कल संविधान दिवस था। और कल ही मोदी जी ने देश के अलग-अलग हिस्सों में उसकी हत्या की व्यवस्था कर रखी थी। यह काम उन्होंने राजधानी की तरफ आ रहे किसानों के रास्ते में कहीं बैरिकेड तो कहीं वाटर कैनन और कहीं आंसू गैस के गोले छोड़कर किए। आखिर किसान ऐसा क्या चाहते थे जो मोदी सरकार उनके खिलाफ इतनी बर्बरता से पेश आयी। सर्द मौसम में गलन भरी आधी रात को किसानों के ऊपर ठंडा पानी और कुछ जगहों पर तो कहा जा रहा है कि नाले का पानी डालकर आखिर आप क्या संदेश देना चाहते हैं? किसान इस देश के नागरिक नहीं हैं या फिर उनका कोई अधिकार नहीं है? सभा करने, अपनी बात को शांतिपूर्ण तरीके से रखने और धरना-प्रदर्शन करने का अधिकार उन्हें संविधान ने दे रखा है और देश का कोई भी नागरिक या तबका इस काम को कहीं भी कर सकता है और इस बुनियादी अधिकार को उससे कोई नहीं छीन सकता जब तक कि संविधान को खत्म न कर दिया गया हो।
मोदी जी राजधानी दिल्ली न तो आपकी है और न ही नागपुर वाले आपके आका की। इसलिए अगर किसान या फिर मजदूर या समाज का कोई हिस्सा दिल्ली आकर अपनी बात कहना चाहता है तो आप उसे रोक नहीं सकते हैं। पिछले सत्तर सालों का यही इतिहास है और यही देश का लोकतंत्र और उसकी परंपरा रही है। अगर आपको याद हो तो एक दिन नहीं बल्कि महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में लाखों किसानों ने संसद से दो कदम दूरी और राष्ट्रपति भवन के ठीक सामने स्थित बोट क्लब पर दसियों दिन तक कब्जा कर लिया था। बावजूद इसके तत्कालीन सरकार ने न तो उन पर लाठियां भांजी, न ही आंसू गैस के गोले छोड़े और न ही पानी की बौछारें मारीं। लेकिन पिछले छह सालों में आप ने जो लोकतंत्र की तस्वीर जनता को दिखायी है वह किसी तानाशाह जारशाही से भी बदतर है।
अगर इस देश की जनता अपनी बात नहीं रख सकेगी और मसलों को उठा नहीं सकेगी और उसके मुताबिक देश नहीं चलेगा तो फिर आखिर ये लोकतंत्र किसके लिए है यह व्यवस्था क्यों बनायी गयी है? क्या पूरा देश कारपोरेट की सेवा के लिए बना हुआ है? खदानें हों या कि आदिवासियों की जमीनें आप बारी-बारी से कॉरपोरेट के हवाले कर रहे हैं। जनता की गाढ़ी कमाई से बने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को औने-पौने दामों पर उनकी जेबों में डाल दिया जा रहा है। जनता के पास जो उसकी अपनी जमीन बची थी अब उसे भी आपने कृषि कानूनों के जरिये कारपोरेट को सौंपने का रास्ता साफ कर दिया है।
यहां तक कि श्रम कानूनों में परिवर्तन कर 70 सालों से मिले मजदूरों के अधिकारों को लगभग छीन लिया और अब जब वह आंदोलन कर रहा है तो उसे लाठियों से पीट रहे हैं। आदिवासियों की जमीनों को हड़पने की कोशिशों का विरोध करने वालों को अर्बन नक्सल करार देकर जेलों में डाल दिया। अब जब किसान अपनी जमीन के हड़पे जाने का विरोध कर रहे हैं तो आप ने उनके सामने खाकी वर्दीधारियों को खड़ा कर दिया है। अनायास नहीं कोरोना के इस काल में जब लोग रोटी-रोटी के लिए मोहताज हो गए और किसी की नौकरी छूटी तो किसी की सैलरी काट ली गयी तब अंबानियों और अडानियों के मुनाफे में कई गुना की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है। इससे समझा जा सकता है कि पूरे दौर का फायदा किसे मिल रहा है और उसको ऐसा कराने में कौन मददगार साबित हो रहा है।
दरअसल जनता को इन सारी समस्याओं को भुला देने और मानसिक तौर पर उसे एक दूसरी ही दुनिया में ले जाने के लिए सरकार ने एक अच्छा रास्ता तलाश लिया है। वह है धर्म के नशे की अफीम का नियमित डोज। वह कभी सीएए-एनआरसी के रूप में होगा। तो कभी सांप्रदायिक दंगों के। या फिर कभी तीन तलाक और कभी लव जिहाद के तौर पर सामने आएगा। यानि हमेशा ही समाज के सांप्रदायिक तापमान को चढ़ाए रखना। जिससे नंगे-भूखे हिंदुओं के एक बड़े हिस्से को भी कुछ न कुछ हासिल होने और लगातार जीत के नशे में डूबे रहने का अहसास होता रहे। इस स्थित को बनाए रखने की शर्त केवल एक है कि नशे की मात्रा कभी कम नहीं होने पाए। और इस काम में कॉरपोरेट का सरकार को पूरा सहयोग और समर्थन मिल रहा है और वह दिन रात अपने मीडिया चैनलों के जरिये सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम विरोधी एजेंडे को प्रसारित कर रहा है। यानी सुबह से लेकर शाम तक सैकड़ों चैनल एक ही बात को लोगों की आंख और कान में डाल रहे हैं और वह है मुस्लिम विरोध की सुंघनी।
यह अनायास नहीं है कि जिस दिन हरियाणा के किसान सड़कों पर उतर कर दिल्ली जाने के लिए मार्च कर रहे हैं सूबे का गृहमंत्री उनकी समस्याओं पर बोलने की जगह ‘लव जिहाद’ पर कानून बनाने के लिए कमेटी का ऐलान कर रहा है। यह घटना बताती है कि किस हद तक बीजेपी सरकारें आत्मविश्वास से भरी हुई हैं। और उनको पता है कि वे जनता के एजेंडे के खिलाफ अपने बनाए कृत्रिम एजेंडे को स्थापित करवाने में सफल हो जाएंगी और उनका कहीं किसी भी स्तर पर विरोध नहीं होगा। और बेशर्मी इस हद तक कि किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए अपने सारे फौज-फाटे उनके रास्ते में खड़े कर दिए गए हैं। यानी सरकार तो आपके मुद्दे पर नहीं ही बोलेगी और अगर आप अपनी आवाज उठाना चाहें तो उसको भी बंद कर दिया जाएगा। यह 21 वीं सदी के संघ और बीजेपी के विश्व गुरू की तरफ पीटी उषाई गति से बढ़ते हिंदू राष्ट्र का अभी ट्रेलर है। पूरी पिक्चर अभी बाकी है।
यूपी में तो लोग कह रहे हैं कि राम राज्य आ गया है। रामराज्य के इस योगीतंत्र में किसी को सड़क पर पर्चा वितरित करने तक का अधिकार नहीं है। और अगर कोई ऐसी हिमाकत कर रहा है तो उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया जा रहा है। महिलाओं तक को नहीं बख्शा जा रहा है। परसों कुछ महिला संगठनों के एक जत्थे को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वह सड़क पर पर्चा बांट रहा था। जो काम अंग्रेज भी नहीं कर पाए वह देश की बीजेपी सरकार कर रही है। अगर इसी तरह से अंग्रेज आंदोलनों से निपटते तो न तो गांधी चंपारन जा पाते और न ही डांडी मार्च कर पाते। और तमाम अनशन और प्रदर्शन तो बहुत दूर की बात है। जबकि न तो उस समय लोकतंत्र था। न ही चुनी गयी कोई सरकार। न ही कोई संविधान बना था। लिहाजा सरकार की जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी। बावजूद इसके लोकतंत्र और मानवाधिकार की न्यूनतम शर्तों को अंग्रेज पूरी करने की गारंटी करते थे। लेकिन आज जबकि लोकतंत्र है, संविधान है, देश में चुनी गयी सरकार है। फिर भी हमारे न्यूनतम अधिकार तक सुरक्षित नहीं हैं।
वेंकैया नायडू जो इस समय उप राष्ट्रपति हैं। अटल सरकार में रहते गठबंधन धर्म और लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी डींगे मारते देखे जाते थे। और उनसे उम्मीद की जा रही थी कि किसी इस तरह के नाजुक मौके पर जबकि लोकतंत्र पर ग्रहण लगेगा तो वह कुछ बोलेंगे। क्योंकि एकबारगी माना जा सकता है कि मोदी को शायद उतनी समझ नहीं हो या फिर सत्ता के नशे में वह सब कुछ भूल गए हों। क्योंकि उन्होंने जो रास्ता अपनाया है वह देश की बर्बादी का रास्ता है। ऐसे मौके पर नायडू जैसे लोग सामने आएंगे और जामवंत की भूमिका निभाएंगे। लेकिन वह तो उल्टी ही गंगा बहा रहे हैं। कार्यपालिका के सामने पहले से ही सरेंडर कर चुकी देश की न्यायपालिका को नई ही नसीहत देते देखे गए। जब उन्होंने कहा कि न्यायपालिका को अपने दायरे से दूर नहीं जाना चाहिए।
बहरहाल मोदी जितना चाहें अपनी इस सफलता पर इतरा लें कि वह देश को सांप्रदायिक आधार पर अपने पीछे गोलबंद करने में सफल रहे हैं और उन्होंने पूरी जनता को अपनी मुट्ठी में कैद कर रखा है। और इस मामले में कॉरपोरेट उनके साथ है। लेकिन हकीकत यह है कि जमीनी हालात बदल रहे हैं। लोगों को धीरे-धीरे समझ में आने लगा है कि उनके साथ क्या किया जा रहा है। और उसी का नतीजा है कि पूरा पंजाब और हरियाणा बागी हो गया है। देश के मजदूर सड़कों पर हैं। लाख कोशिशों के बाद भी बिहार में सांप्रदायिक एजेंडा नहीं चल सका। और जनता रोजगार से लेकर रोजी-रोटी के मुद्दों के साथ सामने आयी। शायद अगर देश का विपक्ष सक्षम होता तो तस्वीर आज की कुछ दूसरी होती लेकिन फिर भी सड़कों पर उतरने के लिए तैयार देश की यह जनता समय आने पर अपना नेता और नेतृत्व खुद पैदा कर लेगी।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)