांडेय के निधन के बाद इनके छोटे भाई डॉ. कुसुमाकर पांडेय ने संस्था की कमान अपने हाथ में ले ली, जिसके चलते बखेड़ा बढ़ गया। इसकी वजह यह रही कि कुसुमाकर पांडेय दिल्ली में प्राध्यापक होते हुए स्वयंभू प्रधानमंत्री बन गए, जबकि इस पद के लिए बनारस का स्थायी नागरिक होना जरूरी था। नागरी प्रचारिणी सभा की प्रबंध समिति का विवाद लंबे समय से वाराणसी के उप जिलाधिकारी (सदर) के न्यायालय में चल रहा था। संस्था की दो प्रबंधन समितियां थी और उनमें असली-नकली की लड़ाई चल रही थी।

बनारस के जाने-माने रंगकर्मी एवं साहित्यकार व्योमेश शुक्ल साल 2020 में इस मुकदमे में पक्षकार करने के लिए अर्जी दी। काफी जद्दोजहद के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर चुनाव हुआ, लेकिन आपस में लड़ रहे दोनों पक्षों ने इस चुनाव को नहीं माना। दरअसल, हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश के जरिए चुनाव तो करवा दिया, लेकिन उसी आदेश में यह भी लिख दिया कि इस मुकदमे के अंतिम निर्णय के बाद ही तय होगा कि संस्था का प्रभावी नियंत्रण किसके पास रहे?

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अब नागरी प्रचारिणी सभा की कार्यकारिणी के चुनाव को मान्यता देते हुए इसके खिलाफ दाखिल याचिका रद्द कर दी है। न्यायमूर्ति सौरभ श्रीवास्तव ने लंबी सुनवाई के बाद व्योमेश शुक्ला के नेतृत्व वाली कार्यकारिणी को न सिर्फ मान्यता दी, बल्कि उनके सभी अधिकारों को भी बहाल कर दिया। 06 अप्रैल 2023 को मतगणना के बाद वाराणसी के असिस्टेंट रजिस्ट्रार, सोसाइटीज़ मंगलेश पालीवाल ने व्योमेश शुक्ला वाली नई कमेटी को 11 अप्रैल, 23 को मान्यता दी थी।

नागरी प्रचारिणी सभा करीब 130 साल पुरानी संस्था है। पिछले छह दशक से पूर्व राज्यसभा सांसद रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुधाकर पांडेय और उनका परिवार इस संस्था को चला रहे थे। साल 2015 से सभा का विवाद चल रहा था। संस्था से जुड़े दो गुट इस पर अपना दावा जता रहे थे। मामला हाईकोर्ट पहुंचा तो साल 2004-2007 की सदस्यता सूची के आधार पर चुनाव कराने का आदेश निर्गत हुआ। 09 जून 2022 को बनारस के राइफल क्लब में चुनाव हुआ, लेकिन हाईकोर्ट के अंतिम निर्णय तक परिणाम घोषित नहीं किए गए। 9 जून, 2022 को राइफल क्लब में जिला प्रशासन ने 19 पदों के चुनाव कराए, लेकिन हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन में मतों की गिनती नहीं हुई। मतपत्रों को कड़ी सुरक्षा के बीच जिला कोषागार के डबल लॉक में सुरक्षित रख दिया गया। इस निर्णय के बाद इसी मुकदमे में एक और अंतरिम आदेश के माध्यम से हाईकोर्ट ने मतगणना कराने का आदेश दिया। कोर्ट के आदेश पर प्रशासन ने राइफल क्लब में मतगणना कराई, जिसमें साहित्यकार व्योमेश शुक्ल नागरी प्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री चुने गए। बनारस की शिक्षाविद प्रो. अनुराधा बनर्जी संस्था की सभापति चुनी गईं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश सौरभ श्रीवास्तव ने नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के विवादों को खत्म करते हुए व्योमेश शुक्ल के नेतृत्व वाली प्रबंध समिति को मान्यता देते हुए अब सभी याचिकाओं को निरस्त कर दिया है। हाईकोर्ट ने विपक्ष को यह छूट दी है कि वह लोकसभा चुनाव के बाद किसी सक्षम प्राधिकारी के समक्ष इस मामले को उठा सकते हैं। व्योमेश शुक्ल की ओर से अधिवक्ता कुणाल शाह ने पक्ष रखा, जबकि याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक खरे पैरवी कर रहे थे। लंबे समय से चल रहे विवाद के पटाक्षेप के बाद अब नागरी प्रचारिणी सभा के दिन बहुरने लगे हैं। आर्य भाषा पुस्तकालय के अलावा प्रकाशन व विक्रय विभाग का सालों से बंद ताला अब साहित्य प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए खुल गया है। नागरी प्रचारिणी सभा के पूर्व कथित प्रधानमंत्री डा. कुसुमाकर पांडेय से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया। उनका कोई पक्ष आएगा तो उसे भी प्रमुखता से प्रकाशित किया जाएगा।

ऐतिहासिक है सभा की इमारत

नागरी प्रचारिणी सभा का मुख्य भवन एक हेरिटेज इमारत है, लेकिन सालों से इसका रख-रखाव ठीक से नहीं किया गया है। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस भवन का उद्घाटन किया था। संस्था के अतिथि गृह में कुछ लोगों का कब्ज़ा बरकरार है। यही हाल नई दिल्ली के अतिथि गृह का भी है। वहां तो पूरी इमारत ही किराये पर उठा दी गई थी। नागरी प्रचारिणी सभा की दिल्ली शाखा की बैलेंस शीट, बैंक ऑपरेशन और आय खर्च से जुड़ा कोई अभिलेख वाराणसी के सहायक निबंधक दफ्तर में मौजूद नहीं है।

16 जुलाई 1893 को बनारस के क्वीन्स कॉलीजिएट स्कूल के कुछ उत्साही छात्रों ने नागरी प्रचारिणी सभा बनाई थी। उन छात्रों में गोपालप्रसाद खत्री, रामसूरत मिश्र, उमराव सिंह, शिवकुमार सिंह और रामनारायण मिश्र शामिल थे। बाद में साहित्यकार श्यामसुंदर दास संस्था से जुड़ गए। बाद में संस्था से जुड़े लोग आजादी के आंदोलन से जुड़ गए। बीसवीं सदी तक नागरी प्रचारिणी सभा से जुड़े लोग जी-जान से जुटकर काम किया करते थे। संस्था ने हिंदी के व्याकरण और हिंदी साहित्य के इतिहास की जरूरत महसूस की तो कामता प्रसाद गुरु और आचार्य रामचंद्र शुक्ल से तमाम किताबें लिखवाईं। हिंदी का सबसे बड़ा और भरोसेमंद कोश हिंदी शब्दसागर 11 खंडों में तैयार हुआ। नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यकर्ताओं ने अपने मिशनरी जज्बे के दम पर ब्रितानी हुकूमत से मोर्चा लिया। इनके अभिभावक थे महात्मा गांधी। लोकमान्य तिलक, आचार्य नरेंद्रदेव, लालबहादुर शास्त्री और डॉ संपूर्णानंद का संस्था से गहरा रिश्ता था।

हिंदी में शॉर्टहैंड की सबसे पहली शुरुआत नागरी प्रचारिणी सभा ने की। उस समय इसका नाम रखा गया निष्काम संकेत लिपि। हिंदी शार्टहैंड का पहला विद्यालय भी सभा में ही खुला, जिसके पहले बैच में सिर्फ तीन छात्र थे- लालबहादुर शास्त्री, टीएन सिंह और अलगू राम शास्त्री। बाद में जॉर्ज ग्रियर्सन, गोपीनाथ कविराज और चंद्रधर शर्मा गुलेरी, रामावतार शर्मा भी इस संस्था से जुड़ गए। इन सभी ने पुस्तकें लिखीं और शोधग्रंथ भी। हस्तलिखित ग्रंथों और प्राचीन पांडुलिपियों को भी खोजा। इस काम के लिए राजाओं-महाराजाओं, सरकारी हाकिमों और व्यापारियों से दान भी जुटाए गए। हिंदी की लड़ाई और आजादी की लड़ाई की लौ एक दूसरे में मिल गई।

हिंदी के अनूठे आलोचक-उपन्यासकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के नेतृत्व में 1963 में संस्था के के साठ वर्ष पूरे होने पर नागरी प्रचारिणी सभा का हीरक जयंती समारोह मनाया गया। इस मौके पर राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद भी पहुंचे। इसके बाद हिंदी के उन्नयन के लिए यहां कोई ठोस काम नहीं हुआ, जिसे याद किया जा सके। अलबत्ता नागरी प्रचारिणी पर एक परिवार ने कब्जा जमा लिया और हिंदी के पैरोकार देखते रह गए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी चंडीगढ़ और त्रिलोचन शास्त्री भोपाल चले गए। बाबू श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद इस दुनिया से पहले ही रुखसत कर चुके थे।

बनारस के जाने-माने साहित्यकार काशीनाथ सिंह कहते हैं, “हिंदी साहित्य के नजरिये से नागरी प्रचारिणी की अहमियत को समझने की जरूरत है। इसे काशी का साहित्यिक हेरिटेज घोषित कराने के लिए बनारस की जनता को सहयोग देना चाहिए। साथ ही केंद्र और राज्य सरकार का दायित्व भी बनता है कि वह हिंदी भाषा, लिपि और साहित्य के उन्नयन के लिए देश की इस प्रतिष्ठित संस्था के हालात को सुधारने के लिए आगे आए बदहाल हो चुकी हज़ारों दुर्लभ पांडुलियों, हस्तलेखों और पोथियों को बचाने के लिए सार्थक क़दम उठाए।”

बनारस के एक्टिविस्ट डा. लेनिन कहते हैं, “हिंदी को अलग पहचान दिलाने वाली संस्था नागरी प्रचारिणी सभा को नई पीढ़ी लगभग भूल चुकी है। फिर भी दोष नई पीढ़ी पर नहीं मढ़ा जा सकता, क्योंकि पिछले पचास सालों से यहां कोई ऐसा काम हुआ ही नहीं, जिसे लोग याद कर पाते। दुनिया में वही लोग याद किए जाते हैं जो लगातार काम करते है। साल 1963 के बाद नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी के उन्नयन के लिए कोई यादगार काम नहीं किया। संस्था के दरवाजे कवियों-लेखकों के लिए बंद हो गए थे। नई पहल शुरू होने से नागरी प्रचारिणी सभा के दिन फिरने की उम्मीद की जा रही है। रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल की नई पहल ने जेबी संस्था को हर आदमी का संस्था बना दिया है। नागरी प्रचारिणी सभा के विकास और विस्तार के लिए जो भी योजनाएं बनाई गई हैं, उससे हिन्दी और साहित्य के क्षेत्र में मील का पत्थर खड़ा होगा और उसे समूची दुनिया याद करेगी।”

डा.लेनिन कहते हैं, “भारतीय संस्कृति के कण-कण में हिंदी रची-बसी है। हमें लगता है कि हिंदी अब दिन-प्रतिदिन समृद्ध हो रही है, क्योंकि नई पीढ़ी ने इसे पल्लवित करने का बीड़ा उठा लिया है। वैसे भी हिंदी सिर्फ राष्ट्रीय नहीं, बल्कि राजकीय भाषा है। 14 सितंबर 1949 को देवनागरी लिपि हिंदी को भारत की राजभाषा तौर पर स्वीकार किया गया था। सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, विभिन्न मंत्रालयों, विभागों, राष्ट्रीय बैंकों और व्यक्तियों को हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए राजभाषा कीर्ति पुरस्कार और राजभाषा गौरव पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है।”

(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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